कृषि कानून विरोधी आंदोलन के कारण रोजाना हो रही घटनाओं के बीच हरियाणा प्रदेश एक अजीब स्थिति से गुजर रहा है। इस आंदोलन ने जिस रूप में पंजाब की सीमाओं से हरियाणा में प्रवेश किया था, उस स्वरूप की प्रकृति एवं प्रवृत्ति ने आंदोलन को अपने लक्ष्य एवं मर्यादाओं से कहीं दूर धकेल दिया है। बार-बार की हिंसक एवं अप्रिय घटनाओं ने न केवल आंदोलन की प्रतिबद्धता एवं विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है, अपितु प्रदेश की सामाजिक, राजनीतिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था के लिए भी यह एक गंभीर चुनौती बनकर उभरा है। जिस आंदोलन का आधार किसान हित एवं इससे जुड़ी संवेदनशीलता थी, उस आंदोलन के प्रति आम जनमानस में सहानुभूति की अपेक्षा अब माथे पर चिंता की लकीरें नजर आ रही हैं।
किसी भी आंदोलन की आधारशक्ति जन सहानुभूति होती है जो इसके प्रति लोगों के दिलों में उत्पन्न हुई संवेदनशीलता के साथ आगे बढ़ती है। यह संवेदना और सहानुभूति स्व-अर्जित शक्ति होती है जो जनता के आत्मा को चीरकर बाहर आती है। इसे न तो प्रयत्नपूर्वक पैदा किया जा सकता है और न ही बलपूर्वक दबाया जा सकता है। ‘किसान’ शब्द एक ऐसे व्यापक समाज के स्वरूप की अभिव्यक्ति है जिसका आधार और उपस्थिति राष्ट्रव्यापी है। अत: किसान आंदोलन के प्रति संवेदना एवं जन समर्थन भी उसी अनुरूप अपेक्षित था। परंतु आंदोलन का स्वरूप और उसका अंदाज जिस तरह से नेताओं की व्यक्तिगत आकांक्षाओं, संकुचित सोच एवं उत्तेजित विचारधारा में सिकुड़ कर रह गया, उसने जनसमर्थन को जन चिंता में परिवर्तित कर दिया। आंदोलन के नीतिकारों ने भूल अथवा व्यक्तिगत अहंकारवश अपनी विचारधारा को जनचेतना पर थोपने की कोशिश में निरंतर जन मर्यादाओं का उल्लंघन किया। वह इस बात को भूल गए कि जनचेतना का स्वरूप और इसकी संरचना व्यक्तिगत विचारधारा से भिन्न होती है। अत: आंदोलन के प्रारंभ में जिस जन समर्थन की उम्मीद थी, वह निरंतर दूरियां बनाता चला गया।