सम्पादकीय

खेतीमें नवाचारोंको प्रोत्साहन


डा. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा  

पिछले दिनों वर्चुअल प्लेटफार्मपर प्रगतिशील किसानों और यूकेके काश्तकारोंके बीच अनुभवोंको साझा करनेकी पहल इस महामारीके दौरमें निश्चित रूपसे सुखद सन्देश है। यह पहल किसानोंको पहचान दिलानेके लिए संघर्षरत मिशन फार्मरके डा. महेन्द्र मधुपके प्रयासोंसे सम्भव हो पायी। राजस्थान असोसिएशन यूके लंदन द्वारा आयोजित यह वेबिनार इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि कोरोना महामारीके दौरमें आज खेती किसानी ही अर्थव्यवस्थाको संभाले हुए हैं। जब सब कुछ ठप है तब देश-दुनियाके सामने खेती किसानी ही बड़ा सहारा बनी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि आनेवाले समयमें भी खेती किसानी ही बड़ा सहारा बननेवाली है। कोरोनाके कारण दुनियामें जो हालात चल रहे हैं उन्हें देखते हुए उद्योग-धंधोंके पटरीमें आनेमें अभी लम्बा समय लगेगा, ऐसेमें अर्थव्यवस्थाको खेती किसानी ही सहारा दे पायगी और अर्थव्यवस्था ही क्यों लोगोंको दो जूनकी रोटी इस खेती किसानीके कारण ही मिल पा रही है नहीं तो हवा, पानी और दवाओंतकका अभाव सामने हैं।

आज इतना सब कुछ होनेके बाद भी दुनियाके देशोंमें कहींपर भी किसीके भूखे सोनेका समाचार नहीं आया। मजेकी बात यह कि खाद्यान्नों एवं खाद्यान्न सामग्रीको लेकर कृत्रिम अभाव या कालाबाजारीका समाचार भी सुननेको लगभग नहीं मिला। यह सब हमारे किसानों-अन्नदाताओंकी मेहनतका परिणाम है। ऐसेमें खेती किसानीकी दशा और दिशाको लेकर जो चंद लोग जुटे हुए हैं उन्हें प्रोत्साहित करना जरूरी हो जाता हैं। वैसे आज देखा जाय तो किसानोंको लेकर ही राजनीति सबसे ज्यादा हो रही है परन्तु किसानोंको जिससे वास्तवमें लाभ हो उस तरहका सार्थक प्रयास किये जानेकी जरूरत बरकरार है। हम किसानोंके हाथमें ऋणमाफीका झुनझुना तो देनेको तैयार है परन्तु जो वास्तविक प्रयास होने चाहिए उससे अब भी कोसों दूर है। कुछ जागरूक किसानोंको छोड़ दिया जाय तो अधिकांश किसान खेती-किसानीमें कुछ नया करने या जोखिम लेनेको तैयार ही नहीं है। यही कारण है कि खेतीके क्षेत्रमें नवाचारोंको प्रोत्साहन उतना नहीं मिल पा रहा जितना मिलना चाहिए। एक ओर जोत छोटी होती जा रही है तो दूसरी ओर बढ़ती कृषि लागतके चलते खेती घाटेका सौदा होती जा रही है। नयी पीढ़ीका खेतीसे मोहभंग होता जा रहा है। वहीं कुछ नवाचारी किसानोंकी मेहनतका परिणाम है कि खेतीमें भी कुछ नया हो रहा है। ऐसेमें राजस्थान असोसिएशन यूके लंदन द्वारा आयोजित वेबिनार महत्वपूर्ण हो जाता है। इसके माध्यमसे खेती किसानीको लेकर एक-दूसरेके अनुभवोंको साझा करते किसानोंको देखकर इस महामारीके दौरमें सुखद हवाके झोंकेसे कमतर नहीं आंका जा सकता। इस वेबिनारकी सबसे खास बात यह है कि इससे कृषि विश्वविद्यालयोंके कुलपतियोंके साथ ही प्रगतिशील किसानोंको भी अपने अनुभव एवं सुझाव साझा करनेका अवसर मिला। खास बात यह रही कि सबने एक स्वरमें ‘खेतका पानी खेतमेंÓ का संदेश देते हुए कमसे कम पानीसे अधिकसे अधिक पैदावार लेनेके अनुभव साझा किये। रासायनिक उर्वरकोंके अत्यधिक उपयोग और हानिकारक कीटनाशकोंके दुष्प्रभावके दौरमें सभीने एक स्वरमें जैविक खेतीपर जोर दिया। खेतीकी परम्परागत तकनीकको अपनानेपर बल दिया। वैज्ञानिक किसानने बिना रसायनोंके प्रयोगके छह फीट लंबी लौकी, ११ किलोंके गोभीके फूल आदि फसल लेनेके गुर बताये। जैविक खेतीके माध्यमसे कम पानीसे इतनी अच्छी बागवानी फसल लेनेके अनुभवको साझा किया। इसी तरहसे किसान विज्ञानीकी विभिन्न प्रजातियों और उनके कैंसरतकके इलाजमें उपयोगी होना बताया। वैज्ञानिक किसानने एक लीटर पानीसे खेतीकी तकनीककी जानकारी दी।

सवाल यह है कि खेती किसानी किस तरहसे लाभकारी हो। चंद किसानोंके लिए नहीं, अपितु आम किसानोंके लिए खेती लाभका सौदा बने। आज भी चर्चा किसानोंके कर्जमाफीकी होती है, उर्वरक सब्सिडीकी होती हैं, मण्डियोंमें बिकवालीकी होती है, खाद-बीजपर अनुदानकी होती है। परन्तु यदि किसानको अपनी उपजका मूल्य प्राप्त करनेका हक मिल जाय तो उसका भला हो सकता हैं। एक किसान ही है जो अपनी मेहनतसे उपज निपजाता है और बिचौलिये उसकी मेहनतका पूरा मूल्य मिलने ही नहीं देते। किसानोंके नामपर धरणा प्रदर्शन या बयानबाजी हो सकती है। आज आवश्यकता देशके कोने-कोनेमें अपने स्तरपर नवाचार कर रहे किसानोंको प्लेटफार्म उपलब्ध करानेकी जरूरत है तो दूसरी ओर इन नवाचारी किसानोंके खेतको ही प्रयोगशाला बनाकर प्रोत्साहित किया जाना होगा। ऋणमाफीकी राशिका उपयोग किसानोंको उन्नत बीज उपलब्ध करानेमें होना चाहिए तो अनुदानकी राशिका उपयोग आधारभूत संरक्षण तैयार करनेमें होना चाहिए। किसानोंको उनकी मेहनतका पूरा पैसा दिलानेमें होना चाहिए। आवश्यकता डा. महेन्द्र मधुप जैसी जुनूनीकी भी है जो प्रगतिशील किसानोंको पहचान दिलानेमें जुटे हैं। हमें नहीं भूलना चाहिए कि कोरोना जैसी महामारीके दौरमें जब कुछ थमके रह गया है तब सबसे बड़ा सहारा खेती किसानी ही रही है। हालांकि कोरोनाकी दूसरी लहर जिस तरहसे गांवोंमें पांव पसारनेमें सफल रही है वह अपने आपमें चिंतनीय है। ऐसेमें एक और गांवोंको कोरोना लहरसे बचाना है तो दूसरी ओर खेती किसानीको नयी दिशा भी देना बड़ी चुनौती है।