सम्पादकीय

जड़ी-बूटियोंसे मिलेगा उत्तम स्वास्थ्य


हरीश बड़थ्वाल

देशका स्वास्थ्य परिदृश्य जर्जर है। प्रदूषित हवा-पानी, योग्य डाक्टरोंकी भारी कमी, दशकोंसे बिना डाक्टरोंके चलते सरकारी अस्पताल, इलाजकी आसमान छूती कीमतें, ब्रांड अस्पतालों और डाक्टरोंका खसोटी रुख, और अब, सालभरसे घिसटती कोरोनो महामारी। सचमुच बहुुत महंगा सौदा है बीमार पडऩा। इन सब विडंबनाओंके बावजूद स्वास्थ्य, शरीरकी बुनियादी जानकारी और कुदरती तौर-तरीके अपनाकर रोगमुक्त और जीवंत रहा जा सकता है। जान है तो जहां है। मन, शरीर और चित्तसे दुरुस्त, नहीं रहेंगे तो जिंदगीके लुत्फ कैसे उठायंगे। यूनानी आदिचिकित्सक हेरोफिलसने कहा था, ‘सेहत ही न रहे तो समझदारी धरी रह जाती है, कला अभिव्यक्त नहीं हो सकती, ताकत जवाब दे देती है, संपत्ति निरर्थक हो जाती है, विवेक पंगुु हो जाता हैÓ। स्वस्थ न रहनेपर अपना चैन जाता ही है, दूसरोंके काम भी नहीं आ सकते। तन-मनसे दुरस्त रहना आजकी प्रमुुख चुनौती है।

स्वयंसे पूछें, क्या सर्दी-जुकाम या डायरिया होनेपर आनन-फाननमें डाक्टर या ब्रांड अस्पतालका रुख तो नहीं करते? शासकीय अस्पताल लगभग बदहाल हैं। निजी अस्पताल, खासकर पांचसितारा अस्पतालोंका आलम यह है कि लुटनेके लिए तैयार रहें। रोगीके वहां पहुंचनेपर वह मर्जका बादमें, पहले आपकी जेबका मुुआयना करता है। हैल्थ इंश्योरेंस है तो उन्हें सब कुछ रास आता है। उदाहरणार्थ डायरिया होनेपर उनकी प्रस्तुति देखिये। सेल्समैनकी तर्जपर रोगकी भयावहता और इसके जानलेवा खतरोंका बखान करते हुए भर्ती होनेकी पट्टी पढ़ायेगा। अंतमें, ओआरएसके दो-तीन पैकेट या ईसबगोलकी भूसीसे ठीक हो सकनेवाले डायरियाके लिए तीन-चार दिन भर्तीके पचास-साठ हजार रुपये ऐंठ लेगा। यही सीजेरियनमें होता है। कोशिश रहती है, पहले गर्भमें कांप्लीकेशनकी संभावनाका डर बैठाया जाय फिर समझाया जाय कि बचावके लिए सीजेरियन ही एकमात्र सुरक्षित और कारगर तरीका है। बादमें मोटी रकम झटक ली जाती है।

चिकित्सकों द्वारा रोगियों और जरूरतमंदोंको राहत पहुुंचाना अपना धर्म समझना गुुजरे जमानेकी बात हो गयी है, बल्कि इसे रोगीपर उपकार माना जाता है। एम्स दिल्लीकी दीवारोंपर आज भी महात्मा गांधीके शब्द लिखे हैं, रोगीको देख-जांच कर डाक्टर उसपर अहसान नहीं लादता, बल्कि रोगी डाक्टरको सेवाका अवसर देकर कृतार्थ करता है। डाक्टरोंकी अतिव्यस्तताकी शिकायतपर जर्मनीके डाक्टर-लेखक मार्टिन फिशरकी टिप्पणी है, ‘चिकित्सक बननेकी ख्वाहिश रखनेवाले दिनमें १८ घंटे कार्य करनेको तत्पर नहीं हैं तो वह इस पेशेको छोड़ देंÓ। निजी अस्पतालका बड़ा डाक्टर भी सेल्समैन पहले, उपचारक बादमें होता है। चराचर जगतकी पालक प्रकृतिमें सभी जीवोंकी हिफाजतकी शानदार व्यवस्था है। कुत्ते, बिल्ली जैसे निम्न श्रेणीके मांसाहारी जीव भी हाजमा बिगडऩेपर झाडिय़ोंसे ढूंढ़-ढूंढ़कर उपचारकी बूटियां खाने लगते हैं। राजीव दीक्षित अपने आख्यानोंमें बहुधा कहते थे, अपने आवासके इर्द-गिर्द प्राकृतिक तौरपर उगे पौधों एवं जड़ी-बूटियोंसे हम कमोबेश सभी व्याधियोंका उपचार कर सकते हैं। आदि स्विस चिकित्सक पार्सेलसकी रायमें, ‘दुरस्त रहनेके लिए हमें जो भी दरकार है उसकी व्यवस्थाएं प्रकृतिने कर रखी है, विज्ञानकी चुनौती है कि उन्हें खोज निकालेंÓ।

आधुनिक चिकित्सा उन्नत ज्ञानके विपुल भंडारपर कितना ही इतराये, यह निर्विवाद है कि अभीतक वैज्ञानिकोंको शरीर, शारीरिक अंगों और प्रक्रियाओंकी जानकारी सतही है। शरीरके प्रत्येक अंग-प्रत्यंग और प्रत्येक बीमारीपर दर्जनों नियमित शोध पत्रिकाओंके प्रकाशनके पीछेका यह सत्य है कि मौजूदा ज्ञान पूर्णत: भरोसेमंद नहीं है, अभिनव परीक्षणोंसे हमेशा कुछ अतिरिक्त जानकारियां मिलती रहती है। कोई नयी दवा बाजारमें कैसे उतारी जाती है यह जानते होंगे। पहले बरसों या दशकोंतक विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियोंमें चूहे, बिल्ली, बंदर जैसे निम्नतर जीवों नयी दवाको आजमाया जाता है, इन्हें सफल पाये जानेपर मनुष्योंपर सुुुदीर्घ अवधितक क्लीनिकल परीक्षण होते हैं। दवाके कारगर पाये जानेपर सीडीसी, एफडीए जैसी वैश्विक एजेंसियों द्वारा ठपा लगाये जानेके बाद इसे सार्वजनिक मान्यता दी जाती है। इस सबके बावजूद कुछ ही हफ्तों, महीनोंमें पता चलता है कि फलां दवाके सेवनसे कालांतरमें कैंसर या अन्य भयंकर बीमारियां उत्पन्न हो सकती हैं, यह स्वयं भी घातक हो सकती हैं। तब इसे प्रतिबंधित कर दिया जाता है। टेट्रासाइकिल जैसी दशकोंतक लोकप्रिय एंटीबायोटिक अब सर्वत्र प्रतिबंधित है। रोगोपचार ही नहीं, स्वस्थ रहनेके लिए जिन देसी सामग्रियों और तौर-तरीकोंको अपने देशमें सदासे व्यवहारमें लाया जा रहा है उन्हें पश्चिमी प्रबुुुद्ध समाज मान्यता देने लगा है। भोजनमें हल्दी, धनिया, तुलसी, अजवाइन, काली मिर्च, लौंग, नीम आदि हमारी रसोईका अनिवार्य अंग रही हैं। धन्य हो भारत सरकारका वैज्ञानिक संघटन सीएसआईआर, जिसने एक अमेरिकी कंपनी द्वारा हल्दीको पेटेंट करानेकी कुचेष्टाको इस दलीलसे विफल किया कि इसका प्रयोग निर्दिष्ट प्रयोजनसे भारतमें पहलेसे किया जाता रहा है।

हमारी अप्राकृतिक होती जीवनशैली भी स्वस्थ रहनेमें बाधक है। दुरस्त करनेमें सक्षम आयुर्वेद एवं योग पद्धतियोंमें रोगीकी समग्र दशापर विचार होता है, आधुनिक चिकित्साकी भांति केवल बाह्य पक्षोंपर नहीं। व्यक्तिकी समेकित बेहतरीके लिए ध्यान, योग और प्राकृतिक चिकित्साकी भूमिका आधुनिक चिकित्सा पद्धति अब स्वीकार रही है। एलोपैथीके घातक प्रभावोंको समझकर जैविक और प्राकृतिक जीवनशैली अपनानेकी प्रवृत्ति बढ़ रही है। भारतीय उद्गमका योग सर्वत्र परचम लहरा रहा है। जरूरी है कि हम शीघ्र समझ लें जो दुनिया सीख कर अपना रही है। अत: अपनी हिफाजत स्वयं करनी होगी।