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जिन्दगी बदल सकती है सहकारिता


बीती जुलाईमें नरेंद्र मोदी सरकारने कैबिनेट विस्तारके दौरान एक सहकारिता मंत्रालयका गठन किया। इसका प्रभार स्वराष्टï्रमंत्री अमित शाहको दिया गया है। तभीसे ये मंत्रालय और क्षेत्र चर्चाका विषय है। देशमें सहकारिता आन्दोलनकी शुरुआत १९०४ में हुई थी, लेकिन ज्यादातर इसे भ्रष्टïाचारका दीमक चाट गया है। सहकारिताका स्वतंत्र भारतमें अपना इतिहास रहा है। हमारे देशमें आज सहकारी क्षेत्रको मजबूत समर्थनकी जरूरत है। सहकारिता वास्तवमें ग्रामीण परिदृश्यमें सर्वव्यापी है। भारतकी अधिकांश ग्रामीण अर्थव्यवस्था सहकारितासे प्रभावित होती है और किसी न किसी रूपमें लगभग हर ग्रामीण जीवनको प्रभावित करती है। ग्रामीण परिवेशमें यह ‘जीवनकी सुगमताÓ के लिए एक महत्वपूर्ण घटक है। हालांकि इसका योगदान कुछ क्षेत्रोंमें अधिक प्रभावी नहीं रहा है, यहांतक कि इस कारणसे कुछ क्षेत्रोंमें एक प्रकारसे ह्रास ही हुआ। विडंबना है कि राज्य इस क्षेत्रपर बिल्कुल ध्यान नहीं दे रहे हैं। जबकि इसे पोषणके साथ एक मजबूत रीढ़ और अभिनव दिमागकी जरूरत है।
मोदी सरकारने महत्वपूर्ण क्षेत्रमें ध्यान देना शुरू किया है, जिसके उत्साहवर्धक परिणाम भी सामने आने लगे हैं। सहकारिता क्षेत्रमें काम करनेका अमित शाहको पुराना अनुभव है। वह सन्ï २००० में ही अहमदाबाद जिला सहकारी बैंकके अध्यक्ष बन गये थे। तब उनकी उम्र सिर्फ ३६ वर्ष थी। घाटेकी वजहसे यह बैंक बंद होनेकी कगारपर था। लेकिन पद संभालनेके एक सालके अंदर ही शाहने न सिर्फ २०.२८ करोड़का घाटा पूरा किया, बल्कि बैंकको ६.६० करोड़ रुपयेके फायदेमें ला दिया। इसके बाद गुजरातकी सहकारितामें भाजपाकी पकड़ मजबूत होती गयी। सहकारी संस्थानोंमें कमल खिल गया और भाजपाका आधार ग्रामीण क्षेत्रोंमें भी मजबूत हो गया। इसके बाद २००१ में शाहको भाजपा सहकारी प्रकोष्ठïका राष्टï्रीय संयोजक बना दिया गया। इसी अनुभवकी वजहसे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदीने नये बने सहकारिता मंत्रालयका जिम्मा अमित शाह को सौंपा है। गांधीजीके अनुसार, समाजवादी समाजके निर्माण और सत्ताके पूर्ण विकेंद्रीकरणके लिए सहयोग आवश्यक था। उनका मत था कि सहयोग लोगोंको सशक्त बनानेके महत्वपूर्ण साधनोंमेंसे एक है। महात्मा गांधीने दक्षिण अफ्रीकामें फीनिक्स आश्रमकी स्थापना एक समाजवादी पद्धतिमें सहकारी संस्थाके रूपमें की थी। दक्षिण अफ्रीकासे लौटनेपर गांधीजीने भारतके ग्रामीण इलाकोंका दौरा किया और अतिरिक्त कराधान, अवैध वसूली आदिसे पीड़ित भारतीय किसानोंका दिवालियापन और संकटको महसूस किया। उन्होंने देखा कि किसानोंके बीच सहयोगकी अत्यधिक आवश्यकता है। कृषि उत्पाद जैसे- कपास, चीनी, तिलहन, गेहूं आदिपर आधारित कोई भी उद्योग सहकारी आधारपर होना चाहिए ताकि उत्पादक अपने उत्पादनका सर्वोत्तम मूल्य प्राप्त कर सकें।
स्वतंत्रताके बाद राष्टï्रने मिश्रित अर्थव्यवस्थाकी स्थापनाके लिए नियोजित आर्थिक विकासके दृष्टिïकोणको अपनाया, जिसमें तीन क्षेत्र शामिल थे, अर्थात्ï सार्वजनिक, निजी और सहकारी क्षेत्र। सहकारी समितियोंको सार्वजनिक और निजी क्षेत्रोंके बीच संतुलन कारक की भूमिका निभानेकी कल्पनाकी गयी थी। स्वतंत्रताके बाद सहकारिता पंचवर्षीय योजनाओंका एक अभिन्न अंग बन गयी। १९५८ में राष्टï्रीय विकास परिषदने सहकारी समितियों तथा कर्मियोंके प्रशिक्षण और सहकारी विपणन समितियोंकी स्थापनाके लिए एक राष्टï्रीय नीतिकी सिफारिश की थी। भारत सरकारने २००२ में सहकारितापर एक राष्टï्रीय नीतिकी घोषणा की। राष्टï्रीय सहकारी विकास निगम (एनसीडीसी) को एक सांविधिक निगमके रूपमें राष्टï्रीय सहकारी विकास निगम अधिनियम, १९६२ के तहत स्थापित किया गया था। १९५४ में ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण समितिने सभी स्तरोंपर सहकारी समितियोंमें राज्यकी भागीदारीकी सिफारिश की। एस.टी. राजा समितिको भारत सरकार द्वारा सहकारी कानूनमें संशोधनका सुझाव देनेके लिए नियुक्त किया गया था। समितिने सहायता प्राप्त सहकारी समितियोंके प्रबंधनपर राज्यकी भागीदारी तथा सरकार द्वारा नामित व्यक्तियोंकी नियुक्तिके लिए एक मॉडल अधिनियम तैयार किया। को-ऑपरेटिव सोसाइटी एक ऐसी संस्था होती है जिसमें दससे अधिक सदस्य मिलकर यानी सामूहिक कोशिशसे कल्याणकारी काम करते हैं। देशमें डेयरी, चीनी, खाद और हाउसिंग जैसे क्षेत्रोंमें सहकारिताकी पकड़ मजबूत है। लेकिन सहकारी बैंकोंकी स्थिति खराब है। नेताओंने सहकारिताको अपनी राजनीति चमकानेका माध्यम बना लिया है। इन संस्थानोंके भ्रष्टï अधिकारी और नेतासे निदेशक और एमडी बने लोग दोनों हाथोंसे आम आदमीकी कमाईका पैसा बटोर रहे हैं। देशके चीनी उत्पादनमें सहकारी चीनी मिलोंका हिस्सा ३५ प्रतिशत है। खेती-किसानीकी तरक्कीमें भी सहकारिताका काफी योगदान है। इसके जरिये कृषकोंको सस्ता लोन मिलता है।
आंकड़ोंके आलोकमें बात की जाय तो देशमें करीब ८.३० लाख सहकारी समितियां हैं। जिनके करीब ३० करोड़ सदस्य हैं। कुछ अपवाद छोड़ दिये जायं तो जिस सहकारी आन्दोलनका लक्ष्य ‘सहकारसे समृद्धिÓ है, उससे जनताकी बजाय नेताओंका ज्यादा भला हुआ है। भ्रष्टïाचारके दीमककी वजहसे ज्यादातर समितियां फेल साबित हुई हैं। महाराष्टï्र, उत्तर प्रदेश, केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु और मध्यप्रदेशमें सहकारी संस्थान विभिन्न पार्टियोंके नेताओंके लिए सत्तातक पहुंचनेकी सीढ़ी बन गये हैं। हालांकि मंत्रालयके गठनके बाद ऐसी संस्थाओंमें सुधारकी उम्मीद बढ़ी है। मल्टी स्टेट को-ऑपरेटिव सोसायटी एक्ट-२००२ के तहत ८ मार्च २०२१ तक देशमें १४६६ समितियां थीं। जिसमेंसे सबसे ज्यादा ५६७ महाराष्टï्रमें हैं। मल्टी स्टेट को-ऑपरेटिव सोसायटी एकसे अधिक राज्योंमें काम करती हैं। केंद्रमें सहकारिता मंत्रालयके गठनसे पहले मोदी सरकारने सहकारी संस्थाओंसे नेताओंका कब्जा हटाकर प्रोफेशनल लोगोंकी नियुक्तिका रास्ता साफ कर दिया। इसी साल जूनके अंतिम सप्ताहमें रिजर्व बैंक ऑफ इंडियाने अपने एक आदेशसे नेताओंको बड़ा झटका दिया। इन बैंकोंके निदेशक मंडलमें जगह बनानेके लिए नेताओंमें मारामारी मची रहती है, लेकिन अब उनकी दाल नहीं गलनेवाली है। आरबीआईने सहकारी बैंकोंमें सीईओ और पूर्णकालिक निदेशक बननेके लिए न्यूनतम योग्यता और उम्र तय कर दी है। यही नहीं, कोई भी व्यक्ति बैंकके एमडी और पूर्णकालिक निदेशकके पदपर १५ सालसे अधिक वक्ततक नहीं रहेगा। सबसे सफल सहकारी संस्थान गुजरात, महाराष्टï्र, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडुमें हैं। जबकि उत्तरके राज्योंकी स्थिति बेहद खराब है।
यदि यहां सहकारी संस्थानोंको दुरुस्त कर दिया जाय तो लाखों लोगोंकी जिन्दगी बदल जायगी। सहकारिताकी वजहसे ही भारत आज दुनियाका सबसे बड़ा दूध उत्पादन देश है। इसे मजबूत होनेसे ग्रामीण क्षेत्रमें काफी तरक्की हो सकती है। इसकी भर्ती प्रक्रियाको पारदर्शी बनानेकी जरूरत है। को-ऑपरेटिव संस्थानोंमें प्रोफेशनलकी एंट्रीका दांव एक अच्छा कदम है। हमारे नीति निर्माता इस क्षेत्रके विकासके प्रति उदासीन रहे हैं। उदासीनतामें जकड़े सहकारिताके इन कर्ताधर्ताओंको इसकी वास्तविक जरूरतोंसे कोई खास मतलब नहीं है। मोदी सरकारने नये मंत्रालयका गठन करके इस क्षेत्रमें सुधार अभियान शुरू कर दिया है। समग्रतामें देखा जाय तो सहकारी समितियां भारतके आर्थिक माडलके लिए सबसे उपयुक्त हैं। सहकारिताका लाभ साझाकरण और सामाजिक जिम्मेदारी (हेल्थ क्लीनिक, शिक्षा आदि) गरीबी उन्मूलन और सामाजिक गतिशीलताके लिहाजसे बेहद महत्वपूर्ण है। जमीनी स्तरपर केंद्रित इसका बिजनेस माडल बड़े पैमानेपर रोजगार पैदा कर सकता है। देशमें ११७ साल पहले जिस मकसदसे सहकारिता आन्दोलनकी नींव रखी गयी थी, अब उसे पूरी होनेकी उम्मीद जगी है। क्योंकि मोदी सरकारने इस क्षेत्रमें व्यापक सुधारके लिए गम्भीर कदम उठाने शुरू कर दिये हैं।