जयपुर, । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि सेवा भाव में आम तौर पर मिशनरियों का नाम लेते हैं, लेकिन दक्षिण के चार प्रांतों में संतों द्वारा सेवा कार्य किया जाता है और वह मिशनरियों की सेवा से अधिक है। हालांकि, मेरा सेवा में प्रतिस्पर्धा का भाव नहीं है। सेवा मनुष्यता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है।
जयपुर राष्ट्रीय सेवा संगम को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, “मेरे पास जो है उसमें से जो देकर जो बचता है वह मेरा। सेवा इस सत्य की प्रत्यक्ष अनुभूति। इस भाव से सेवा हो तो समरसता का साधन होता है। हमारे देश में सभी लोग समाज के अंग, एक नहीं तो अधूरे। साथ है तो पूरे। दुर्भाग्य से परिस्थिति आई, लेकिन यह विषमता नहीं चाहिए। काम करते हुए हम सब में एक ही प्राण, यह पता चलना चाहिए।”
जैसे पैर में सुई चुभी तो…
भागवत ने कहा कि जैसे पैर में सुई चुभी तो सारा शरीर का ध्यान एक भाग में होता है… उसी तरह समाज का भी हो। समाज का एक एक वर्ग दुबला, पीछे रह गया। दुर्बल है तो, विश्व गुरु बनाना है तो प्रत्येक को सामर्थ होना होगा। यह इसलिए कि वह समाज अपना है। संपूर्ण समाज में खुद को देखना होगा। मेरे समाज का राष्ट्र का कोई वर्ग दुर्बल, पिछड़ा नीचा नहीं रह सकता है।
पिछड़ों को ताकत देंगे
भागवत ने कहा कि तालियां बजाने से नहीं, संत की बात सत्य, उसके सेवा स्वस्थ्य समाज को बनाती है, लेकिन पहले खुद को स्वस्थ करना होगा। सेवा में अहंकार चूर-चूर हो। सहज सेवा हो, जिसमें देश को संकल्प, यह शोभा की बात नहीं, समाज का एक अंग पिछड़ा, उससे हम पिछड़ गए हैं, उनकी ऐसी ताकत देनी है। उनको ताकत देंगे, साधन संपन्न बनाएंगे। हमारी यह सेवा, हम सबकी यह सेवा ऐसी हो जिसमें कल वह देने वाला बने, आज भले ही मजबूरी में ले रहे। हमारे देश में अलग, क्योंकि अंदर करुणा है।