सम्पादकीय

देशको कौशल विकासकी जरूरत


डा. भरत झुनझुनवाला
कैबिनेटने हालमें जापानके साथ एक अनुबंधको मंजूरी दी है जिसके अंतर्गत भारतके कुशल श्रमिक जापान जाकर कार्य कर सकेंगे। यह कदम सुदिशामें है और इसे पूरी क्षमतासे लागू करना चाहिए। मैकेन्सी ग्लोबल सलाहकारी कम्पनीके अनुसार वर्तमानमें विश्वमें आठ करोड़ कुशल कर्मचारियोंकी कमी है जबकि विकासशील देशोंमें नौ करोड़ अकुशल कर्मी बेरोजगार हैं। इससे स्पष्ट है कि यदि हम अपने करोड़ों अकुशल कर्मियोंको कौशल दे सकें तो वह विश्वमें अपनी सेवाएं प्रदान करके अपना जीवनयापन कर सकते हैं और भारतके लिए भी पूंजीके रूपमें साबित होंगे। यदि हम इन्हें कौशल नहीं उपलब्ध करा सके तो ये बेरोजगार रहकर अपराधोंमें संलिप्त होंगे। आज देशमें कौशल विकासकी परिस्थिति बहुत ही दुरूह है। बीते समयमें दससे बीस हजार वेल्डर भारतीय कम्पनियोंने चीन, रूस और पूर्वी यूरोपके देशोंसे बुलाये हैं क्योंकि अपने देशमें कुशल वेल्डर उपलब्ध नहीं हैं। एक तरफ हम अपने कर्मियोंको जापान भेजनेका मन बना रहे हैं तो दूसरी तरफ हमारे पास अपनी जरूरतके ही वेल्डर उपलब्ध नहीं हैं और हम चीनसे वेल्डर बुलाकर अपना काम चला रहे हैं। हम अपने देशमें वेल्डर जैसे सामान्य कौशलका भी पर्याप्त विकास नहीं कर पा रहे हैं।
विश्व बैंकने २००८ में कर्नाटक, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेशके विद्यालयोंका एक सर्वे किया था। उन्होंने पाया कि अध्यापक विद्यालयमें उपस्थित नहीं होते हैं और यदि उपस्थित होते हैं तो भी बच्चोंकी पढ़ाईमें कोई अन्तर नहीं पड़ता है। स्थानीय निकायों जैसे पंचायतोंको उनपर निगरानी रखनेका अधिकार देनेसे भी कोई अन्तर नहीं पड़ता है। वस्तुस्थिति यह है कि हमारे सरकारी विद्यालयोंमें अध्यापकोंकी नौकरी पूर्णतया सुरक्षित और उनकी बच्चोंको पढ़ानेमें तनिक भी दिलचस्पी नहीं है चूंकि उन्हें अपनी नौकरीपर आंच आनेकी कोई संभावना नहीं दिखती है। इस परिस्थितिमें सरकारने बायोमेट्रिक जैसे तकनीकी सुधारोंसे उनकी उपस्थिति सुनिश्चित करनेका अच्छा प्रयास किया है लेकिन वह भी निष्प्रभावी रहा है। आप घोड़ेको पानीतक तो ले जा सकते हैं लेकिन उसे जबरदस्ती पानी नहीं पिला सकते हैं। इसी प्रकार सरकार शिक्षकोंको विद्यालयमें उपस्तिथ होनेको मजबूर कर सकती है परन्तु उनकी पढ़ानेमें रूचि उत्पन्न नहीं कर सकती है। इसलिए अपने देशमें कौशल विकासकी आधारशिला जो बुनियादी शिक्षाकी है वह कमजोर है। लगभग ऐसी ही स्थिति औद्योगिक शिक्षा संस्थानोंमें है। बहुतसे ऐसे लोग मिल जायंगे जिनके पास आईआईटी कम्प्यूटर विज्ञानमें उत्तीर्ण होनेका प्रमाण पत्र हो सकता है किन्तु वह अपने विषयका तनिक भी ज्ञान नहीं रखते। आईटीआईमें वेल्डिंग सिखानेवाले अध्यापकको न तो स्वयं वेल्डिंग आती है और न ही वहां वेल्डिंगके उपकरण मौजूद हैं जिनसे छात्रोंमें वेल्डिंग सिखायी जा सके। हमारी शिक्षा प्रणाली मात्र प्रमाणपत्र बांटनेतक सीमित रह गयी है। यही कारण है कि करोड़ों अकुशल छात्र निठल्ले घूम रहे हैं और कौशलके अभावमें वह अपनी सेवा देशको प्रदान नहीं कर पा रहे हैं।
इस परिस्थितिसे निबटनेके लिए केन्द्र सरकारके शिक्षा मंत्रालयने नयी शिक्षा नीति बनायी, जिसमें एक कार्यक्रम एक्विप अथवा शिक्षा गुणवत्ता सुधार कार्यक्रमके नामसे शामिल किया गया। इसमें दस बिंदु हैं। इसके छह बिन्दुओंमें केवल कोरे नारे हैं जिनका भूमिसे कोई जुड़ाव नहीं है। जैसे पहला, भारतकी शिक्षा व्यवस्थाको वैश्विक कुशल नीतियोंकी ओर ले जाना। दूसरा, उत्कृष्टताको बढ़ावा देना। तीसरा, सही मूल्यांकन करना। चौथा, विद्यालयोंका सही रैंकिंग करना। पांचवा, रिसर्चको बढ़ावा देना और छठा, छात्रोंको रोजगारपरक शिक्षा देना। इन बातोंको कहनेमें शिक्षा मंत्रालयको कोई जोर नहीं आता है चूंकि पिछले कई दशकोंकी तरह इन नारोंको हर वर्ष दिया जा सकता है। इनको लागू करनेके लिए कुछ नहीं करना है। केवल नारे देनेसे पब्लिसिटी मिल जाती है। दसमेंसे दो बिन्दु हैं जिनके अंतर्गत वर्तमान अकुशल शिक्षा तंत्रको ही और अधिक धन उपलब्ध कराया जाना है। सातवां बिन्दु शिक्षाकी पहुंच बढ़ाना और आठवां बिन्दु उच्च शिक्षामें सरकारी खर्च बढ़ाना। यह दोनों बिन्दु वर्तमान अकुशल शिक्षा तंत्रको ही और धन उपलब्ध कराते हैं इसलिए शिक्षा मंत्रालयको पसन्द हैं। नवां बिन्दु है कि शिक्षाके प्रसारके लिए तकनीकका उपयोग करना। यह उत्कृष्ट बिन्दु है लेकिन पुन: तकनीकका उपयोग उसी प्रकार है जैसे घोड़ेको पानीतक ले जाना। आज तमाम बच्चोंको स्मार्टफोन दिये गये हैं लेकिन उनकी शिक्षामें सुधार नहीं हो रहा दिखता है। दसवां और आखिरी बिन्दु है कि शिक्षा प्रशासनमें सुधार करना। लेकिन इसमें बुनियादी शिक्षाकी कोई बात नहीं कही गयी है। केवल कहा गया है कि उच्च शिक्षा संस्थानोंको स्वायत्तता दी जायेगी जो कि सही कदम है। लेकिन इस कदमसे भूमिगत शिक्षा प्रणालीकी अकुशलता दूर नहीं होती है। इस प्रकार वर्तमान शिक्षा मंत्रालय कौशल विकासकी बुनियाद रखनेमें पूर्णतया असफल है।
प्रधान मंत्रीने इस समस्यासे निजात पानेके लिए संभवत: अलगसे कौशल विकास मंत्रालय स्थापित किया है। लेकिन इस मंत्रालयका भी ध्यान उच्च वर्गके कुशल व्यक्तियोंतक सीमित हो गया प्रतीत होता है। कौशल विकास मंत्रालयने अमाजोन, गूगल, अडानी, उबर, मारुती और माइक्रोसोफ्ट जैसी विशाल कम्पनियोंसे अनुबंध किये हैं जो एक अच्छी बात है। लेकिन इससे केवल उच्च शिक्षाके लोगों को ही लाभ होगा। इससे वेल्डर आदि कर्मियोंको कुछ भी लेना-देना नहीं है। कैबिनेटके मंतव्यके अनुसार जापानको कुशलकर्मियोंको उपलब्ध करनेके लिए हमें वर्तमान शिक्षा तंत्रके बाहर सोचना होगा। वर्तमान शिक्षा तंत्रका आमूलचूल सुधार करना होगा। सेंटर फार सिविल सोसायटीके एक अध्ययनके अनुसार हांगकांग, फिलिपीन्स, पाकिस्तान, आंध्र प्रदेश, दिल्ली शहादरा, उड़ीसा आदि स्थानोंपर प्रयोग किये गये हैं जिसके अंतर्गत सरकार द्वारा क्षात्रोंको वाउचर दिये जाते हैं जिसे वह अपने मन पसंद विद्यालयमें शिक्षा प्राप्त करनेके लिए उपयोग कर सकते हैं। इन वाउचरोंका सभी स्थानोंपर अच्छा प्रभाव देखा गया है। इसलिए केन्द्र समेत सभी राज्य सरकारोंको चाहिए कि वर्तमान शिक्षा तंत्रको निरस्त करके वाउचर पद्धति लागू करे। सभी छात्रोंको वाउचर दिये जायं जिसे वह अपनी मर्जीके सरकारी अथवा प्राइवेट स्कूलमें अपनी फीस अदा कर सकें। तब सरकारी टीचरोंको भी वास्तवमें पढ़ानेमें रुचि उत्पन्न होगी और वाउचर मिलनेसे निर्धन छात्रके लिए अच्छे प्राइवेट स्कूलमें दाखिला लेना संभव हो जायगा। हमारे युवकोंका कौशल विकास संभव हो पायेगा। हम जापान समेत सम्पूर्ण विश्वको कुशल कर्मी उपलब्ध करा सकेंगे और कैबिनेटकी सोच साकार हो जायेगी।