सम्पादकीय

प्रो. संजय द्विवेदी


यह डिजीटल समय है, जहां सूचनाएं, संवेदनाएं, सपने-आकांक्षाएं, जिन्दगी और यहांतक कि कक्षाएं भी डिजिटल हैं। इस कठिन कोरोना कालने भारतको असलमें डिजिटल इंडिया बना दिया है। जिन्दगीका हर हिस्सा तेजीसे डिजिटल हुआ है। पढ़ाई-लिखाईके क्षेत्रमें इसका व्यापक असर हुआ है। प्राइमरीसे लेकर उच्चशिक्षा संस्थानोंने आनलाइन कक्षाओंका सहारा लेकर नये प्रतिमान रचे हैं। हमारे जैसे पारम्परिक सोचके शिक्षकोंमें आनलाइन शिक्षाको लेकर हिचक है। बार-बार कहा जा रहा कि आनलाइन कक्षाएं वास्तविक कक्षाओंका विकल्प नहीं हो सकतीं क्योंकि एक शिक्षककी उपस्थितिमें कुछ सीखना और उसकी वर्चुअल उपस्थितिमें कुछ सीखना दोनों दो अलग-अलग परिस्थितियां हैं। संभव है कि हमारा अभ्यास वास्तविक कक्षाओंका है और हमारा मन और दिमाग इसे स्वीकार करनेके लिए तैयार नहीं है कि आनलाइन कक्षाएं भी सफल हो सकती हैं। दिमागकी कंडीशनिंग (अनुकूलन) कुछ ऐसी हुई है कि हम वर्चुअल कक्षाओंको वह महत्ता देनेके लिए तैयार नहीं है जो वास्तविक कक्षाओंको देते हैं। फिर भी यह मानना है कि आभासी दुनिया आज तमाम क्षेत्रोंमें वास्तविक दुनियाको मात दे रही है। हमारे निजी जीवनमें हम जिस तरह डिजीटल हुए हैं, क्या वह पहले संभव दिखता था। हमारी बैंकिग, बाजार, खान-पान, तमाम तरहके बिल भरनेकी प्रक्रिया, टिकिटिंग और ट्रैवलिंगके इंतजाम क्या कभी आनलाइन थे। परन्तु समयने सब संभव किया है। आज एटीएम जरूरत है तथा आनलाइन टिकट वास्तविकता। हमारी तमाम जरूरतें आज आनलाइन ही चल रही हैं। ऐसेमें यह कहना बहुत गैर-जरूरी नहीं है कि आनलाइन माध्यमने संभावनाओंके नये द्वार खोल दिये हैं।

आनलाइन शिक्षाके माध्यमको इस कोरोना संकटने मजबूत कर दिया है। बावजूद इसके आनलाइन कक्षाओंने संसाधनोंका एक नया आकाश रच दिया है। जो व्यक्ति आपकी किसी कक्षा, आयोजन, कार्यशालाके लिए दो घंटेका समय लेकर नहीं आ सकता, यात्रामें लगनेवाला वक्त नहीं दे सकता। वही व्यक्ति हमें आसानीसे उपलब्ध हो जाता है। क्योंकि उसे पता है कि उसे अपने घर या आफिससे ही यह संवाद करना है और इसके लिए उसे कुछ अतिरिक्त करनेकी जरूरत नहीं है। यह अपने आपमें बहुत गजब समय है। जब मानव संसाधनके स्मार्ट इस्तेमालके तरीके हमें मिले हैं। आप दिल्ली, चेन्नई या भोपालमें होते हुए भी विदेशके किसी देशमें बैठे व्यक्तिको अपनी आनलाइन कक्षामें उपलब्ध करा सकते हैं। इससे शिक्षणमें विविधता और नये अनुभवोंका सामंजस्य भी संभव हुआ है। भोपालका एक विश्वविद्यालय सूदूर अरुणाचल विश्वविद्यालयके विद्वान मित्रोंके साथ एक साझा संगोष्ठी आनलाइन आयोजित कर लेता है। यह किसी विदेशी विश्वविद्यालयके साथ भी संभव है। यात्राओंमें होनेवाले खर्च, आयोजनोंमें होनेवाले खर्च, खान-पानके खर्च जोड़ें तो ऐसी संगोष्ठियां कितनी महंगी हैं। बावजूद इसके किसी व्यक्तिको साक्षात सुनना और देखना। साक्षात संवाद करना और वर्चुअल माध्यमसे उपस्थित होना। इसमें अन्तर है। भावनात्मक स्तरपर इसकी तुलना सिनेमासे की जा सकती है। अच्छा सिनेमा हमें भावनात्मक स्तरपर जोड़ लेता है। इसी तरह अच्छा संवाद भी हमें जोड़ता है भले ही वह वर्चुअल क्यों न हो। जबकि बोरिंग संवाद भले ही हमारे सामने हो रहे हों, हम हालकी पहली पंक्तिमें बैठकर भी सोने लगते हैं या बोरियतका अनुभव करने लगते हैं। अच्छा शिक्षक वही है जो आपमें जाननेकी भूख जगा दे। इसलिए प्रेरित करनेका काम ही हमारी कक्षाएं करती हैं। पुरानी पीढ़ी शायद इतनी जल्दी यह स्वीकार न करे, किंतु नयी पीढ़ी तो वर्चुअल माध्यमोंके साथ ही ज्यादा सहज है। हमें दुकानमें जाकर सैकड़ों चीजोंमेंसे कुछ चीजें देखकर खरीदनेकी आदत है। नयी पीढ़ी आनलाइन शापिंगमें सहज है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें नयी पीढ़ीकी चपलता, सहजता देखते ही बनती है। संभव है कि आपकी वर्चुअल कक्षामें उपस्थित छात्र या छात्रा उसके साथ ज्यादा सहज हों। हमारा मन यह स्वीकारनेको तैयार नहीं है कि कोई स्क्रीन हमारी भौतिक उपस्थितिसे ज्यादा ताकतवर हो सकती है। किन्तु आवश्यकता और मजबूरियां नये विकल्पोंपर विचारके लिए बाध्य करती हैं।

इस कठिन समयमें आनलाइन शिक्षा आजकी एक वास्तविकता है, जिसे स्वीकार करना पड़ेगा। कोरोनाके संकटने हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्थाके सामने कई सवाल खड़े किये हैं। जिसमें क्लास रूम, टीचिंगकी प्रासंगिकता, उसकी रोचकता और जरूरत बनाये रखना एक बड़ी चुनौती है। ज्ञानको रोचक अंदाजमें प्रस्तुत करने और सहज संवादकी चुनौती भी सामने है। आजका विद्यार्थी नये वर्चुअल माध्यमोंके साथ सहज है, उसने डिजिटलको स्वीकार कर लिया है। इसलिए डिजिटल माध्यमोंके साथ सहज संबंध बनाना शिक्षकोंकी भी जिम्मेदारी है। कक्षाके अलावा असाईनमेंट, नोट्स और अन्य शैक्षिक गतिविधियोंके लिए हम पहलेसे ही डिजिटल थे। अब कक्षाओंका डिजिटल होना भी एक सचाई है। संवाद, वार्तालाप, कार्यशालाओं, संगोष्ठियोंको डिजीटल माध्यमोंपर करना संभव हुआ है। इसे ज्यादा सरोकारी, ज्यादा प्रभावशाली बनानेकी विधियां निरन्तर खोजी जा रही हैं। इस दिशामें सफलता भी मिल रही है। गूगल मीट, जूम, जियो मीट, स्काइप जैसे मंच आजकी डिजिटल बैठकोंके सभागार हैं। जहां निरंतर सभाएं हो रही हैं, विमर्श निरंतर है और संवाद २४.७ है। प्रकृति सदैव परिर्वतनशील है और कुछ भी स्थायी नहीं है। मनुष्यने अपनी चेतनाका विस्तार करते हुए नित नयी चीजें विकसित की हैं। जिससे उसे सुख मिले, निरन्तर संवाद और जीवनमें सहजता आये। डिजिटल मीडिया भी मनुष्यकी इसी चेतनाका विस्तार है। इसके आगे भी वह नये-नये रूप लेकर आता रहेगा। नया और नया और नया। न्यू मीडियाके आगे भी कोई और नया मीडिया है। उस सबसे नयेकी प्रतीक्षामें आइये कोरोना कालमें थोड़ा डिजिटल हो जायं। कोरोना कालके समापनके बाद जिन्दगी और शिक्षाके माध्यम क्या वैसे ही रहेंगे यह सोचना भूल होगी। दुनियाने हमेशा नवाचारोंको स्वीकारा है, इस नवाचारके तमाम हिस्से हमारी जिन्दगीमें शामिल हो जायंगे, इसमें दो राय नहीं है।