सम्पादकीय

बढ़ती बेरोजगारीके पीछेका सच


 आर.डी. सत्येन्द्र कुमार

यदि अन्तरराष्टï्रीय श्रम संघटनकी मानें तो महामारीके चलते विश्व श्रम बाजारकी हालत काफी खस्ता हुई है। इस स्थितिमें तत्काल शीघ्र सुधारके भी आसार नजर नहीं आ रहे हैं। यह सच है कि श्रम बाजारकी इस दुर्गतिके लिए केवल कोरोनाजनित महामारी ही जिम्मेदारी नहीं है। उसके लिए अन्य कई कारण भी हैं लेकिन महामारीने उन्हें फिलहाल पृष्ठïभूमिमें धकेल दिया है और ऐसा स्वाभाविक प्रतीत होनेवाले क्रममें ही हुआ है। वैश्विक स्तरपर चूंकि अब भी महामारीकी ऋणात्मक एवं विकासविरोधी भूमिकाकी समाप्तिके आसार नजर नहीं आ रहे हैं, इसलिए उसकी ऋणात्मक भूमिकाको नजरअन्दाज करनेकी कोई भी कोशिश न तो तथ्यसंगत होगी, न ही तर्कसंगत। हालांकि ऐसे विश्लेषकोंकी देशमें कमी नहीं है जो किसी न किसी पूर्वाग्रहसे ग्रस्त होनेके चलते या तो महामारी या अन्य कारकोंकी भूमिकाको नकारते फिरते हैं। लेकिन उपलब्ध आंकड़े उन्हें इतरानेकी इजाजत नहीं देते लेकिन अर्ध-सामन्ती एवं अर्ध-औपनिवेशिक मानसिकतासे ग्रस्त होनेके चलते यह विसंगति उनके पल्ले नहीं पड़ती।

यह तथ्य भी काबिलेगौर है कि संयुक्त राष्टï्रकी एजेंसीने यह भविष्यवाणी की थी कि अगले साल स्थितिमें कुछ सुधार अवश्य दर्ज होगा लेकिन यह फिर भी २०१९ में १८७ मिलियनके मुकाबले २.५ मिलियन रहेगा। आईएलओके अनुसार यह वैश्विक बेरोजगारी दर ६.३ प्रतिशतके बराबर इस साल होगा जबकि वह अगले साल महामारीके पूर्व २०१९ की स्थिति ५.४ प्रतिशतसे अधिक है। तथ्योंके समाकलन-क्रममें आईएलओका मत है कि रोजगार विकास अपर्याप्त होगा यह हानिको पूरा करनेकी दृष्टिïसे जो हो चुकी है। आईएलओ अर्थशास्त्री स्टीफन क्यूह्नïका कहना है कि श्रम बाजारपर सही प्रभाव और भी अधिक होगा जब कमतर हुए यदि श्रम घडिय़ोंको जिन्हें अनेक श्रमिकोंपर थोपा गया, भी ले लें तो हानिकर असर और भी हो जायगा। ऐसा अनुमान है कि २०२० में २०२१ की तुलनामें जो श्रमिक घडिय़ोंकी हानि होगी, वह १४४ मिलियन नौकरियोंके बराबर होगी जो इस सालकी दूसरी-तिमाहीके १२७ मिलियन नौकरियोंके बराबर होगी। काबिलेगौर है कि अनौपचारिक क्षेत्रमें महिलाएं, युवा और दो लाख लोग अधिक कुप्रभावित होंगे। २०१९ की तुलनामें १०८ मिलियन अधिक लोग गरीब या अत्यधिक गरीबकी श्रेणीमें आ जायंगे। आईएलओके मूल्यांकनके अनुसार जिन नौकरियोंका सृजन होगा, वह निम्र गुणवत्तावाली नौकरियां होंगी। गरीब देशोंमें यह समस्या विकटतम रूप धारण करेगा। इससे देशोंके बीच असमानताका व्यापकतर एवं गहनतर विकास होगा।

जब वैश्विक नौकरी बाजार दुरुस्त नहीं होगी तो उसके दूरगामी दुष्परिणाम सम्भव है। रिपोर्टके अनुसार समय-प्रवाहके साथ अभी स्थितिमें बुनियादी एवं गुणात्मक सुधारकी सम्भावना नहीं है। इसके विपरीत विशेषज्ञों तबकोंका मानना है कि त्वरित विकास गतिसे सब कुछ सम्भव है। यह सच है कि उनमेंसे एक तबका तथ्योंकी झड़ी-सी लगाता फिरता है लेकिन यह गुमराह करनेके सिवाय और कुछ हासिल करनेमें असमर्थ है। वह असम्भवको सम्भव करनेके दंभसे ग्रस्त है लेकिन यथार्थकी मामूली ठोकरसे उसका यह अभिमान ध्वस्त हो जाता है। यह कोई नयी बात नहीं है और भारततक ही सीमित नहीं है। यह वस्तुत: एक वैश्विक मानसिक प्रक्रियाका परिणाम है जिसके तहत तथ्य और तथ्य-भ्रमके बीचका अन्तर मिट जाता है। तथ्योंके रास्तेसे सत्यतक पहुंचना अत्यधिक श्रमसाध्य होता है। सर्वप्रथम तो ऐसे व्यक्तिको वैज्ञानिक स्तरपर विचारोंकी जांच-पड़ताल करनी पड़ती है। विज्ञान हमें तथ्योंपर आधारित निष्कर्ष निकालनेकी इजाजत देता है। वह भावनात्मक आंधीके साथ उडऩेकी कतई इजाजत नहीं देता। तथ्योंके रास्तेसे सत्यतक पहुंचना बेहद श्रमसाध्य कार्य हुआ करता है। ऐसेमें हमें अपने निष्कर्ष वैज्ञानिक पद्धतिके आधारपर ही बनाने चाहिए। जब हम महामारीकी रोशनीमें बात करते हैं तो प्राय: ऐसा भी देखनेमें आता है कि हम उसके प्रभावको काफी बढ़ाकर पेश करते हैं। हालांकि इसके विपरीत भी घटित होता रहता है। जरूरत तथ्योंको जसका तस पेश करने निष्कर्षोंपर पहुंचनेकी होती है। उसमें मनोगत तरीकेसे कुछ जोड़ेन-घटाने निष्कर्ष गलत एवं मनोगतवादी हो जाते हैं।

तथ्योंसे सत्यतक पहुंचना कोई आसान काम नहीं है। तथ्योंका संकलन, उनसे उभरनेवाले निष्कर्षोंका समांकलन वस्तुत: एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है जो सरलतासे जटिलताकी ओर अग्रसर होती है। इसके विपरीत मनोगतवाद सारत: तथ्योंके साथ मनमानी करनेपर आधारित रुख और नजरियेको कहते हैं। इतिहासमें इन दोनों नजरियोंकी टक्कर प्राय: होती रही है और आगे भी होती रहेगी। हां, इन दोनों प्रवत्तियोंके स्वरूपोंमें समय-समयपर अन्तर होता है जिससे साधारण बुद्धि और अनुभववाला व्यक्ति उनके बारेमें वस्तुपरक नतीजेपर नहीं पहुंच पाता। इतिहासमें ऐसा बार-बार घटित होता है और जीवन्त वर्तमानमें होता ही रहता है। जो लोग अतीत और वर्तमान दोनोंका वैज्ञानिक एवं वस्तुपरक अध्ययन कर पाते हैं, वे ही उनके बीचके अंतरको जो गुणात्मक हुआ करता है, ठीक-ठाक और वस्तुपरक तरीकेसे समझ पाते हैं। जरा-सा भी मनोगतवाद हमारे निष्कर्षोंको गलत साबित कर सकता है। ऐसा इतिहासमें बार-बार देखनेमें आता रहा है और आगे भी देखनमें आता रहेगा। जो लोग ऐसा सोचते हैं कि वर्तमानमें ज्ञानका विकास इस स्तरतक हो चुका है कि मनोगतवादका आधार ध्वस्त हो गया है वे बिल्कुल अन्धेरेमें भटकते रहनेको अभिशप्त हैं। इस अभिशापसे मुक्त होनेके लिए वैज्ञानिक एवं वस्तुपरक रुझानकी अनिवार्य रूपसे अपनाना होगा। इसे संबद्ध व्यक्तिको अपनी सहज चिन्तन एवं कार्यशैलीका अपरिहार्य अंग बनाना होगा। ऐसा न करनेसे वह मनोगतवादसे मुक्त नहीं हो सकेगा और जबतक वह मनोगतवादसे मुक्त नहीं होगा तबतक उसके विकासका पथ अवरुद्ध बना रहेगा। विकास-पथके इस तरहसे अवरुद्ध रहनेके चलते उसे वहां भी हानि उठानी पड़ेगी, जहां आसानीसे उसकी जीत हो सकती थी। बेरोजगारीके मुद्देको इसी व्यापक एवं गहन सन्दर्भमें प्रस्तुत एवं चित्रित करनेकी आज सख्त जरूरत है। महामारीने इस जरूरतको व्यापक और गहन आयाम देकर इसे अनिवार्य रूप प्रदान कर दिया है।