सम्पादकीय

भारतीय चिन्तनकी समझ जरूरी


प्रणय कुमार

कांग्रेसका दुर्भाग्य है कि इस समय वह स्वआंकलन नहीं कर रही है बल्कि अनर्गल वक्तव्य देकर देशवासियोंको भटकाने एवं भ्रमित करनेकी कुचेष्टामें है। अच्छा तो यह होता कि संघको लेकर पूर्वाग्रह रखनेवाले सभी दलों एवं नेताओंको उदार मनसे आकलित करना चाहिए था कि क्या कारण हैं कि तीन-तीन प्रतिबंधों और विरोधियोंके तमाम अनर्गल आरोपोंको झेलकर भी राष्ट्रयि स्वयं सेवक संघ वटवृक्षकी भांति सम्पूर्ण भारतमें फैल रहा, उसकी जड़ें और मजबूत एवं गहरी होती जा रही हैं। वहीं लगभग छह दशकोंतक सत्तापर काबिज रहने, तमाम अंतर्बाह्य आर्थिक-संस्थानिक-व्यवस्थागत सहयोगी-अनुकूल तंत्र विकसित करनेके बावजूद क्यों कांग्रेस और उसके सभी वैचारिक साझेदारों-सहयोगियोंका प्रभाव निरंतर सिकुड़ता चला गया। उसे वैचारिक पोषण देनेवाला वामपंथ तो आज केवल एक राज्य में सिमटकर रह गया है। संघके इस विस्तारके पीछे भारतीयताको पोषित करनेवाले उसके राष्ट्रीय, समाजोन्मुखी और व्यक्ति निर्माणकी अनूठी कार्ययोजना कारण रूपमें उपस्थित रही है। प्रश्न यह भी कि क्या साधनाके बिना सिद्धि, साहस-संघर्षके बिना संकल्प और प्रत्यक्ष आचरणके बिना प्रभावकी प्रप्ति संभव है। कदापि नहीं। संघके बढ़ते प्रभावसे चिढऩेकी बजाय कांग्रेस एवं संघके तमाम विरोधियोंको ईमानदार आत्म-मूल्यांकन करना चाहिए।

उल्लेखनीय है कि मातृभूमिके लिए किये जा रहे कार्योंका श्रेय न लेना संघके प्रमुख संस्कारोंमेंसे एक है। स्वाभाविक है कि स्वतंत्रता-पूर्वके दिनोंमें कांग्रेसकी तमाम गतिविधियोंमें उसके प्रमुख पदाधिकारी और स्वयंसेवक हिस्सा लेते रहे, मातृभूमिपर सर्वस्व न्योछावर करनेवाले क्रांतिकारियोंसे भी उनकी निकटता रही, भारत छोड़ो आन्दोलनमें उनकी अग्रणी भूमिका रही, बावजूद इसके संघने कभी श्रेय नहीं लिया। देशका विभाजन न हो, इसके लिए संघ प्राणार्पणसे प्रयासरत रहा। परन्तु जब विभाजन और उससे उपजी भयावह त्रासदीके कारण लाखों लोगोंको विस्थापनको विवश होना पड़ा, जब एक ओर सामूहिक नरसंहार जैसी सांप्रदायिक हिंसाकी भयावह-अमानुषिक घटनाएं तो दूसरी ओर सब कुछ लुटा शरणार्थी शिविरोंमें जीवन बितानेकी नारकीय यातनाएं ही जीवनकी असहनीय पीड़ाको महसूस करते हुए, उन लाखों विस्थापितों, शरणार्थियोंकी जान-मालकी रक्षाके लिए अभूतपूर्व-ऐतिहासिक कार्य किया। महाराजा हरिसिंहको समझाकर जम्मू-कश्मीरका भारतमें विलय करवानेमें संघका निर्णायक योगदान रहा और जब पाकिस्तानी सेनाने कबायलियोंके वेशमें जम्मू-कश्मीरपर हमला किया तब स्वयंसेवकोंने राष्ट्रके जागरूक प्रहरीकी भूमिका निभाते हुए भारतीय सेनाकी यथासंभव सहायता की। उसके स्वयंसेवकोंने राष्ट्ररक्षामें सजग-सन्नद्ध प्रहरीकी इस भूमिकाका निर्वाह १९६२ और १९६५ के युद्धमें भी किया। आपातकालकी कैदसे लोकतंत्रको मुक्त करानेके लिए भी सबसे अधिक संघर्ष-त्याग स्वयंसेवकोंने ही किये। कांग्रेसने सत्ता हनकके बल उसे दबानेकी चेष्टा की। नक्सली, हिंसक प्रवृत्तियोंका वह सर्वाधिक ग्रास बना, परन्तु उसके स्वयंसेवकोंने कोई समझौता नहीं किया।

उद्भव कालसे लेकर आजतक संघने राजनीतिक नहीं, सामाजिक-सांस्कृतिक संघटनकी भूमिका ही स्वीकार की। संघ समाजमें एक संघटन नहीं, अपितु समस्त समाजका संघटन है। देश-धर्म-संस्कृतिकी रक्षाके लिए प्रतिरोधी स्वरको बुलंद करनेके बावजूद संघका मूल चरित्र और स्वर सकारात्मक एवं रचनात्मक है। वह अपने मूल गुण-धर्म-प्रकृतिमें प्रतिक्रियावादी नहीं, सृजनात्मक है। यह अकारण नहीं है कि राष्ट्रके सम्मुख चाहे कोई संकट उपस्थित हुआ हो या कोई आपदा आयी हो, संघ स्वयंप्रेरणासे सेवा-सहयोगके लिए तत्पर रहते हैं। प्राणोंकी परवाह किये बिना कोविडकालमें किये गये सेवा-कार्य उसके ताजा उदाहरण हैं। संघने यदि सदैव एक सजग-सन्नद्ध-सचेष्ट प्रहरीकी भूमिका निभायी है तो उसके पीछे राष्ट्रको जीवंत भावसत्ता मानकर उसके तदनुरूप एकाकार होनेका दिव्य भाव ही उनमें जागृत रहा है।

संघका पूरा दर्शन ही ‘मैं नहीं तू हीÓ, ‘माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:Ó, ‘याची देही याची डोलाÓ के भावपर अवलंबित है। संघ बिना किसी नारे, तुष्टीकरण और आन्दोलनके अपने स्वयंसेवकोंके मध्य एकत्वका भाव विकसित करनेमें सफल रहा है। गांधीजी और बाबा साहेब आंबेडकरतकने यूं ही नहीं स्वयंसेवकोंके मध्य स्थापित भेदभाव मुक्त व्यवहारकी सार्वजनिक सराहना की थी। संघ संघर्ष नहीं, सहयोग और समन्वयको परम सत्य मानकर कार्य करता है। उसकी यह सहयोग-भावना व्यष्टिसे परमेष्टि तथा राष्ट्रसे संपूर्ण चराचर विश्व और मानवतातक फैली हुई है। संघ जिस हिंदुत्व और राष्ट्रीयताकी पैरवी करता है, उसमें संकीर्णता नहीं, उदारता है। उसमें विश्वबंधुत्वकी भावना समाहित है। उसमें यह भाव समाविष्ट है कि पुरखे बदलनेसे संस्कृति नहीं बदलती।