सम्पादकीय

मंत्रोंकी शक्ति


अरुण

मंत्रका शाब्दिक अर्थ है, मनन, चिंतन करना। किसी भी समस्याके समाधानके लिए, काफी चिंतन, मनन करनेके बाद जो उपाय, विधिए युक्ति निकलती है, उसे एक सूत्रमें पिरो देनेको आमतौरपर मन्त्र कहते हैं। वेदोंमें किसी भी यज्ञ, स्तुति या अन्य कोई कार्य, करनेकी नियमपूर्वक एवं विस्तारपूर्वक विधिको संक्षिप्त करके संस्कृतमें मन्त्र रूप लिख दिया जाता था, यानी कोड भाषामें लिख दिया जाता था ताकि उसे आसानीसे याद किया जा सके और भविष्यमें जरूरत पडऩेपर उसको डिकोड कर दिया जाता था, यानी संक्षिप्तको विस्तारमें परिवर्तित कर दिया जाता था और इस तरह वेद मूल रूपसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे पहुंच जाते थे। वैदिक कालमें मंत्र धर्मका अंश था, जहां धर्म जीवन जीनेकी एक शैली थी, वहां दैनिक जीवनमें प्रार्थनाके शब्दोंको मंत्रमें ढाल दिया जाता था और ऐसा विश्वास था कि प्रार्थना करनेसे कार्यकी सिद्धि होती है तो प्रार्थना करना यानी मन्त्रका जाप करना, दैनिक जीवनका एक हिस्सा था। प्राचीनकालमें बीमारी, महामारी या बारिश न आने जैसी आकस्मिक विपतियों या घटनाओंका कारण भूत, पिशाचका प्रकोप या देवताकी नाराजगी माना जाता था और इसकी दूर करनेके लिए मन्त्रों द्वारा पूजा, प्रार्थना, यज्ञ किये जाते थे ओर वैद्य लोग बीमारी दूर करनेके लिए ओषधि और मंत्र दोनोंका साथ-साथ प्रयोग करते थे। यह तो हम जानते हैं कि जबतक डॉक्टरपर विश्वास न हो तो औषधि भी पुरी तरहसे काम नहीं करती तो विश्वास पैदा करनेके लिए ओषधिको अभिमंत्रित किया जाता था और रोगीको औषधिके साथ मन्त्र जाप करनेको कहा जाता था, बीमारी तो औषधिसे ठीक होती थी, परन्तु मन्त्र जाप करनेसे लोगोंको लगता था देवता प्रसन्न हो गये हैं, इस तरह शारीरिक बीमारी औषधिसे एवं मानसिक बीमारी विश्वाससे ठीक हो जाती थी। बादमें अज्ञानी एवं धर्मको धंधा बनानेवाले लोगोंने मन्त्रका अर्थ ये समझाया कि मन्त्र किसी कार्य सिद्धि करने या रोग दूर करनेका गुप्त रहस्य है और मन्त्रके जपनेसे देवी या देवता प्रसन्न हो कर कामना पूरी करते हैं। वेदोंमें बताया गया है कि मंत्रके जपसे एक प्रकारकी विद्युत चुम्बकीय तरंगें उत्पन्न होती हैं, जो समूचे शरीरमें फैलकर अनेक गुना विस्तृत हो जाती हैं।