सम्पादकीय

महामारीसे उबारनेकी पहल


अरुण नैथानी
नये वर्षमें महामारीके अंधियारेमें डूबी दुनियाको रोशनीकी किरण तब नजर आयी, जब कारगर वैक्सीन तलाशनेकी मुहिम सिरे चढ़ी। यूं तो वैक्सीन खोजनेके सैकड़ों प्रयास पूरी दुनियामें हुए। उनको लेकर तमाम दावे भी किये गये। लेकिन विश्वसनीयताकी कसौटीपर जिस वैक्सीनको खरा बताया गया, वह थी जर्मनीकी बायोएनटेक द्वारा अमेरिकी फर्म फाइजरके साथ मिलकर बनायी गयी वैक्सीन। जो ट्रायलमें नब्बे फीसदीसे ज्यादा कामयाब रही, जिसे अमेरिका, ब्रिटेन एवं यूरोपीय यूनियन समेत एशियाके कई देशोंने लगानेकी अनुमति दे दी है। यूं तो दावे सबसे पहले रूस एवं चीनने भी किये, परन्तु विश्वसनीयताकी कसौटीपर खरे नहीं उतरे। बायोएनटेककी वैक्सीनका ट्रायल ४३००० लोगोंपर किया गया और सुरक्षाको लेकर कोई चिंता सामने नहीं आयी।
इस कामयाबीमें दो ऐसे जर्मन वैज्ञानिक थे, जिन्होंने पूरी जिंदगी कैंसरका इलाज खोजनेमें लगा दी। यह दोनों पति-पत्नी तुर्की मूलके हैं। इनके माता-पिता बेहतर भविष्यके सपने लेकर १९६० के दशकमें जर्मनी आये थे। कोरोनाकी कारगर वैक्सीन बनानेमें मिली कामयाबीमें उगुर साहिन और ओजेस तुएरेसीकी बड़ी भूमिका रही है। इस दंपतिके अथक प्रयासोंसे ही एक सालसे कम समयमें कारगर वैक्सीन मिल पायी है। अन्यथा मलेरियाकी वैक्सीन हासिल करनेमें दो दशक लग गये थे और कई विषाणुजनित रोगोंकी वैक्सीन अबतक हासिल नहीं हो पायी है। जिस महामारीने दुनियामें लाखों लोगोंको निगल लिया हो, उससे मुकाबलेके लिए तत्काल वैक्सीनकी सख्त जरूरत थी। वैक्सीनकी खोज करनेवाली कंपनी बायोएनटेकमें उगुर साहिन आज सीओ हैं और उनकी पत्नी बोर्डकी सदस्या। आज उगुर साहिन जर्मनीके शीर्ष सौ धनाढ्य लोगोंमें शुमार हैं। लेकिन उनके लिए परिस्थितियां हमेशा ऐसी नहीं थीं। जब उनके पिता तुर्कीसे बेहतर भविष्यके लिए जर्मनी आये तो उन्होंने कोलोनमें फोर्डके कारखानेमें बतौर श्रमिक काम किया। मेडिकलकी पढ़ाई पूरी करनेके बाद साहिन एक आम चिकित्सकके दायित्वोंको ही निभाना चाहते थे। शुरुआतमें उन्होंने कोलोना और होम्बर्गके अस्पतालोंमें प्रैक्टिस की। इसी दौरान उनकी मुलाकात ओजेस तुएरेसीसे हुई। तुएरेसी टर्कीके एक चिकित्सककी बेटी है, जो बादमें जर्मनी आ गयी। इसके बाद दोनों विवाहके बंधनमें बंधे और मिलकर शोध-अनुसंधानमें जुटे रहे। उन्होंने पूरा जीवन कैंसरके खिलाफ शरीरकी रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित करनेके प्रयासोंमें लगा दी।
तमाम कामयाबियोंके बावजूद साहिन बेहद साधारण जीवन जीते हैं। वह अप्रत्याशित रूपसे विनम्र एवं सज्जन व्यक्तिके रूपमें चर्चित हैं। आज भी वह हेलमेट एवं बैग लेकर साइकिलसे बिजनेस बैठकोंमें शामिल होते हैं। बायोएनटेकके कार्यकारी अधिकारी पचपन वर्षीय उगुर साहिन और उनकी तिरपन वर्षीय पत्नी ओजेस तुएरेसीका इस वैक्सीन खोजनेमें महत्वपूर्ण योगदान रहा है। बायोएनटेककी स्थापना मैथियस क्रोमेयरने वर्ष २००८ में की और आर्थिक सहायता भी दी थी। इन वैज्ञानिकोंका कामके प्रति समर्पण इस हदतक था कि शादीकी सालगिरहपर भी वह लैबमें काम कर रहे थे।
अपनी वैक्सीनके प्रति समर्पित उगुर साहिन इसके परिणामोंको लेकर हमेशा आश्वस्त रहे हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या इस वैक्सीनसे महामारीपर काबू पाया जा सकता है तो उनका कहना था कि हमारी वैक्सीनके सामने कोरोना वायरस नहीं टिकेगा। इस विश्वासका आधार रहा बायोएनटेककी वैक्सीनके लिए दुनियामें सबसे ज्यादा परीक्षणोंका किया जाना। इस वैक्सीनके लिए अमेरिका, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, जर्मनी और टर्कीमें परीक्षण हुए। महत्वपूर्ण यह भी है कि परीक्षणोंमें सात दिनोंके भीतर ९० फीसदी लोगोंमें प्रतिरक्षा प्रणाली विकासित हुई है, जिससे कारगर वैक्सीनके लिए बड़ा डाटा उपलब्ध हो पाया। जिस दिन इस वैक्सीनके अंतिम परिणाम सामने आये तो कहा गया कि यह विज्ञान और मानवताके लिए महान दिन है। इस वैक्सीनकी तीन सप्ताहके भीतर दो डोज लेनी जरूरी होगी। फाइजर-बायोएनटेकका कहना है कि २०२१ के अंततक १.३ अरब डोज वितरणके लिए उपलब्ध होंगी। लेकिन इस वैक्सीनको माइनस सत्तर डिग्री सेल्सियसमें संग्रहणकी जरूरत भारत जैसे विकासशील एवं अन्य गरीब मुल्कोंके लिए चुनौती होगी।
यह वैक्सीन वायरसके ऊपर रहनेवाले स्पाइक प्रोटीनको केंद्रमें रखकर तैयार की गयी है, जो इसकी कामयाबीका कारण भी बना। इस तकनीकपर साहिन दंपति सालोंसे काम कर रहे थे, लेकिन इनसानपर इसका प्रयोग कोरोना संकटके दौरान पहली बार किया गया है। इस प्रक्रियामें जेनेटिक कोडिंगका इस्तेमाल हुआ है। हालांकि इस सफलताके बावजूद कई सवाल अभी बाकी हैं। इस वैक्सीनसे हासिल रोग प्रतिरोधक क्षमता कबतक कायम रहेगी। क्या इससे संक्रमण पूरी तरह रुक पायेगा। क्या वैक्सीन वायरसके म्यूटेशनमें भी प्रभावी रहेगी। फिर भी इससे मानवताको इस वायरससे लडऩेमें मदद तो मिली ही है।