आर.के. सिन्हा
दिल्ली विश्वविद्यालयके हालिया संपन्न ९७वें दीक्षांत समारोहमें ६७० डॉक्टरेटकी डिग्रियां दी गयीं। मतलब यह कि यह सभी पीएचडीधारी अब अपने नामके आगे ‘डाक्टरÓ लिख सकेंगे। क्या इन सभीका शोध पहलेसे स्थापित तथ्योंसे कुछ हटकर था। बेशक उच्च शिक्षामें शोधका स्तर अहम होता है। इसीसे यह भी तय किया जाता है कि पीएचडी देनेवाले विश्वविद्यालयका स्तर किस तरहका है। यदि अमेरिकाके मैसाचुसेट्स इंस्टीच्यूट आफ टेक्नालॉजी (एमआईटी), कोलोरोडा विश्वविद्यालय, ब्रिटेनके कैम्ब्रिज और आक्सफोर्ड विश्वविद्यालयोंका लोहा सारी दुनिया मानती है। इनका नाम उनके विद्यार्थियों द्वारा किये गये मौलिक शोधके कारण ही हैं। बड़ा सवाल है कि क्या हमारे यहां हर साल थोकके भावसे पीएचडीकी डिग्रियां दी जाती हैं, उनका आगे चलकर समाज या देशको किसी रूपमें लाभ भी होता है। सिर्फ दिल्ली विश्वविद्यालयने एक वर्षमें ६७० पीएचडीकी डिग्रियां दे दीं। यदि देशके सभी विश्वविद्यालयोंसे अलग-अलग विषयोंमें मिलनेवाली पीएचडीकी डिग्रीकी बात करें तो यह आंकड़ा हर साल हजारोंमें पहुंचेगा। क्या इन शोध करनेवालोंका शोध भी मौलिक होता है। क्या उसमें कोई इस तरहकी स्थापना की गयी होती है जो नयी होती है। यह सवाल पूछना इसलिए जरूरी है, क्योंकि हर साल केन्द्र और राज्य सरकारें बहुत मोटी राशि पीएचडीके लिए शोध करनेवाले शोधार्थियोंपर व्यय करती हैं। इन्हें शोधके दौरान ठीक-ठीक राशि दी जाती है, ताकि इनके शोध कार्यमें किसी तरहका व्यवधान न आये और इनका जीवनयापन भी चलता रहे।
देशमें सबसे अधिक पीएचडीकी डिग्रियां तमिलनाडु, कर्नाटक और उत्तर प्रदेशमें दी जाती है। मानव संसाधन मंत्रालयकी २०१८ में जारी एक रिपोर्टपर यकीन करें तो उस साल तमिलनाडुमें ५,८४४ शोधार्थियोंको पीएचडी दी गयी। कर्नाटकमें पांच हजारसे कुछ अधिक शोधार्थी पीएचडीकी डिग्री लेनेमें सफल रहे। उत्तर प्रदेशमें ३,३९६ शोधार्थियोंको यह डिग्री मिली। बाकी राज्य भी पीएचडी देनेमें कोई बहुत पीछे नहीं हैं। भारतमें साल २०१८ में ४०.८१३ नये पीएचडीधारी सामने आये। आखिर इतने शोध होनेका लाभ किसे मिल रहा है। शोध पूरा होने और डिग्री लेनेके बाद उस शोधका होता क्या है। क्या इनमेंसे एकाध प्रतिशत शोधोंको प्रकाशित करनेमें कोई प्रकाशक तैयार होते हैं। कोई प्रतिष्ठित अखबारकी नजर भी उन शोधोंपर जाती है। क्या हमारे यहां शोधका स्तर सचमें स्तरीय या विश्वस्तरीय होता है। यह बहुत जरूरी सवाल हैं। इनपर गम्भीरतासे बात होनी भी जरूरी है। जो भी कहिये हमारे यहां शोधको लेकर कोई भी सरकार या विश्वविद्यालय बहुत गम्भीरताका भाव नहीं रखता।
भारतमें जब उच्च शिक्षा संस्थानोंकी शुरुआत हुई थी तभी क्वालिटी रिसर्चको बहुत महत्व नहीं दिया गया। निराश करनेवाली बात यह है कि हमने शोधपर कायदेसे कभी फोकस ही नहीं किया। यदि हर साल हजारों शोधार्थियोंको पीएचडीकी डिग्री मिल रही है तो फिर इन्हें विश्व स्तरपर सम्मान क्यों नहीं मिलता। हमारी आईआईटी संस्थानोंकी चर्चा भी बहुत होती है। यहांपर भी हर साल बहुतसे विद्यार्थियोंको पीएचडी मिलती है। क्या हमारे किसी आईआईटी या इंजीनियरिंगके कॉलेजके किसी छात्रको उसके मूल शोधके लिए नोबेल पुरस्कारके लायक माना गया। हमारे यहां शोधका मतलब होता है पहलेसे प्रकाशित सामग्रीके आधारपर ही अपना रिसर्च पेपर लिख देना, काम खत्म। यही वजह है कि शोधमें नयेपनका अभाव दिखता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि हमारे यहां शोधके प्रति हर स्तरपर उदासीनताका भाव है। शोध इसलिए किया जाता है ताकि पीएचडी मिल जाय और फिर एक अदद नौकरी। अमेरिकाका उदाहरण लें। वहांके विश्वविद्यालयोंमें मूल शोधपर जोर दिया जाता है। इसीके चलते वहांके शोधार्थी लगातार नोबेल पुरस्कार जीतनेमें सफल रहते हैं। इस बहसको जरा और व्यापक कर लेते हैं। हमारी फार्मा कम्पनियोंको ही लें। यह नयी दवाओंको ईजाद करनेके लिए होनेवाले रिसर्चपर कितना निवेश करती है। यही हालत हमारे स्वास्थ्य क्षेत्र सार्वजनिक क्षेत्रके उपक्रमोंकी रही हैं। इंडियन ड्रग्स एंड फार्मास्युटिकल लिमिटेड (आईडीपीएल)की स्थापना १९६१ में की गयी थी, जिसका प्राथमिक उद्देश्य आवश्यक जीवनरक्षक दवाओंमें आत्मनिर्भरता हासिल करना था। परन्तु इसे भ्रष्टाचारसे घाटा हुआ। यहां भी कभी कोई महत्वपूर्ण शोध नहीं हुआ।
भारतमें शोधके लिए सुविधाएं बहुत बढ़ीं, प्रयोगशालाओंका स्तर भी सुधरा, सरकार शोध करनेवालोंकी आर्थिक मदद भी करती है। इसके बावजूद हमारे यहां शोधके स्तर घटिया हैं। तो फिर हम क्यों इतनी सारी पीएचडीकी डिग्रियोंको बांटते ही जा रहे हैं। अनेक शोधार्थियोंको जानता हूं जिन्होंने सालों विश्वविद्यालयोंसे पीएचडी करनेके नामपर पैसा लिया। वहांके छात्रावासका भी भरपूर इस्तेमाल किया। बादमें बिना शोध पूरा किये विश्वविद्यालय छोड़ गये या वहीं राजनीति करने लगे। हमें शोधकी गुणवत्तापर ध्यान देना होगा। उन शोधार्थियोंसे बचना होगा जो कापी पेस्ट कर अपना शोध थमा देते हैं। इस मानसिकतापर रोक लगनी चाहिए। शोधका विषय तय करनेका एकमात्र मापदंड हो कि भविष्यमें देश और समाजको क्या लाभ होगा। शोधार्थियोंके गाइड्सपर भी नजर रखी जाय। बीच-बीचमें शिकायतें मिलती रहती हैं कि कुछ गाइड्स अपने शोधार्थियोंको प्रताडि़त करते रहते हैं। इन सब बिन्दुओंपर भी ध्यान दिया जाय।