सम्पादकीय

 लक्ष्यसे भ्रमित किसान आन्दोलन


तारकेश्वर मिश्र 

दिल्ली सीमापर जिस प्रकार किसान आन्दोलन चल रहा है उससे इस बातका आभास हो रहा है कि इसके पीछे राजनीतिक ताकतें पूरी तरह सक्रिय हो चुकी हैं। सरकार और किसान आपसमें कोई संवाद नहीं कर रहे हैं, ऐसेमें सवाल है कि क्या यूं ही किसान सड़कें घेरकर आन्दोलन करते रहेंगे? क्या सरकार किसानोंसे संवाद स्थापित करेगी? क्या किसान अपनी तरफसे बातचीतका प्रयास करेंगे? क्या सरकार और किसान मिलकर कोई सर्वमान्य हल निकाल पायंगे? सवाल कई हैं लेकिन फिलहाल इन सवालोंका जवाब किसीके पास नहीं है। तथाकथित किसान नेता कृषि कानूनोंके विरोधमें अपनी राजनीति चमकानेमें मशगूल हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज भी किसानकी औसत आमदनी ९००० रुपये प्रति माह भी नहीं है। औसतन हर किसानपर १.४० लाख रुपयेका कर्ज है। न जाने कितनी बार कर्जमाफी की जा चुकी है, उसके बाद कर्ज लदा हुआ है, न जाने ऐसा क्यों है? इन सबके बीच किसान आन्दोलनका एक नया, आन्दोलित और आक्रोशित रूप बीती ८ मार्च, अंतरराष्ट्रीय महिला दिवसको सामने आया, जब करीब ७०,००० महिलाएं पंजाबके छोटे-छोटे गांवोंसे कूच कर दिल्ली सीमातक पहुंचीं। उस दिन आन्दोलनका मोर्चा महिलाओंके जिम्मे ही था। ‘महिला दिवसÓ पर आन्दोलनकी मोर्चेबंदी बरकरार रखी और संकल्प गूंजते रहे कि जबतक काले कानून वापस नहीं लिये जायंगे और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी दर्जा नहीं दिया जायगा, तबतक वह भी आन्दोलनपर डटी, तनी रहेंगी और आन्दोलनको जारी और जिन्दा रखेंगी।

दो युवा लड़कियोंने ‘रंग दे बसंती चोला’ को पंजाबी जुबानमें, अपनी ही शैलीमें, गाया तो शहीद भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव सरीखे क्रांतिकारियोंकी याद ताजा हो गयी। कई महिलाएं भारतीय किसान यूनियन (उग्राहां) के साथ लम्बे वक्तसे जुड़ी हैं और विभिन्न स्तरोंपर संघर्ष करती रही हैं। कुल मिलाकर किसान आन्दोलनका निष्कर्ष समझ नहीं आ रहा है। किसान नेता राकेश टिकैत पश्चिम बंगाल पहुंचकर किसानोंको संबोधित कर चुके हैं। पर्देके पीछेसे उन्हें खुलकर तृणमूल कांग्रेसका समर्थन प्राप्त है। दीगर बात है कि तृणमूल कांग्रेसका पक्ष लेनेके चलते वामदलोंने राकेश टिकैतसे अपनी दूरी बनानी शुरू कर दी है। किसान आन्दोलनसे अपना समर्थन वापस लेनेकी बात भी वामदलोंके खेमेसे सुनाई दे रही है। टिकैत असम, केरल और तमिलनाडुमें भी रैलियां करेंगे, ऐसा उन्होंने ऐलान किया है। बेशक किसान इसकी व्याख्या कुछ भी करें, लेकिन यह विशुद्ध रूपसे राजनीति है। विरोधके अधिकारके नामपर किसान आन्दोलनके बहाने जो कुछ हो रहा है वह संकीर्णता और अंधविरोधकी पराकाष्ठïा ही है। दुर्भाग्यसे यह सब राष्टï्रीय हितोंकी कीमतपर किया जा रहा है। ऐसी राजनीति देशका क्या भला करेगी जो न तो किसी तर्कसे संचालित हो और न राष्टï्रहितपर केंद्रित हो, बल्कि सरकार और समाजका ध्यान भटकानेका काम करे? किसान आन्दोलनको हवा दे रहे राजनीतिक दल हाशियेपर पहुंच जानेके बाद अब झूठ और दुष्प्रचारके आधारपर लोगोंको बरगलानेका काम कर रहे हैं। उन्हें इसकी भी चिन्ता नहीं है कि इस आन्दोलनके नामपर जो सियासत की जा रही है वह देशको कमजोर करनेका काम करेगी।

देशमें किसानोंकी दशा किसीसे छिपी नहीं है। देशके ४०-५० करोड़ किसानोंकी दशा अत्यंत दयनीय है। भाजपा सरकारने किसानोंको तरह-तरहके फायदे और सुविधाएं पिछले छह सालमें दिये हैं। लेकिन आज भी हमारा किसान दुनियाके दर्जनों देशोंके किसानोंकी तुलनामें चार-छह गुना ज्यादा गरीबीमें गुजारा करता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य तो सिर्फ छह प्रतिशत किसानोंको मिलता है। ९४ प्रतिशत किसान खुले बाजारमें अपना माल बेचते हैं। वर्तमान किसान आन्दोलनकी रीढ़ समर्थन मूल्यवाला मालदार किसान ही है। वह ही सबसे ज्यादा घबराया हुआ है। यह आश्चर्यजनक है कि जिन कानूनोंको लगभग पूरे देशके किसान अपने लिए फायदेमंद मान रहे हैं उन्हें पंजाब और हरियाणाके किसानोंका एक समूह अपने लिए संकटके रूपमें देख रहा है। यह समूह वास्तवमें उन आढ़तियों और बिचौलियोंकी ढाल बननेका काम कर रहा है जो अबतक अपनी जेबें भरते आये हैं। चूंकि आढ़तियोंके संघटन यह महसूस कर रहे हैं कि नये कानूनोंसे उनका अपना धंधा समाप्त हो जायगा इसलिए किसानोंको भड़का दिया गया। पहले किसानोंका विरोध केवल इसपर आधारित था कि एमएसपीको कानूनी स्वरूप दिया जाय और अब वह तीनों नये कानूनोंकी वापसीकी मांगपर अड़ गये हैं। केंद्रके तीनों कानून किसानोंको यह अवसर देते हैं कि वह अपनी उपजका उचित मूल्य हासिल करनेके लिए उसे मंडीके बाहर भी बेच सकें, उनके पास फसलोंकी बिक्रीके लिए अधिक विकल्प हों और वह बिचौलियोंके जालसे मुक्त हों। सरकार कई बार यह भी स्पष्टï कर चुकी है कि न तो न्यूनतम समर्थन मूल्यकी प्रणालीको खत्म किया जा रहा है और न ही मंडी व्यवस्था समाप्त की जा रही है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि यदि हम किसानोंकी हालत सुधारना चाहते हैं तो भारतीय कृषि-व्यवस्थाको आधुनिक और प्रतिस्पर्धी बनाना बहुत जरूरी है। यदि वह समर्थन मूल्यकी सरकारी खरीदपर ही निर्भर रहेगी तो उसका पिछड़ापन हमेशा बरकरार ही रहेगा।

समर्थन-मूल्यकी नीति अभी कुछ वर्षोंतक चलाये रखना जरूरी है लेकिन हमारे वह किसान आदर्श होने चाहिए, जो खुले बाजारमें अपनी उपज-अनाज, सब्जियां और फल बेचते हैं। वह औसतन ज्यादा पैसा कमाते हैं, कम जमीन, कम पानी और कम खादमें अपनी फसलें उगाते हैं। भारतमें अनाजों, सब्जियों और फलोंकी पैदावार कई गुना बढ़ सकती है और भारत दुनियाका सबसे बड़ा खाद्य-निर्यातक राष्टï्र बन सकता है। सरकारकी यह भूल तो हुई है कि उसने तीनों कृषि-कानून बनानेके पहले न तो किसानोंसे उचित परामर्श किया और न ही उन्हें उनके फायदे समझाये लेकिन अब भी बीचका रास्ता निकालना मुश्किल नहीं है। किसान आन्दोलनकी दशा और दिशा भ्रमित नहीं होनी चाहिए। क्योंकि किसानोंकी मांगे और मुद्दे राजनीतिसे बहुत ऊपर हैं। इसके सकारात्मक निष्कर्ष सामने आने चाहिए, क्योंकि किसानोंकी आय और एमएसपीके मुद्दे दशकों पुराने हैं।