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विवाद का रूप न ले वैचारिक असहमति, राजनीति में युवाओं को मिले पर्याप्त भागीदारी


कैलाश बिश्नोई। देश के अनेक विश्वविद्यालयों व उच्च शैक्षणिक संस्थानों के परिसर में छात्रों को पढ़ाई, शोध, रोजगार, आविष्कार आदि पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, परंतु पिछले कुछ वर्षो के दौरान अनेक कारणों से वहां पर विचारों से ज्यादा विवादों ने सुर्खियां बटोरी हैं। नि:संदेह स्वाधीनता के बाद से ही छात्र राजनीति में वाद-विवाद, संवाद और मतभेद होते रहे हैं, परंतु ये वैचारिकता के धरातल पर होते थे और कभी अप्रिय व अभद्र रूप लेते नहीं दिखते थे। लेकिन बीते कुछ वर्षो में तस्वीर बदली है और हाल के वर्षो में सहिष्णुता और असहिष्णुता की बहस ऐसी छिड़ी है कि यह मतभेद हिंसक होता दिख रहा है। यह गंभीर चिंता की बात है। विश्वविद्यालय परिसरों में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं हो सकती।

 

हमें याद रखना चाहिए कि वैचारिक असहमति ही भारतीय लोकतंत्र की सुंदरता है और यह हमारा संवैधानिक अधिकार भी है। लेकिन वैचारिक मतभेद करते-करते देश का विरोध करने वालों की विचारधारा को सहन नहीं किया जा सकता। लिहाजा हमारे विश्वविद्यालयों को विचारधाराओं के इस विघटनकारी जंग से बचाना होगा। उच्च शैक्षणिक संस्थानों में विचार-विमर्श, तर्क-वितर्क हो, लेकिन उसे राजनीति के अखाड़े में तब्दील नहीं होने देना चाहिए।