भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्रमें लोकतांत्रिक मूल्योंकी मजबूती उसके संविधानपर टिकी हुई है। संविधानमें निहित प्रावधान कई कारकोंको ध्यानमें रखकर बनाये जाते हैं, ताकि उनके अनुपालनके जरिये एक समावेशी और लोकतांत्रिक व्यवस्थाका मजबूतीसे निर्माण किया जा सके। शिक्षा, एक ऐसा ही कारक है, जिसपर समुचित ध्यान दिये बिना न्यायके साथ विकासकी अवधारणा पूरी नहीं हो सकती है। यूं तो भारतीय संविधानमें शिक्षाको नीति निर्देशक तत्व और मौलिक अधिकार, दोनों ही सूचियोंमें स्थान दिया गया है, किन्तु जब हम देशमें शिक्षा व्यवस्थाके मूल स्वरूपको देखते हैं तो पाते हैं कि भारतमें शिक्षा आज भी विभेदनका एक मुख्य माध्यम बनी हुई है। एक तरफ जब देशके संविधान निर्माता बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकरकी १२८वीं जयंतीको पूरे देशमें केंद्र, राज्य सरकार और विभिन्न शैक्षिक संस्थाओं द्वारा मनाया जा रहा है, यह जरूरी हो जाता है कि संवैधानिक मूल्य, शिक्षाके अंतर्संबंधोंकी विवेचना बाबा साहबके शिक्षा दर्शनके आलोकमें की जाय। वस्तुत: अस्पृश्यता एवं गैर-बराबरी सभीके मूलमें विषमतामूलक समाज है। इस रोगकी रामबाण औषधि सामाजिक समानता ही है। वास्तवमें सामाजिक न्याय राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रनिर्माणकी नींव है। अम्बेडकरका कहना था कि राष्ट्र सामाजिक एवं सांस्कृतिक एकतासे बनता है। विभिन्न जातियोंमें बंटे समाजको एक राष्ट्रकी संज्ञा कैसे दी जा सकती है। सामाजिक सामजंस्य और राष्ट्रीय एकताके वह पक्षधर थे। डा. अम्बेडकर मानते थे कि समानताके बिना समाज ऐसा है, जैसे बिना हथियारोंके सेना। समानताको समाजके स्थायी निर्माणके लिए धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक क्षेत्रमें तथा अन्य क्षेत्रोंमें लागू करना आवश्यक है। डा. आंबेडकर चाहते थे कि देशके हर बच्चेको एक समान, अनिवार्य और नि:शुल्क शिक्षा मिलनी चाहिए, चाहे वर्गका क्यों न हो। वह संविधानमें शिक्षाको मौलिक अधिकार बनवाना चाहते थे। देशकी आधीसे ज्यादा आबादी बदहाली, गरीबी और भुखमरीकी रेखापर अमानवीय और असांस्कृतिक जीवन जीनेको विवश है। संविधानमें मौलिक अधिकार न बन पानेके कारण २० करोड़से भी ज्यादा लोग बेरोजगारीकी मार झेल रहे है। यदि शिक्षा, रोजगार और आवासको मौलिक अधिकार बना दिया जाता तो उन्हें आरक्षणकी वकालतकी शायद जरूरत ही न होती। बाबासाहेबने दलित समुदायके लोगोंकी शिक्षाके लिए पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटीकी स्थापना करके दलित समुदायमें ज्ञानके प्रति शैक्षिक चेतना जाग्रत की, उनका मानना था कि ज्ञानकी कमी व्यक्ति और समाजके लिए हानिकारक है, वैसे ही किसी व्यक्ति या समूहको शिक्षासे वंचित करना मनुष्यके रूपमें अपने अस्तित्वको नकारना और अपनी क्षमताको मारना है। बाबासाहेबका ऐसा शैक्षिक रवैया था। बाबासाहेब शिक्षाके महत्वको जानते थे। निम्न समाजके उत्थानका प्रश्न आर्थिक माना जाता है। लेकिन यह गलत है। क्योंकि भारतमें दलित समुदायके उत्थानका मतलब उन्हें भोजन, वस्त्र और आश्रय प्रदान करके पहलेकी तरह उच्च वर्गकी सेवा करना नहीं है। शिक्षाका वास्तविक लक्ष्य निम्न वर्गोंकी प्रगति और दूसरोंके प्रति उनकी दासतासे उत्पन्न हीनभावनाको मिटाना है। उच्च शिक्षा ही हमारी सभी सामाजिक बुराइयोंका एकमात्र इलाज है।
बाबासाहेब एक उच्च शिक्षाके माध्यमसे समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्वके मानवीय मूल्योंको अपनानेवाले आधुनिक समाजका स्वाभिमानी बनाना चाहते थे। यह बाबासाहेबके शैक्षिक आंदोलनकी वास्तविक नींव थी। पिछड़े वर्गके सदस्योंको विश्वविद्यालयके प्रतिनिधि सभामें जगह मिलनी चाहिए। प्रतिनिधि सभा एक कानून बनानेवाली संस्था है और इसमें हर वर्गकी समस्याओंको हल करनेके लिए सभी वर्गोंके प्रतिनिधियोंको शामिल किया जाना चाहिए। इसीलिए पिछड़े वर्गोंको सवर्णोंकी दयापर नहीं छोड़ना चाहिए, उन्हें प्रतिनिधि सभामें जगह मिलनी चाहिए। बाबासाहेब जाति व्यवस्थाके संदर्भमें उच्च शिक्षाके महत्वको बताते हुए कहते हैं, समाजकी श्रेष्ठताको मजबूत करनेके लिए जाति व्यवस्था जिम्मेदार है। हम इस स्थितिको बदलना चाहते हैं तो हमें लड़नेके लिए जगह तलाशनी होगी और यह स्पष्ट है कि शिक्षाके बिना ऐसा नहीं होगा। उन्होंने महिलाओंको पुरुषोंके समान अधिकार दिलानेके लिए कई आंदोलन किये। १९२७ से १९५६ तक, बाबासाहेबने भारतीय महिलाओंकी सामाजिक, कानूनी और राजनीतिक स्थितिको बढ़ानेके लिए अथक प्रयास किया। १९४२ में एक सम्मेलनमें उन्होंने महिलाओंसे साफ-सफाई रखने, सभी दोषोंसे दूर रहने, अपने बच्चोंको शिक्षित करने, उन्हें महत्वाकांक्षी बनाने और उनकी कमियोंको दूर करनेका आग्रह किया। उन्होंने दलितोंके अधिकारोंके लिए लड़ाई लड़ी। वह मजदूर वर्गके लिए भी दृढ़ रहे। उन्होंने दलितोंके लिए गरिमापूर्ण जीवन जीनेके लिए लगातार संघर्ष किया। उन्होंने न केवल दलितों, बल्कि किसानों और मजदूरोंके लिए भी कड़ा संघर्ष किया। ऐसे महापुरुषका महान कार्य देश और समाजके लिए सामाजिक प्रतिबद्धताका कर्तव्य है। शिक्षा सामाजिक परिवर्तनका एक प्रभावी हथियार है।
शिक्षा व्यक्तिको उसके कर्तव्यों और अधिकारोंके प्रति जागरूक करती है। उन्होंने समाजमें शिक्षाके महत्वको समझाया, ताकि समाजमें छुआछूत उनकी पहचानके प्रति जागरूक हो सके। प्राथमिक शिक्षा सभी शिक्षाकी नींव है, इसलिए यह शिक्षा उच्च गुणवत्ता और गुणवत्ताकी होनी चाहिए। प्राथमिक शिक्षाका लक्ष्य होना चाहिए कि एक लड़का या लड़की स्कूलमें प्रवेश करनेके बाद, वह पूरी तरहसे शिक्षित और योग्य होना चाहिए। सरकारको इसपर ध्यान देना चाहिए, उन्होंने कहा कि शिक्षाको समाजके सभी वर्गोंतक पहुंचाना चाहिए। शिक्षा प्राप्त करनेसे व्यक्ति अच्छे और बुरेके अंतरको समझने लगता है। उन्होंने सभीमें ज्ञान, शील और करुणाके गुणोंको विकसित करनेके लिए शिक्षाकी आवश्यकताको बताया है। समाजके लाभके लिए इन शिक्षित बच्चोंको सामाजिक प्रतिबद्धताके कर्तव्योंको सही और सक्षम रूपसे पूरा करनेके लिए शिक्षित किया जाना चाहिए। इस प्रक्रियामें प्रतिभागियोंको इसके बारेमें पता होना चाहिए। उन्होंने १९४६ में पीपुल्स एजुकेशन सोसायटीकी स्थापना की। उनका मानना है कि सच्ची शिक्षा केवल उन लोगोंके लिए है जो राष्ट्रीय हितों और सामाजिक कल्याणके बारेमें जानते हैं। डा. भीमराव अम्बेडकरके जीवन-दर्शनको विश्लेषित करनेपर एक बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि हमें उनको मात्र दलित-हित-चिंतक न मानकर, उन्हें सर्वसमावेशी समाजका पक्षधर स्वीकार करना चाहिए। हमारा यही चिन्तन आधुनिक भारतके सशक्त निर्माणकी आधारशिला भी तैयार करेगा।