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संगति 


बाबा हरदेव

संत तो संगत करनेका कर्ता भी अपने आपको नहीं मानता। साधसंगत, प्रभु कृपासे प्राप्त होती है और यदि इसको हम कृपा मान लेते हैं तो जिनपर कृपा होगी, उनको यदि धन्य नहीं कहा जायगा, तो क्या कहा जायगा। जितने भी संत, महापुरुष इस संसारमें समय-समयपर आये, उनके जीवन भी यही प्रकट करते हैं कि अपनी करनी ते न कर पाऊं न ठौर। महापुरुष हमेशा यही कामना करते हैं कि संतोंसे ही हमारा संपर्क बढ़े। महापुरुषोंसे ही हमारा नाता जुड़े और गुरमुखोंसे मिलाप हो। साधसंगत! कहनेका भाव है कि जिस तरहसे चंदनके पास उगी हुई वनस्पतिमें भी चंदनकी खुशबू आ जाती है। एक गंदा नाला जो वह रहा है, वह विशालल गंगाकी शरण लेता है तो उसीका रूप हो जाता है। एक लोहा पारसको छू जाता है और फिर वह कंचन बन जाता है। इसी तरहसे संतोंकी अवस्थाको कबीर बताते हैं कि महापुरुषोंकी संगति करके कबीर रामका रूप हो गये हैं। जिस तरहसे कोई इनसान पानीमें उतर जाता है तो फिर सूरजकी गर्मीका असर उसपर नहीं रहता और वह ठंडक महसूस करता है, शीतलता महसूस करता है, इसी तरहसे जो इस नामके रंगमें डूब जाते हैं, संगतमें आते रहते हैं, उनके ऊपर मायाकी गर्मी भी असर नहीं करती। साधसंगत! जो निरंतर सत्संगमें स्वयं अर्पित किये रहते हैं। वास्तवमें उनके जीवनमें निखार आता है। उनके मनका विकास होता है और मन हमेशा ऊंचाइयोंकी तरफ बढ़ता है, क्योंकि उसमें अच्छे गुण भरे जा रहे होते हैं और ऐसा होता है मात्र महापुरुषोंकी संगतिके कारण, महापुरुषोंके साथके कारण। इसीलिए वह अरदास करते रहते हैं कि- सेई मिलाई जिन्ना मिल्यां तेरा नाम चित आवे। हे दातार! गुरुमुख महापुरुषोंसे ही मिलाप कराये जिनके मिलापसे तेरा ध्यान आ जाता है। तेरी याद बन जाती है, तेरे ऊपर पूर्ण विश्वास कायम हो जाता है। महापुरुषोंकी संगतिसे दुईका भाव दूर हो जाता है, संकीर्णता दूर हो जाती है, हर हालमें निराकारके ऊपर पूर्ण विश्वास कायम हो जाता है और अपने अभिमानका त्याग हो जाता है। यह इस मन मतड़ीको त्याग देते हैं और दूजे भावको हटा देते हैं। घृणाकी भावनाको आंखोंसे परे हटा देते हैं। यह सारा महापुरुषोंकी संगतिका पगभाव है। जितनी-जितनी संगति मिलती रहती है, उतना-उतना ही अडोल निरंकराके ऊपर विश्वास बढ़ता है।