सम्पादकीय

संवैधानिक अधिकारोंका हनन


रविकान्त त्रिपाठी

कोरोनाकी महामारीने पूरी दुनियाको झकझोरा है जिन देशोंमें स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर थीं वहां भी हाहाकार मचा और जहां स्वास्थ्य सेवाएं कमजोर थीं वहां तो हाहाकार मचना स्वाभाविक था। दूसरी लहरने भारतमें ज्यादा तबाही मचायी लेकिन बेहतरीन प्रबंधनके कारण अनियंत्रित होती दिख रही महामारी जल्दी ही पटरीपर आ गयी और आबादीके हिसाबसे तबाहीका मंजर यहां औसत रूपसे बहुत कम दिखा और अब तो स्थिति बहुत ही नियंत्रणमें है। इस दौरान देशकी स्वास्थ्य सेवाओंकी वास्तविकता भी उजागर हुई फिर भी तीस दिनोंमें स्थिति नियंत्रणमें आ गयी जो बड़ी बात है यह सब केंद्रके बेहतर दिशा-निर्देशनका ही परिणाम है। आनेवाले समयमें वर्ष २०१४ भारतीय राजनीतिके लिए एक बड़ा परिवर्तनकारी वर्षके रूपमें जाना जायेगा। वर्ष २०१४ से भाजपा विरोधकी राजनीति मोदी विरोधमें बदल गयी, इस मोदी विरोधकी बीमारीसे ग्रसित विपक्ष अपने संवैधानिक दायित्वोंको भी भूल गया और उन दायित्वोंको हासियेपर रखा। संविधानमें स्वास्थ्य सेवाएं राज्योंका विषय है लिहाजा स्वास्थ्य सेवासे सम्बंधित प्रत्येक विषयपर विचार करना इससे सम्बंधित सेवाओंको उन्नत करना उन्हें उन्नत आधुनिक और समयानुकूल बनाना यह सभी दायित्व राज्योंको सौंपे गये हैं लेकिन मोदीसे नाखुश कुछ राज्य महामारीके शीर्ष स्तरपर पहुंचते ही अपने हाथ खड़े कर लिये और सारा दायित्व केंद्रपर थोपते हुए त्राहिमामका स्वांग दर्शाने लगे। जिसमें केजरीवाल सरकार सबसे आगे थी।

गत वर्ष जब कोरोनाकी पहली लहर ढलानपर थी तभीसे केंद्र सरकार सावधानी बरतने और महत्वपूर्ण अस्पतालोंमें आक्सीजन प्लांट लगानेकी हिदायत देने लगा किन्तु उसकी अपीलका कुछ विशेष असर नहीं हो सका। लेकिन जब अप्रैल-मईमें पुन: एक बार कोरोना बेकाबू होने लगा तो गैर-भाजपाशासित सरकारोंने अपने हाथ खड़े किये और आक्सीजनके नामपर केंद्रको कोसनेका काम शुरू किया जो कि दुर्भाग्यपूर्ण था। हालांकि केंद्र सरकारने राज्योंकी भरपूर मदद की और आक्सीजन टैंकर उन्हें समय-समयपर पहुंचा, लेकिन यहां सवाल यह है कि जो जिम्मेदारी संविधानने राज्योंको दी है उसके लिए केंद्रकी मोदी सरकारको कैसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता था। बादमें तो ऐसी भी खबरें आयीं की कुछ गैर-भाजपाशासित राज्योंने केंद्र द्वारा उपलब्ध कराये गये वेंटिलेटर और आक्सीजन कंसण्ट्रेटरका इस्तेमाल ही नहीं किया या उन्हें कबाड़की तरह कहीं एक कमरेमें पड़ा रहने दिया गया जो कि दुभाग्यपूर्ण था। वैक्सीनको बर्बाद करने, कूड़ेमें फेंकनेकी खबरें भी आयीं, केंद्र द्वारा उपलब्ध करायी गयी डोजकी संख्याके अनुपातमें बहुत कम वैक्सीनेशनकी खबरें भी आयीं जो कि बहुत ही अफसोसजनक है जबकि यह सारे दायित्व राज्योंको उठाने हैं। यहां यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि कुछ गैर-भाजपा शासित और मोदीको सर्वथा नीचा दिखानेका लगातार कुत्सित प्रयास करनेवाले राज्य अपनी धृष्टता, मनमानेपन और अमानुषिक व्यवहारोंके लिए मोदीको दोषी कैसे ठहरा सकते हैं? ऐसे राज्य लगातार अपनी मनमानी करते रहे और जनताके जीवनसे खिलवाड़ करते रहे और फिर भी एक रणनीतिके तहत केंद्रको कोसते रहे।

अब दूसरा विषय है कानून व्यवस्थाका, संविधानमें कानून व्यवस्थाको भी राज्योंका ही विषय माना गया है। आज बंगालकी स्थिति समझी जा सकती है बंगाल विगत पांच सालोंसे लगातार जल रहा है और वहांकी ममता सरकार आंख और कान बंद किये बैठी है बंगाल सरकारके इस व्यवहारसे वहांके अपराधियोंके हौसले और भी बुलंद हुए हैं। भाजपा कार्यकर्ताओंकी खुलेआम हत्या, वाटरोंको वोट देनेसे जबरन रोकनेकी घटना, चुनाव बाद गंभीर हिंसाका दौर यह सारी घटनाएं लोकतंत्रके नामपर कलंक और जनताके संवैधानिक अधिकारोंका हनन है। बंगालके पंचायत चुनावोंको बीते अभी बहुत दिन नहीं हुए और उस दौरमें होनेवाली हिंसा अब भी लोगोंके दिलोंदिमागमें बैठी है जब विपक्षी प्रत्याशियोंको नामांकन नहीं करने दिया जाता था, विपक्षके कार्यकर्ताओंको मारा पीटा जाता था और विपक्षके कार्यकर्ताओंकी हत्याएं भी आम बात थी। बंगालमें यह कैसा लोकतंत्र है और कैसी कानून-व्यवस्था। महाराष्ट्रके पालघरकी घटनाको भी अभी बहुत दिन नहीं बीते वहां उन्मादी भीडऩे निरीह साधुओंकी पीट-पीट कर हत्या कर दी थी पुलिसवाले मूकदर्शक बनें रहे जिसे पूरे देशने देखा फिर भी वहांकी राज्य सरकार कुछ नहीं कर पायी। यही हाल केरल जैसे सर्वाधिक शिक्षित प्रांतका है जहां भाजपा और संघके अनेक कार्यकर्ताओंकी केवल इसलिए हत्या कर दी जाती है क्योंकि वह लोग विपरीत विचारधाराके माननेवाले थे। सरकारका दायित्वबोध क्या ऐसे कृत्यकी इजाजत देता है। सबके दिलोदिमागमें दिल्लीके जेएनयू कैंपसकी वह घटना याद होगी, जिसमें देशके टुकड़े-टुकड़े होने और बर्बादीके नारे लगाये गये थे और छात्रोंकी इस जनसभाका समर्थन कांग्रेस समेत उसके सभी सहयोगियोंके द्वारा अभिव्यक्तिकी आजादीके नामपर किया गया था और जब उस मामलेमें कुछ छात्रोंको पुलिसने कानूनके शिकंजेमें लेना चाहा तो पुलिसके इस कार्यमें अनेक अड़ंगे लगाये गये थे। यह बात विचार करने योग्य है कि अभिव्यक्तिकी आजादी क्या असीमित या अनियंत्रित है या हो सकती है। यदि ऐसा हो जाय तब जो भविष्यमें अभिव्यक्तिके नामपर देशमें तबाहीके मंजर भी दिख सकते हैं।

संविधानके अनुच्छेद एकमें यह कहा गया है कि भारत राज्योंका एक संघ होगा, परन्तु क्या कुछ राज्योंका तथाकथित व्यवहार इस भावनासे प्रेरित है या संघवादको मजबूती देता है। अत: संघवादको मजबूत करनेके लिए यह आवश्यक है कि स्वास्थ्य और कानून व्यवस्थापर केंद्रका भी प्रभावी नियंत्रण स्थापित हो। स्वास्थ्य और कानून व्यवस्था जो राज्य सूचीके विषय हैं उन्हें अब राज्य सूचीसे बाहर कहीं अन्यत्र अथवा समवर्ती सूचीमें स्थापित किया जाना चाहिए जिससे कि इन विषयोंपर केंद्रको भी समय-समयपर उपयुक्त निर्णय लेने तथा समुचित और समान स्तरकी व्यवस्था स्थापित करनेका अवसर मिल सके। संविधानमें केंद्र और राज्यके विषयोंका बहुत ही बुद्धिमतापूर्वक वितरण किया गया है लेकिन बदलते समयके अनुसार राज्य सूचीके विषयोंपर गम्भीर चिंतन होना चाहिए। लोकतंत्रमें आलोचना-प्रतिआलोचना राजनीतिकी विशेषता है लेकिन इन आलोचनाओंमें संघवाद मजबूत रहना चाहिए। स्वास्थ्य और कानून-व्यवस्था किसी भी देशके लिए महत्वपूर्ण विषय है इससे देशकी प्रतिष्ठा जुड़ी होती है। यह भी सत्य है कि राज्यों के इस संघमें हर राज्य समान रूपसे मजबूत हों अथवा केंद्र या राज्योंमें समान विचारधाराकी सरकारें हों यह भी जरूरी नहीं लेकिन केंद्र और राज्य मजबूत रहे यह नितांत जरूरी है इसलिए स्वास्थ्य और कानून-व्यवस्थाको राज्य सूचीसे बाहर कहीं अन्यत्र या समवर्ती सूचीमें स्थापित करनेपर विचार होना चाहिए यह समयकी मांग है इसे समझना होगा।