सम्पादकीय

वानर शौर्यसे अनुप्राणित रामकथा


शिवप्रसाद ‘कमल’

सम्पूर्ण रामकथामें वानर अप्रतिम रूपसे उपस्थित हैं। क्योंकि बिना वानरोंके सहयोगके राम कभी भी रावणपर विजय नहीं पा सकते थे। सीताहरणके पश्चात्ï जब राम वनोंमें भटक रहे थे तभी ऋष्यमूक पर्वतके निकट हनुमानसे रामकी भेंट और फिर सुग्रीवसे रामकी मैत्रीने अपरिमित ऊर्जाका संचार कर दिया।

रामकथाके महानायक तो राम हैं, किन्तु कई दृष्टिïयोंसे अनेक लोग हनुमानको उपनायक मानते हैं। हनुमान सचमुच राम-रावण युद्धमें कई स्थलोंपर ऐसी चमत्कारिक भूमिकाओंका निर्वहन करते हैं जो अविश्वसनीयसे लगते हैं, किन्तु सच्चे हैं। अब देखें लक्ष्मणपर जब मेघनाथ शक्तिपात करता है तो द्रोणाचलसे बहुत अल्प समयमें संजीवनी पर्वत खण्डको साथ लाना अत्यन्त अप्रतिम और अनन्य है। लंकादहन भी हनुमानका अति मानवीय कार्य है और सबसे अधिक प्रशंसनीय कार्य तो उनका मेघनाथके यज्ञको विध्वंश करना था। यदि यज्ञ सफल होता तो मेघनाथ अजेय हो जाता।

प्रश्न उठता है आखिर ये वानर थे कौन? इस सम्बन्धमें ‘रामायण महातीर्थम्’ के अनुसार, जहांतक वानरका प्रश्न है यह एक बहुत बड़ी महाजाति थी, जिसमें हिमालयवासी ‘ऋध्क्ष’, मध्यप्रदेशके ‘कपि'(कपि और कन्ध जातियां अब भी मौजूद हैं जो मुण्डा-कोल वर्गमें आती हैं), आंध्र, कर्नाटकके कीश और कावेरी उपत्यकाके वानर सभी आ जाते हैं। किष्किंधा काण्डमें सुग्रीवका निमंत्रण इस पूरी महाजातिके नाम जाता है। इसमें सम्पूर्ण जम्बू दीप आ जाता है। हनुमानका निवास किमपुरुष देश बताया जाता है। वानर, किन्नर, किम्पुरुष शब्द इनकी एक भिन्न वेषभूषा और प्रकृतिका निर्देश करते हैं। ये वानरगण आर्योंसे हीनतर होते हुए भी अत्यन्त बलशाली और गुणवान थे। यह एक विकसित और शक्तिशाली जाति थी जो दक्षिणमें राक्षसोंकी प्रतिद्वन्दी थी। राक्षसेन्द्र रावणने इनके साथ मित्रता और समानताका सम्बन्ध बनाकर रखा था जो सीताहरणके पश्चात्ï टूट गया, क्योंकि दक्षिणकी यह विशाल जनशक्ति रामकी पक्षधर हो गयी थी। लेखकने लिखा है कि रामचन्द्र नन्य आर्यका, आर्य-आर्येतर समन्वित भारतका प्रतिनिधित्व करते हैं तो रावण जो मातृकुलसे मुण्डाकोल और पितृकुलसे ब्राह्मïण आर्य हैं, आदिम खूंखार आर्यत्वका।

सभी वानर जातियां जम्बूद्वीपमें बिखरी हुई थी। ये अरण्यों, पहाडिय़ों-विशेषकर गुफाओंमें, गिरिकन्दराओंमें निवास करते थे, क्योंकि यह वानर जाति भवन निर्माण तथा स्थापत्य कलासे अपरिचित थी। यह वानर प्रकृतिकी सहज सन्तानके रूपमें जीवन जीते थे, परन्तु नृत्य और गीत तथा पुष्प श्रृंगार एवं माल्य रचनामें प्रवीण थे। मूल्यवान धातुओं, रत्नों एवं आभूषणोंसे इनका परिचय था। किन्तु शारीरिक साज-सज्जामें यह पुष्पश्रृंगारको ही महत्व देते थे। आर्योंकी आश्रम-संस्कृतिके प्रभावसे वानर विद्यासे भी परिचित हो गये थे। इनके कई नायक जैसे जाम्बवान और हनुमान विद्या बलसे पूर्ण सम्पन्न थे और आर्यभाषाओंके भी जानकार थे। यह मांसभक्षी न होकर फल-फूल और धान्यसे जीवन निर्वाह करते थे। इनकी वेश-भूषा राक्षसों और मनुष्योंसे अलग थी। वानर जातिका एक विशेष परिधान था ‘पुच्छÓ और इस ‘पुच्छश्रृंगारÓ पर उन्हें गर्व था। यह उसी प्रकारका श्रृंगार है जैसा नागालैण्ड और अरुणाचलमें प्रतिष्ठिïत सरदार सींगोंका मुकुट धारण करते हैं। वैसे देखें तो ऋग्वेदमें भी मरुद्गणोंका वर्णन गो-श्रृंगभूषणधारी कहकर किया गया है। इन्हें वृक्षावास एवं वृक्षारोहणका शौक था। यह सुरक्षाकी दृष्टिïसे कमरमें रस्सी लपेटे रहते थे। यह अपनी पूंछके अन्तिम सिरेको सजाकर रखते थे और वानर समाजमें यह पूंछ प्रतिष्इाकी प्रतीक थी। सुन्दरकांडमें तुलसीने कहा- कपिके ममता पूंछपर। इनके अस्त्र-शस्त्र आदिम थे। शिलाखण्ड, काष्ठïखण्ड, गदा, मुद्ïगर है। इनकी देह बहुत मजबूत होती थी और इसीसे जब यह अपने शत्रुओंपर पुष्टिïका प्रहार करते थे तो वह बेहोश होनेके साथ कभी-कभी मृत्युको भी प्राप्त हो जाते थे।

लंकामें युद्ध आरम्भ होनेपर रामने आदेश दिया था कि स्वयं दोनों भाई, विभीषण और उनके चार मंत्री, मात्र यह ही मानुषी वेशमें रहेंगे शेष सारी सेना वानर वेशमें रहेगी, ताकि युद्धमें शत्रु-मित्रकी पहचान हो सके। वानरगण इच्छानुसार वेश परिवर्तन कर सकते थे। हनुमानने समुद्र लंघनके समय तथा लंका पहुंचनेपर और सतीाके समक्ष इसी प्रकार अपना रूप एवं वेश परिवर्तन किया था। यह नग्न नहीं रहते थे परन्तु अधोवस्त्र ही धारण करते थे। इनके अन्दरके अभिजात वर्ग तथा राजा, जूता, छत्र, चामर, सिंहासन और शैय्या उपाधानसे परिचित था। परन्तु आवास इनका गुफाओंमें ही था। इन गुफाओंको पूर्ण रूपसे सज्जित कर इसमें इनके राजा तथा राजपरिवारके लोग रहते थे। बालि एवं सुग्रीव, हनुमानके पिता केसरी आदिकी गुफाएं सुन्दर कक्षोंके रूपमें सजी हुई थी।

वानर जाति शौर्य प्रधान जाति थी और अपनी स्वामी भक्तिके लिए यह प्रसिद्ध थे। हनुमान, जाम्बवान, अंगद आदके अतिरिक्त तमाम-तमाम वानर समूहोंकी यही स्वामी भक्ति युद्धके समय रामके लिए वरदान बन गयी, क्रूोंकि राम-रावण युद्धमें वानरोंने अपने प्राणोंकी बलि देकर भी युद्धसे मुंह नहीं मोड़ा। बाल्मीकिकी बातका निचोड़ यह है कि वानर महाजातिकी विविधता, व्यापतकता, विस्तार और आन्तरिक संघटन बेजोड़ था। रामकथामें वानरगाथाका प्रवेश इस कथाकी सांस्कृतिक जड़को और गहरे जमा देता है। वानर समाजमें आर्येतर रीतियोंका प्राधान्य सुग्रीव एवं ताराके सम्बन्ध द्वारा भी व्यक्त होता है। बालिका मृत मानकर सुग्रीव किष्किन्धाका राज्य ग्रहण करते हैं तोराज्यके सिंहासनके साथ रानी तारापर भी अधिकार हो जाता है, जबकि यही बालिने भी किया था, सुग्रीवकी पत्नी रूमाको अपना अंक शायिनी बना लिया था। बालिका यह कार्य अनुचित था और इसी आरोपके कारण रामने बालि-वध किया था। बालि एवं सुग्रीव ऋक्षरजाके पुत्र थे और महाबली थे। एक कथाके अनुसार बालि इन्द्र पुत्र एवं सुग्रीव सूर्य-पुत्र थे।

वानरोंमें बहुपत्नीत्व भी था। परन्तु यह आदर्श नहीं माना जाता था। सुग्रीवकी कई पत्नियां थीं। हनुमानको हम वज्रसंयमी और ब्रह्मïचारी मानते हैं, किन्तु जैन रामायणके अनुसार वे चन्द्रनखा (शूर्पणखा) के दामाद थे। चन्द्रनखाकी एक पुत्रीका विवाह सुग्रीवसे हुआ था तो दूसरीका हनुमानसे। सीताहरण-प्रसंगके कारण सुग्रीव और हनुमानकी अपनी साससे बैर-विरोध हो गया था। एक निष्ठï रामभक्त, ब्रह्मïचारी हनुमानकी हमारी कल्पनाके साथ इस विवाहकी बात मेल नहीं खाती। वैसे पाराशर संहितामें भी हनुमानजीके विवाहकी बात कही गयी है। इसके अनुसार हनुमानका विवाह सूर्य पुत्री सुवर्चलासे हुआ था। आंध्रप्रदेशके खम्मनमें एक प्राचीन हनुमान जीका मन्दिर है जहां उनके साथ उनकी पत्नी भी विराजमान हैं। माना तो यह भी जाता है कि लंका जाते समय समुद्रमें उनका जो पसीना गिरा था उसे मकरी पी गयी थी और इसके कारण मकरध्वजका जन्म हुआ था।

रामकथाके महानायक तो राम हैं, किन्तु कई दृष्टिïयोंसे अनेक लोग हनुमानको उपनायक मानते हैं। ऊपर थोड़ी चर्चा हनुमानके सम्बन्धमें इसीसे हुई। हनुमान सचमुच राम-रावण युद्धमें कई स्थलोंपर ऐसी चमत्कारिक भूमिकाओंका निर्वहन करते हैं जो अविश्वसनीयसे लगते हैं, किन्तु सच्चे हैं। अब देखें लक्ष्मणपर जब मेघनाथ शक्तिपात करता है तो द्रोणाचलसे बहुत अल्प समयमें संजीवनी पर्वत खण्डको साथ लाना अत्यन्त अप्रतिम और अनन्य है। लंकादहन भी हनुमानका अति मानवीय कार्य है और सबसे अधिक प्रशसनीय कार्य तो उनका मेघनाथके यज्ञको विध्वंश करना था। यदि यज्ञ सफल होता तो मेघनाथ अजेय हो जाता। वैसे तो सुग्रीव, अंगद, जाम्बवान, नल-नील, रह, दधिमुख, द्विविद, मयन्द, शरम, कुमद, रुमण्वान, इन्द्रभानु आदि सभी वानर वीर थे, किन्तु हनुमानकी बात ही और थी। इन वानरोंके सम्बन्धमें रामायणमें कहा गया कि कैलाशकी तलहटीवाले वानरोंका वर्ण श्वेत था। हिमालयके अंचलवाले वानरके सरवर्णी, विंध्याचल क्षेत्रके वानरोंका रंग अरुणाम और अंजनगिरिके वानरोंका रंग काला था। युद्धमें भाग लेने तारा और रुमाके पिता सुषेणके साथ्थ् धूसर-सुनहले रंगके वानर आये थे। इनके सेनापति थे केसरी किष्किन्धाके पड़ोसी मतंग वनके बड़े-बड़े कदवाले वानरोंके सेनापति थे पनस। वृक्षवासी अर्थात्ï पेड़ोंपर मंच बनाकर रहनेवाले वानरोंके सेनापति थे नल। वस्तुत: वानरोंके स्वभावमें ‘कपित्वÓ और शाखामृग-चंचलताका आवेश है। यह देह और मन दोनोंसे चंचल हैं। लड़ते हैं तो लड़ते हैं जी-जानसे और मस्ती करते हैं तो मस्त बनकर। अब यहां सहज प्रश्न उठता है कि रामके साथ यदि सुग्रीवकी मैत्री न होती तो क्या राम अकेले महाप्रतापी, बेदज्ञ, बलशाली, दशग्रीवको पराजित कर सीताको लौटानेमें समर्थ थे। राममें ईश्वरत्व, विष्णु अवतारकी चाहे कितनी भी सम्भावनाएं हों, किन्तु वानरोंके अभावमें रावण-वध सम्भव नहीं प्रतीत होता। इसीसे रामकथाके साथ वानरगाथा अनिवार्य हो गयी। वानर युद्धमें रामके सहयोगी बनकर हमेशा-हमेशाके लिए पृथ्वी मात्रपर अमर हो गये और हनुमान अष्छ चिरंजीवियोंमें एक तो हैं ही।