सम्पादकीय

सकारात्मकतासे हारेगा कोरोना


डा. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा    

कोरोनाके पहले दौरके दौरान जयपुरके आरयूएचएसकी दूसरी मंजिलसे संदिग्ध कोरोना मरीज ७८ वर्षीय बुजुर्गने आत्महत्याका मामला हो या दिल्लीमें संक्रमित कोरोना केन्द्रकी छतसे कूदकर अपनी जीवनलीला समाप्त करनेका प्रकरण। इस तरहके बहुतसे समाचार समाचार-पत्रोंमें देखनेको मिलते रहे हैं। इस तरहके उदाहरण खास तौरसे कोरोनाके कारण आत्महत्याके प्रयास या गहरे डिप्रेशनके समाचार समूची दुनियासे आ रहे हैं। कोरोना महामारीका डर और कोरोनाके कारण दुनियाभरमें समय-समयपर लगाये गये लाकडाउनका साइड इफेक्ट यह सामने आ रहा है कि दुनियाके देशोंमें डिप्रेशनके मामलोंमें तेजी आयी है। आदमी अपने आपमें खोने लगा है। देखा जाय तो कोरोना महामारीने केवल बीमारी ही नहीं, अपितु इसने जीवनके लगभग सभी मोर्चोंपर हिलाकर रख दिया है। यहांतक कि सामाजिक ताना-बाना भी प्रभावित होने लगा है। कोरोनाने मनुष्यके सामाजिक प्राणी होनेके कंसेप्टको ही बदलकर रख दिया है। हालात यह हो गयी है कि घरमें किसीके हल्की खांसी या गलेमें खरास भी देखनेको मिलती है तो पहली प्रतिक्रिया उसे घरमें ही आइसोलेट करनेकी हो रही है। कोरोनाका भय ही ऐसा है कि लोग डरने लगे हैं। घरपर ही मास्क लगाने लगे हैं परन्तु यह कुछ लोगोंतक ही सीमित है। क्योंकि जिस तेजीसे देशमें कोरोनाकी दूसरी लहरने जकड़ा है वह कोरोना प्रोटोकालकी पालनाके प्रति गंभीर नहीं होनेका ही परिणाम है। जिस तरहसे घर-परिवार, मिलने-जुलनेवालोंसे आइसोलेट हो जाता है तो इससे थोड़े भी संवेदनशील मानसिकताके लोग डिप्रेशनके शिकार हो जाते हैं और उसका दुष्परिणाम यह भी आता है कि ऐसे मरीजोंके रिकवर होनेमें अधिक समय लगने लगता है।

कोरोना महामारीके कारण मानसिक अवसादकी स्थितिको लेकर विश्व स्वास्थ्य संघटनकी कोरोनाकी पहले दौरके दौरान आयी थी। रिपोर्टके अनुसार हालतोंमें बदलाव नहीं आता है तो देशके २० फीसदी लोग कोरोनाके कारण डिप्रेशनका शिकार हो जायंगे। यह अपने आपमें गंभीर और चिंतनीय है। चैन्नईके मानसिक स्वास्थ्य संस्थानके निदेशक डा. आर. पूर्णा चन्द्राके अनुसार कोरोनाके पहले दौरमें अप्रैल २० में ही हालात यह रहे कि कोरोनाके कारण डिप्रेशनसे प्रभावित ३६३२ लोगोंने फोनसे सलाह प्राप्त की। यह तो केवल बानगी मात्र है। दरअसल लोग कोरोनासे इस कदर भयक्रांत हो गये हैं कि वह सोच-सोचके ही डिप्रेशनमें जाने लगे हैं। देखा जाय तो कोरोनासे लडऩेके लिए जिस तरहका सकारात्मक माहौल बनना चाहिए वह दुनियाके देशोंमें कहीं नहीं बन रहा है। दरअसल कोरोनाकी दूसरी लहर और भी अधिक भयावह होकर आयी है। दूसरी लहरमें देशमें जहां संक्रमितोंका एक दिनी आंकड़ा करीब चार लाखको छूने लगा है तो दूसरी ओर मौतका आंकड़ा भी तेजीसे बढ़ा है। कोढ़में खाज यह कि समूचे देशमें आक्सीजनकी कमीके कारण दम तोड़ते लोगोंकी तस्वीर या फिर अस्पतालोंके बाहर बेडकी अनुपलब्धताने और भी अधिक भयाक्रांत कर दिया है। जब अस्पतालोंमें जगह नहीं मिलने, दवाकी उपलब्धता नहीं होने या फिर उपकरणोंका कृत्रिम अभाव, आक्सीजन सिलेण्डरोंकी कमी या इस तरहके समाचार अधिक प्रमुखतासे सामने लाये जाते हैं तो इसका साइड इफेक्ट भी हमें समझना होगा। हालांकि यह सबकुछ हालात सुधारनेकी नसीहतसे करता है परन्तु इसका नकारात्मक पक्ष इस मौकेमें भी लाभ तलाशनेवालोंकी कोई कमी नहीं हैं। अस्पतालोंमें बेडके नामपर लाखों रुपये वसूलने, रेमडिसियर इंजेक्शनकी कालाबाजारी, गैस सिलेण्डरों उपलब्ध करानेके लिए मनचाहे दाम वसूलने, आक्सीमीटर जैसे साधारणपर आजकी तारीखमें महत्वपूर्ण उपकरणके कई गुणा दाम वसूलने और इनकी कालाबाजारी करनेवाले इक्के-दुक्के लोगोंकी गिरफ्तारीसे ऐसी स्थितियोंकी गंभीरताको समझना होगा। यह जरूरी है और लोगोंमें जागरूकता भी होनी चाहिए परन्तु संक्रमणका भय, अब क्या होगाका भय, नौकरी जाने या इनकम कम होनेका भयके कारण कमजोर मानसिकतावाले लोग जल्दी डिप्रेशनका शिकार होने लगे हैं। इसलिए कहीं न कहीं मनोविश्लेषकोंको इसका हल खोजना होगा, ताकि लोगोंमें सकारात्मकता बढ़े, लोग अच्छेको समझे और विलपावर सशक्त हो सके।

कोरोनाके साइड इफेक्टोंके कारण लोगोंकी नींद उडऩे लगी है तो व्यक्ति एकाकी होने लगे हैं। लंबे समयके वर्क फ्राम होमसे घरका वातावरण भी बोझिल होता जा रहा है तो बाहर निकलते ही डर लगने लगा है। इससे डिप्रेशनके सामान्य लक्षण बैचेनी, नींद नहीं आना, नकारात्मक विचार आदि तो अब आम होता जा रहा है। ऐसेमें मनोविज्ञानियों और मनोविश्लेषकोंके सामने मेडिकल चिकित्सकोंसे भी अधिक चुनौती उभरकर आयी है। जब यह तय है कि अभी लंबे समयतक हमें कोरोनाके साथ ही जीना है तो हमारे सोचमें सकारात्मकता लानी होगी। लोगोंमें भयके स्थानपर जीवटता पैदा करनी होगी तभी कोरोनाके इस संक्रमण कालसे हम निकल पायंगे। सरकार, गैरसरकारी संघटनोंको इस तरहके जागरूकताके केप्सूल तैयार करने होंगे जो लोगोंमें आत्मविश्वास पैदा कर सके। लोगोंमें पाजीटिव सोच विकसित हो सके और परिस्थितियोंसे लडऩेकी ताकत पा सकें। अब ले-देकर यही विकल्प हमारे पास रह गया है और इस विकल्पको संकल्पमें बदलकर हालातोंको सामान्य करनेकी जिम्मेदारी हम सबकी हो जाती है।