सम्पादकीय

संवेदनशील समाज बनानेकी आवश्यकता


प्रो. संजय द्विवेदी

यह एक ऐसे देशकी कहानी है, जो अपनी १३५ करोड़ जनताके साथ कोरोनाके विरुद्ध जंग लड़ रहा है। सरकारों और निजी अस्पतालोंको मिलाकर भी चिकित्साके इंतजाम कम पड़ गये हैं। आक्सीजनकी कमीके चलते हाहाकार है। जरूरी चीजों, खाद्य पदार्थों, दवाओंकी कालाबाजारीमें हमारा कोई सानी नहीं है। हालात बदसे बदतर होते जा रहे हैं। मदद करनेवाले करोड़ों हाथ हैं तो लूटपाट करनेवाले भी कम नहीं हैं। इस लूटमें आखिरी पंक्तिका आदमी तो बेहाल है ही, मध्यवर्गकी भी कमर टूट गयी है। यह अचानक आया संकट नहीं था। पिछले सवा सालसे हम इससे जूझ रहे हैं। कोरोना महामारीके बहाने भारतके दुख-दर्द, उसकी जिजीविषा, उसकी शक्ति, संबल, लाचारी, बेबसी, आर्तनाद और संकट सब कुछ खुलकर सामने आ गये हैं। इन सात दशकोंमें जैसा देश बना है, उसके कारण उपजे संकट भी सामने हैं। दिनोंदिन बढ़ती आबादी हमारे देशका कितना बड़ा संकट है यह भी खुलकर सामने है, किंतु इस प्रश्नपर संवादका साहस न राजनीतिमें है, न विचारकोंमें। संकटोंमें भी राजनीति तलाशनेका अभ्यास भी सामने आ रहा है।

ऐसे कठिन समयमें सचको व्यक्त करना कठिन है। क्योंकि सभी विचारवंतोंके अपने-अपने सच हैं। जो राजनीतिक आस्थाओंके आधार देखे और परखे जा रहे हैं। भारतीय बौद्धिकता और शिखर पुरुषोंने इतना निराश कभी नहीं किया था। साहित्यको राजनीतिके आगे चलनेवाली मशाल बतानेवाले देशने राजनीतिक आस्थाओंको ही सचका पर्याय मान लिया है। संकटोंके समाधान खोजने, उनके हल तलाशने और देशको राहत देनेके बजाय जख्मको कुरेद कर हरा करनेमें मजा आ रहा है। केंद्र की मजबूत सरकार और उसके मजबूत नेताको विफल होते देखनेकी हसरत इतनी प्रबल है कि वह लोगोंकी पीड़ा और आर्तनादमें भी आनन्दका भाव खोज ले रही है। हमारी केंद्र और राज्यकी सरकारोंकी विफलता दरअसल एक नेता या कुछ मुख्य मंत्रियोंकी विफलता नहीं है। यह समूचे लोकतंत्र और इतने सालोंमें विकसित तंत्रकी भी विफलता है। सामान्य संकटोंमें भी हमारा पूरा तंत्र जिस तरह धराशाही हो जाता है, वह अद्भुत है। बाढ़, सूखा, भूकम्प और अन्य दैवी आपदाओंके समय हमारे आपदा प्रबंधनके सारे इंतजाम धरे रह जाते हैं। सामान्यजन इसकी पीड़ा भोगता है। यह घुटनाटेक रवैया निरंतर है और इसपर लगाम कब लगेगी कहा नहीं जा सकता। यानी जहां बाढ़ आ रही है, वहां सालोंसे हर साल आ रही। फिर उसी इलाकेमें सूखा भी हर साल आ रहा है। उसके साथ लोग जीना सीख गये हैं। हमारा महान तंत्र इन संकटोंसे निजात पानेके उपाय नहीं खोजता, उसके लिए हर संकटमें एक अवसर है।

उत्तर भारतके राज्योंके सामने यह कुछ ज्यादा विकराल हैं क्योंकि यहांकी राजनीतिने राजनेता और राजनीतिक योद्धा तो खूब दिये किंतु जमीनपर उतरकर संकटोंके समाधान तलाशनेकी राजनीति यहां आज भी विफल है। पलायन, जातिवाद, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, ध्वस्त स्वास्थ्य और शिक्षा-व्यवस्था सब इनके हिस्से हैं। यह संभव है कि समुद्रके किनारे बसे राज्योंकी व्यवस्थाएं, अवसर और संभावनाएं बलवती हैं। किंतु उत्तर भारतके हरियाणा, पंजाब जैसे राज्य भी उदाहरण हैं, जिन्होंने अपनी संभावनाओंको जमीनपर उतारा है। प्रधान मंत्रियोंका राज्य रहा उत्तर प्रदेश आज भी देश और दुनियाके सामने सबसे बड़ा सवाल बनकर खड़ा है। यही हाल बिहारका है। स्वदेशी, स्वावलंबनका गांधी पथ छोड़कर सत्ताधीश नये मार्गपर दौड़ पड़े जो गांवोंको खाली और शहरोंको बेरोजगार युवाओंकी भीड़से भर रहे थे। एक समयमें आत्मनिर्भर रहे हमारे गांव अचानक मनीआर्डर एकोनामीपर पलने लगे। गांवोंमें स्वरोजगारके काम ठप पड़ गये। कुटीर उद्योग ध्वस्त हो गये। भारतीय समाजको लांछित करनेके लिए उसपर सबसे बड़ा आरोप वर्ण व्यवस्थाका है। व्यावसायिक वृत्तिका व्यक्ति वहां क्षत्रिय बना रहनेके मजबूर नहीं था, न ही किसीको अंतिम वर्णमें रहनेकी मजबूरी थी। अब यह चीजें काल बाह्य हैं। वर्ण व्यवस्था समाप्त है। जाति भी आज रूढ़ी बन गयी किंतु एक समयतक यह हमारे व्यवसायसे संबंधित थी। हमारे परिवारसे हमें जातिगत संस्कार मिलते थे, जिनसे हम विशेषज्ञता प्राप्त कर जाब गारंटी भी पाते थे। इसमें सामाजिक सुरक्षा थी और इसका सपोर्ट सिस्टम भी था। बढ़ई, लुहार, सोनार, निषाद, माली, धोबी, कहार यह जातियां भर नहीं है। इनमें एक व्यावसायिक हुनर और दक्षता जुड़ी थी।

गांवोंकी अर्थव्यवस्था इनके आधारपर चली और मजबूत रही। आज यह सारा कुछ उजड़ चुका है। हुनरमंद जातियां आज रोजगार कार्यालयमें रोजगारके लिए पंजीयन करा रही हैं या महानगरोंमें नौकरीके लिए धक्के खा रही हैं। ऐसेमें जातिके गुणके बजाय, जातिकी पहचान खास हो गयी है। हर जातिका अपना इतिहास है। ऐसेमें जातिकी पहचान भी ठीक है, परन्तु जातिभेद ठीक नहीं है। आज नयी अर्थव्यवस्थामें किसान आत्महत्या करने लगे और कर्जके बोझसे दबते चले गये। १९९१ के लागू हुई नयी आर्थिक व्यवस्थाने पूरी तरहसे हमारे चिंतनको बदलकर रख दिया। संयमके साथ जीनेवाले समाजको उपभोक्ता समाजमें बदलनेकी सचेतन कोशिशें प्रारंभ हुईं। छोटे उद्यमियोंकी छोड़ें, बड़ी कंपनियोंने भी अपने कर्मियोंके वेतनमें तत्काल कटौती करनेमें कोई कमी नहीं की। ईएमआईके चक्रने जो जाल बुना है, समूचा मध्यवर्ग उससे जूझ रहा है। निम्न वर्ग उससे स्पर्धा कर रहा है। इससे समाजमें बढ़ती गैर-बराबरी और स्पर्धाकी भावना एक बड़े समाजको निराशा और अवसादसे भर रही है। शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, कृषकोंके संकट, बढ़ती जनसंख्याके सवाल हमारे सामने हैं। कोरोना संकटने हमें साफ बताया है कि हम आज भी नहीं संभले तो कल बहुत देर हो जायगी। अंधे पूंजीवाद और निर्मम कारपोरेटकी नीतियोंसे अलग एक मानवीय, संवेदनशील समाज बनानेकी जरूरत है जो भले महानगरोंमें बसता हो उसकी जड़ोंमें संवेदना और आत्मीयता हो। सिर्फ हासिल करने और हड़पनेकी चालाकी न हो। देनेका भाव भी हो।