सम्पादकीय

सिकुड़ते जंगलसे संकटमें सभ्यता


अनिल जैन      

पानीके संकटको स्पष्ट तौरपर दुनियाभरमें महसूस किया जा रहा है और विशेषज्ञ चेतावनी दे चुके हैं कि अगला विश्व युद्ध यदि हुआ तो वह पानीको लेकर ही होगा। जिस तेजीसे पानीका संकट विकराल रूप लेता जा रहा है, कमोबेश उसी तेजीसे जंगलोंका दायरा भी सिकुड़ता जा रहा है। जब मनुष्यने जंगलोंको काटकर बस्तियां बसायी थीं और खेती शुरू की थी तो वह सभ्यताके विस्तारकी शुरुआत थी। लेकिन विकासके नामपर मनुष्यकी खुदगर्जीके चलते जंगलोंकी कटाईका सिलसिला जारी रहनेसे अब लग रहा है कि यदि जंगल नहीं बचे तो हमारी सभ्यताका वजूद ही खतरेमें पड़ जायगा। विशेषज्ञोंका कहना है कि दुनियाभरमें जंगल अब बहुत तेजीसे खत्म हो रहे हैं। पूरी दुनियाके जंगलोंका दसवां भाग तो पिछले बीस सालमें ही खत्म हो गया है। यह गिरावट लगभग ९.६ फीसदीके आसपास है। जंगलोंकी यह कटाई और छंटाई किसी खेती या बागवानीके लिए नहीं, बल्कि नये-नये नगर बसाने और उससे भी कहीं ज्यादा खननके लिए हो रही है। दुनियामें ऐसे इलाके लगातार कम होते जा रहे हैं, जो मानवकी सक्रिय दखलसे पूरी तरह मुक्त हो। अध्ययनके अनुसार यदि यही हाल रहा तो इस शताब्दीके अंत यानी सन्ï २१०० तक दुनियासे जंगलोंका पूरी तरहसे सफाया हो जायगा। तब न अमेजनके जंगलोंका रहस्य बच पायगा, न अफ्रीकाके जंगलोंका रोमांच रहेगा और न हिमालयके जंगलोंकी समृद्धि ही बच पायगी। ग्लोबल वॉर्मिंगकी ओर बढ़ती दुनियामें हम जिन जंगलोंसे कुछ उम्मीद लगा सकते हैं, वह तो पूरी तरह खत्म हो जायंगे। जंगलोंकी बर्बादीके मामलेमें भारत भी दुनियाके बाकी हिस्सोंका अपवाद नहीं है। जिस तेजीसे दुनियाके दूसरे हिस्सोंमें वन क्षेत्रका सफाया हो रहा है। हमें कुदरतका शुक्रगुजार होना चाहिए कि दुनियाके कुल भू-भागका महज चार फीसदी ही भारतके हिस्सेमें होनेके बावजूद देशमें ८.०७ करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र वनों और पेड़ोंसे आच्छादित है।

एक समय तो भारतमें ५० फीसदीसे ज्यादा वन क्षेत्र हुआ करता था, जो धीरे-धीरे सिकुड़ते हुए २४ फीसदीके आसपास रह गया है। दरअसल औद्योगीकरण और विकासके नामपर जंगलोंको तबाह करनेका काम जिस बड़े पैमानेपर हमारे देशमें होता आया है, उसकी मिसाल दुनियामें कहीं और मिलना मुश्किल है। वर्षोंसे हो रही लगातार अवैध कटाईने जहां मानवीय जीवनको प्रभावित किया है, वहीं असंतुलित मौसम चक्रको भी जन्म दिया है। वनोंकी अंधाधुंध कटाई होनेके कारण देशके वन क्षेत्रका सिकुडऩा पर्यावरणकी दृष्टिसे बेहद चिंताजनक है। विकास कार्यों, आवासीय जरूरतों, उद्योगों तथा खनिज संपदाके दोहनके लिए जंगलोंकी बेतहाशा कटाईका सिलसिला सारे कानूनको ताकपर रखकर वर्षोंसे जारी है। इसके लिए जनसंख्या विस्फोट, अवैज्ञानिक और बेतरतीब विकास तथा भोगवादी संस्कृति भी जिम्मेदार है। पर्यावरण विशेषज्ञोंके मुताबिक बीसवीं शताब्दीमें पहली बार मनुष्यके क्रियाकलापोंने प्रकृति बनने-बिगडऩेकी प्रक्रियामें अपना दखल बढ़ाया है और पिछले ५० वर्षोंमें उसमें तेजी आयी है। हमारे यहां भी जबसे आठ-नौ फीसदी दरवाले विकास माडलको अपनाया है, तबसे प्रकृतिके क्रियाकलापोंमें मानवीय हस्तक्षेप बढ़ा है। विकासके नामपर बड़े-बड़े बांध, रिहाइशी इलाकोंका विस्तार और अन्य औद्योगिक परियोजनाओंके लिए जहां सरकार खुद जंगल उजाडऩेमें लगी है, वहीं वन तस्करों और खनन माफियाओंकी गतिविधियोंने भी जंगलोंको बुरी तरह तबाह कर रखा है। वनाधिकार कानून लागू होनेके बावजूद जंगलकी जमीन कब्जानेकी प्रवृत्तिमें कहीं कोई कमी नहीं आयी है और जंगलोंमें रहनेवाले आदिवासियोंके अधिकारोंका लगातार हनन हो रहा है। उन्हें उनकी जमीनसे विस्थापित कर शहरोंकी ओर पलायन करनेको मजबूर किया जा रहा है।

नवीनतम रिपोर्टके मुताबिक देशमें कुल वन आच्छादित क्षेत्र ८,०७,२७६ वर्ग किलोमीटर है जो कुल भौगोलिक क्षेत्रफलका २४.५६ प्रतिशत है। कुल भौगोलिक क्षेत्रफलका वनावरण क्षेत्र ७,१२,२४९ वर्ग किमी है, जो कुल भौगोलिक क्षेत्रफलका २१.६७ फीसदी है, जबकि कुल भौगोलिक क्षेत्रफलका वृक्षावरण क्षेत्र ९५,०२७ वर्ग किमी है, जो कुल भौगोलिक क्षेत्रफलका २.८९ प्रतिशत है। २०१७ के पिछले मूल्यांकनकी तुलनामें वन आच्छादित क्षेत्रफलमें ५,१८८ वर्ग किलोमीटरकी वृद्धि हुई है जिसमें वन क्षेत्र और वनसे इतर वृक्षोंसे आच्छादित हरित क्षेत्र भी शामिल है। कहा जा सकता है कि दो सालके दौरान स्थितिमें मामूली सुधार हुआ है लेकिन इस सुधारके बावजूद देशके कुल क्षेत्रफलमें वनों और वृक्ष लगे क्षेत्रकी हिस्सेदारी अब भी महज २४.५६ प्रतिशत है, जो कायदे ३३ प्रतिशत होना चाहिए। इस रिपोर्टके मुताबिक वन क्षेत्रमें यह कमी आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और गुजरातके साथ ही पर्यावरणके लिहाजसे संवेदनशील देशके पूर्वोत्तर राज्योंके पहाड़ी इलाकोंमें आयी है इस कमीके लिए जो कारण गिनाये गये हैं, वह बेहद सतही, अस्पष्ट और विरोधाभासी हैं। रिपोर्टमें कुछ राज्योंके वन क्षेत्रमें आयी कमीके लिए नक्सलियों-माओवादियोंकी गतिविधियोंको जिम्मेदार ठहराया गया है। औद्योगिक गतिविधियोंमें अग्रणी माने जानेवाले गुजरातमें तो नक्सलियोंका कहीं नामोनिशानतक नहीं है, लेकिन वहां भी पिछले वर्षोंके दौरान वन क्षेत्रमें कमी आयी है। भारत हो या दुनियाका कोई भी हिस्सा, जंगलोंके खत्म होनेका अर्थ है, धरतीकी ऐसी बहुत बड़ी जैव-संपदाका नष्ट हो जाना जिसकी भरपाई शायद ही फिर कभी हो सके।

अभीतक नष्ट होते जंगलोंकी रफ्तारको देखते हुए दुनियाभरके वैज्ञानिकोंका कथन है कि यह धरती अपने जीवनमें छठीं बार बड़े पैमानेपर जैव-संपदाके नष्ट होनेके कगारपर पहुंच चुकी है। फर्क सिर्फ इतना है कि इसके पहले जब भी मौसम या युग बदलनेके साथ ऐसा हुआ, हमेशा ही उसके कारण प्राकृतिक थे, लेकिन इस बार यह मानव निर्मित है। पिछले कुछ सालोंमें दुनियाभरमें जिस तरहसे पर्यावरण-चेतनाका विकास हुआ है, उसके चलते लोगोंको जंगलोंकी जरूरत और अहमियत समझमें आने लगी है। यह जरूर है कि इसके बावजूद बढ़ती आबादीकी जरूरतें पूरी करनेके ऐसे विकल्प हम अभीतक नहीं खोज पाये हैं, जिनमें जंगलोंको काटनेकी जरूरत न पड़े। एक सोच यह भी है कि जबतक हम जंगल काटनेपर पूरी तरहसे रोक नहीं लगाते, तबतक विकल्प खोजनेका दबाव हमपर नहीं बनेगा और हम तमाम चेतनाके बावजूद जंगलोंका सफाया लगातार करते रहेंगे। कहींपर यह सरकारोंकी मजबूरीके कारण होगा तो कहीं उद्योग जगतके मुनाफेके लिए।