सम्पादकीय

सम्मानजनक वापसी चाहते हैं आन्दोलनकारी


अजय कुमार

क्याकिसान नेता कोरोनाकी आड़में लगातार कमजोर होते जा रहे आंदोलनको समाप्त कर देंगे? ताकि साख भी बची रहे और किसान नेताओंपर कोई यह आरोप भी न लगा पाये कि किसान नेताओंने अपनी सियासत चमकानेके किए सैंकड़ों किसानोंको कोरोना संक्रमित बना दिया। जैसा आरोप दिल्लीमें तबलीगी जमातपर लगा था। इससे इत्तर संभावना इस बातकी भी है कि किसान नेता मरणासन अवस्थामें पहुंच चुके आंदोलनको अपनी तरफसे खत्म करनेकी बजाय इस बात का इंतजार करें कि मोदी सरकार उनके आंदोलनको भी जर्बदस्ती वैसे ही समाप्त करा दे जैसे पिछले वर्ष उसने कोरोना प्रकोप फैलनेके बाद रातोंरात सीएएके विरोधमें दिल्लीके शाहीन बाग सहित पूरे देशमें धरनेपर बैठे आंदोलनकारियोंका टैंट-तंबू उखाड़ कर उनको खदेड़ दिया था। ऐसा इसलिए भी संभव लगता है क्योंकि कोरोनाकी दूसरी लहरको ध्यानमें रखते हुए कई राज्योंने नयी गाइडलांइस जारी करते हुए कई तरहके प्रतिबंध लगा दिये हैं जिसके तहत पचाससे अधिक लोगोंके जमावड़ेपर रोक लगा दी गयी है।

कोरोनाकी दूसरी लहरकी दस्तक सुनाई देते ही राज्यों सरकारोंके साथ स्वराष्ट्र मंत्रालयने भी अप्रैलके लिए गाइडलाइन जारी कर दी है। इस गाइडलाइनमें मुख्य रूपसे टेस्ट, ट्रैक और ट्रीटकी रणनीतिपर काम करनेपर जोर दिया गया है। साथ ही टीकाकरण अभियानपर फोकस अधिक रखनेके लिए कहा गया है। जिन भी राज्योंमें आरटीपीसीआर टेस्टका आंकड़ा कम है इसे बढ़ाये जानेकी सलाह दी गयी है। इस हकीकतसे इनकार नहीं किया जा सकता है कि किसान संघटनोंका कृषि सुधार कानून विरोधी आंदोलन सियासतकी भेंट चढ़ चुका है। इसके साथ आंदोलन फ्लाप होनेकी एक और बड़ी वजह यह भी है कि किसान आंदोलनके प्रमुख नेताओंके बीच मतभेद काफी उभर चुके हैं। सब अपनी चाल चल रहे हैं। लेकिन जनताका लगाव आंदोलनसे खत्म हो गया है। मरणासन अवस्थामें पहुंच चुके किसान आंदोलनको नयी जान देनेके लिए किसान नेताओंने पांच राज्यों, जहां चुनाव हो रहे हैं, वहां बीजेपीके खिलाफ बिगुल बजाने की कोशिश की थी, लेकिन कहींसे किसी प्रकारका कोई समर्थन नहीं मिलनेसे इन नेताओंको उलटे पांव वापस आना पड़ गया था। अब कोरोना संक्रमणको लेकर भी किसान नेताओंके बीच अलग-अलग और अजीबोगरीब बयान आ रहे हैं। इनमेंसे हरियाणाके कुछ जिलोंमें प्रभाव रखनेवाली भारतीय किसान यूनियन (चढ़ूनी) के अध्यक्ष गुरनाम सिंह चढूनीका बयान सबसे ज्यादा विवादित और हास्यास्पद है। चढ़ूनीके अनुसार कोरोना जैसी कोई बीमारी ही नहीं है। यह तो एक बहुत बड़ा घोटाला है, जो सरकार कर रही है, लोगोंका हार्मोन परिवर्तित करनेके लिए। जो भी व्यक्ति कोरोनासे बचावके लिए वैक्सीन लेगा, उसके हार्मोन बदल जायंगे। वह सरकारके पक्षमें हो जायेगा।

यह स्थिति तब है जबकि भारतीय किसान यूनियनके नेता राकेश टिकैतने गुरनामके बयानसे पहले ही सरकारसे यह आग्रह किया था कि धरना स्थलोंपर आंदोलनकारियोंको वैक्सीन लगवानेकी सरकारको व्यवस्था करनी चाहिए। हरियाणा सरकार द्वारा कुंडली बॉर्डर (सोनीपत) और टीकरी बॉर्डर (झज्जर)पर ऐसी व्यवस्था कर भी दी गयी है। वहां कोरोना  जांच की भी सुविधा है, लेकिन आंदोलनकारियोंको मंचसे वैक्सीन लेनेसे मना किया जा रहा है। यह बात अलग है कि भारतीय किसान यूनियन एकता उगराहांके अध्यक्ष जोगेंद्र सिंह उगराहां कोरोना संक्रमित हो गये तो उनके संघटनके फेसबुक पेजपर अपील जारी हो गयी कि जिनमें लक्षण दिखें वे अपनी जांच जरूर करा लें। अब आंदोलनकारी किसकी बात मानें, यह बड़ा यक्ष प्रश्न बना हुआ है। आंदोलनकारी नेताओंके बीच मतभेद केवल वैक्सीन अथवा कोरोनाको लेकर ही नहीं है। इन नेताओंकी राजनीतिक निष्ठा भी अलग-अलग है जिससे तमाम किसान नेताओंमें अंतर्कलह देखनेको मिल रहा है। किसानोंके हितोंके नामपर नये कृषि कानूनके विरोधमें आंदोलन कर रहे किसान नेता जब देशद्रोहके आरोपमें बंद शरजील इमाम और उमर खालिद सहित कई लोगोंकी रिहाई की मांग करने लगे तो आंदोलनकी हकीकत समझी जा सकती है। यह और बात है कि कुछ नेता इसे सही ठहरा रहे हैं तो दूसरी तरफ भारतीय किसान यूनियन (टिकैत) के राष्ट्रीय अध्यक्ष राकेश टिकैतके बड़े भाई नरेश टिकैत स्पष्ट कहते हैं कि इस तरहकी किसी मांगका समर्थन हम नहीं करते हैं। किसान नेताओंमें गुटबाजी इसलिए भी चरमपर है क्योंकि अलग-अलग राज्योंके किसान नेता आंदोलनपर अपनी पकड़ कमजोर नहीं होने देना चाहते हैं। इसीलिए हाल फिलहालतक राकेश टिकैतके पीछे खड़े नजर आ रहे पंजाब और हरियाणाके नेताओंने एक बार फिर राकेश टिकैतसे दूरी बना ली है।

गौरतलब है कि मोदी सरकार द्वारा लाये गये नये कृषि कानूनके खिलाफ किसान आंदोलनने पंजाब और हरियाणासे रफ्तार पकड़ी थी। यहांके किसान नये कृषि कानूनको वापस लिये जानेकी मांग कर रहे थे। आंदोलन इतना उग्र हुआ कि मोदी सरकार भी एक बार बैकफुट पर आ गयी थी। उसने आंदोलनकारी किसानोंसे कई दौर की बात भी की। इतना ही नहीं मोदी सरकार डेढ़ वर्षके लिए नये कृषि कानूनको लागू नहीं करनेके लिए भी तैयार हो गयी थी। परंतु किसान पूराका पूरा कानून ही रद करवानेपर अड़े थे। इसी बीच भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) भी आंदोलनमें तेजीसे आगे बढऩेके लिए हाथ-पैर मारने लगे। भाकियू नेता राकेश टिकैत आंदोलनमें कूद जरूर पड़े थे लेकिन आंदोलनकी अगुवाई पंजाब और हरियाणाके ही किसान संभाले हुए थे, यह सब २६ जनवरीतक चलता रहा, लेकिन २६ जनवरीको दिल्लीमें हुए उपद्रवके बाद पंजाब और हरियाणाके किसान नेता दबावमें आ गये। आंदोलन कमजोर पडऩे लगा था। तभी यूपी पुलिसकी कथित रूपसे एक छोटी-सी चूकने हवाका रूख बदल दिया। गाजीपुर बार्डरपर धरनेपर बैठे राकेश टिकैतने इस चूकके सहारे अपने आंसुओंके सैलाबसे कमजोर पड़ रहे आंदोलनमें नई जान फूंक दी। इसके बाद पंजाब-हरियाणाके किसान भी उनके पीछे हो लिये लेकिन यह सब बहुत समयतक नहीं चल पाया। पंजाब और हरियाणाके किसान नेता फिरसे आंदोलनका नेतृत्व करनेको बेचैन हो रहे थे। इसीके चलते किसान आंदोलनमें दरार पड़ गयी। आंदोलनमें दरार पड़ी तो मोदी सरकारने भी तेवर बदल लिये।

इतना सब होनेके बाद भी राकेश टिकैत गद्गद थे। इसकी वजह थी आंदोलनमें उनका कद काफी बढ़ गया था। वर्ना इससे पूर्व संयुक्त किसान मोर्चेकी सात सदस्यीय कोर कमेटीमें टिकैतके संघटनका कोई प्रतिनिधि तक नहीं था। बादमें कमेटीको नौ सदस्यीय किया गया और टिकैतकी यूनियनको प्रतिनिधित्व दिया गया। पंजाबके संघटनोंको ऐसा करना इसलिए भी जरूरी लगा क्योंकि अधिकतर आंदोलनकारी वापस लौटने लगे थे। पंजाबके आंदोलनकारी नेताओंकी बात करें तो गणतंत्र दिवसपर दिल्लीमें हुए उपद्रवके बाद सरवन सिंह पंधेरसे अन्य नेताओंने दूरी बना ली थी क्योंकि उनके लोगोंपर आरोप है कि वे दिल्लीमें तय रूटपर न जाकर अलग रूटपर गये और हिंसाका कारण बने। बलबीर सिंह राजेवालसे भी हरियाणाके लोग तभी खफा हो गये थे जब उन्होंने दिल्लीमें हिंसाका मिथ्यारोप हरियाणवी युवाओंपर जड़ दिया था। आज स्थिति यह है कि टिकैत धरना स्थलपर डेरा डालनेकी बजाय चुनावी राज्योंमें घूम रहे हैं।

शिवकुमार शर्मा उर्फ कक्का जी मध्य प्रदेश जा चुके हैं। चढ़ूनीको गंभीरतासे लिया नहीं जा रहा। जो बचे हैं एक खास वामपंथी विचारधाराके हैं। वे सड़कोंपर पक्के निर्माण और बोरिंग कर सरकारसे टकराव मोल लेना चाहते हैं ताकि सरकार बल प्रयोग करे और वे अपने कुत्सित इरादोंमें कामयाब हो जायें। यह कहना गलत नहीं होगा कि अब किसान आंदोलन रास्ता भटक चुका है। किसान नेताओंके बड़बोलेपन और अडिय़ल रवेयेके कारण ही आंदोलनका यह हश्र हुआ है। अन्यथा मोदी सरकार तो जितना झुक सकती थी, उतना झुक गयी थी। लेकिन आंदोलनकारियोंको सरकारसे अधिक विपक्षपर भरोसा था, जिसके कारण आंदोलनकारी किसान खाली हाथ लौटनेको मजबूर हो गये।