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Emergency in India: आपातकाल के दमन का वह काला दौर, जब 1 लाख से ज्यादा लोगों ने झेली जेल की यातनाएं


हरेन्द्र प्रताप। हमारा देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव वर्ष मना रहा है। यानी हमारा लोकतंत्र अपनी यात्र के 75वें वर्ष में है। परंतु अब तक की यह यात्रा इतनी आसान भी नहीं रही है। इस पर 21 माह का एक भयानक एवं डरावने आपातकाल का ग्रहण लगा था, जिसे हटाने के लिए देश की जनता को संघर्ष करना पड़ा। इस संघर्ष के दौर में लगभग 25 हजार लोग मीसा (मेंटेनेंस आफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट) यानी आंतरिक सुरक्षा अधिनियम के तहत बंद किए गए और एक लाख से ज्यादा लोगों ने जेल की यातना झेली थी। यह ग्रहण तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के तानाशाही चरित्र का प्रकटीकरण था।

लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी से पराजित राजनारायण ने इंदिरा के निर्वाचन के खिलाफ याचिका दायर की थी। चार वर्ष की सुनवाई के बाद 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी के निर्वाचन को अवैध घोषित करते हुए उन्हें छह वर्ष तक किसी भी चुनाव में खड़े होने के अयोग्य घोषित कर दिया। उसी दिन गुजरात विधानसभा के चुनाव परिणाम घोषित हुए, जहां कांग्रेस पराजित हो गई।

उस दौर में बिहार में जारी आंदोलन का नेतृत्व कर रहे जेपी यानी जयप्रकाश नारायण 12 जून 1975 को आरा में थे। पत्रकारों ने जेपी से पूछा, ‘इंदिरा गांधी अब क्या करेंगी?’ जेपी ने कहा, अब वह त्यागपत्र देंगी। एक वरिष्ठ पत्रकार बार-बार पूछ रहे थे, ‘अगर त्यागपत्र नहीं दिया तो क्या होगा?’ जेपी ने कहा, ‘यदि वह त्यागपत्र नहीं देंगी तो अनर्थ हो जाएगा।’ जेपी ने जिस अनर्थ की ओर इंगित किया था, 25 जून की रात को वह सामने आ गया। दरअसल उसी दिन विपक्ष ने दिल्ली की एक सभा में इंदिरा गांधी के त्यागपत्र को लेकर 29 जून से राष्ट्रपति भवन के सामने धरना देने तथा देशभर में सभाएं और जुलूस आयोजित करने की घोषणा कर दी थी। ऐसे में बिना कैबिनेट में प्रस्ताव लाए इंदिरा गांधी सिद्धार्थ शंकर रे के साथ तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से 25 जून को रात में पौने बारह बजे मिलीं और राष्ट्रपति ने आपातकाल लागू हो गया। इस तरह से जनता को संविधान द्वारा प्राप्त मौलिक अधिकार को समाप्त कर दिया गया।

26 जून को आकाशवाणी पर इंदिरा गांधी ने राष्ट्र के नाम संदेश में कहा, ‘राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 352 के अंतर्गत आंतरिक आपातकाल की घोषणा कर दी है।’ दिल्ली से प्रकाशित होने वाले अधिकांश बड़े अखबार आईटीओ के पास बहादुर शाह जफर मार्ग से प्रकाशित होते थे। उस क्षेत्र की बिजली आपूर्ति दो दिनों तक बाधित रही। कनाट प्लेस से प्रकाशित होने वाले तीन प्रमुख अखबारों की बिजली तकनीकी कारणों से नहीं काटी जा सकी। गलती से इंदिरा गांधी के आलोचक अंग्रेजी दैनिक ‘मदरलैंड’ की बिजली नहीं कट पाई थी। उसके संपादक को बंदी बनाए जाने के बावजूद अखबार ने दोपहर में दो पन्ने का एक परिशिष्ट प्रकाशित किया जिसमें आपातकाल की घोषणा और नेताओं की गिरफ्तारी आदि के समाचार थे।

भारतीय मीडिया के अलावा विदेशी मीडिया पर नियंत्रण के लिए उनके भी संपर्क लाइनों को काट दिया गया। जो अखबार सरकार के विरोधी थे, उनके प्रकाशन पर पाबंदी लगा दी गई। कहीं अगर छप गए थे तो उन्हें जब्त कर लिया गया। 26 जून 1975 को हुई कैबिनेट की बैठक में इंदिरा ने ‘मीडिया’ के संबंध में व्यापक नीति निर्धारित की जिसमें मुख्य रूप से प्रेस परिषद को समाप्त करने, सभी समाचार सेवा समितियों को मिलाकर एक करने, विज्ञापन नीति का पुनर्निधारण, असहमति व्यक्त करने वाले पत्रकारों को दी गई सरकारी आवास सुविधा वापस लेने आदि की चर्चा की गई थी। इसी बैठक में ‘सेंसरशिप’ को पूरे देश में कड़ाई से लागू करने का अनुमोदन किया गया। जेपी, मोरारजी देसाई, राजनारायण, चौधरी चरण सिंह आदि नेताओं को रात में ही बंदी बना लिया गया। कांग्रेस के भी कई नेताओं- रामधन, कृष्णकांत और चंद्रशेखर को बंदी बना लिया गया। अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मधु दंडवते और श्यामनंदन मिश्र संसदीय समिति की बैठक में भाग लेने बैंग्लोर (अब बेंगलुरु) गए हुए थे, उन्हें वहीं घेर लिया गया।

वर्ष 1975 में आज की तरह न तो इतने टीवी चैनल थे और न ही इंटरनेट मीडिया था। समाचार पत्र और पत्रिकाओं के अलावा रेडियो से समाचार प्राप्त होते थे। चूंकि 25 जून की रात में ही संचार माध्यमों पर तानाशाही का आक्रमण हो गया था, अत: जनता तक यह संदेश जब तक पहुंचा, तब तक हजारों नेता बंदी बना लिए गए थे। समाचार पत्रों को लोकतंत्र का चौथा आधार स्तंभ कहा गया है। ये जनतंत्र के प्राणरक्षक हैं। सरकार की स्वस्थ आलोचना से लोकतंत्र सशक्त होता है। पत्रकार की राजनीतिक प्रतिबद्धता भले ही कुछ भी हो पर पत्रकारिता से यह अपेक्षा की जाती है कि वह निष्पक्ष और स्वतंत्र रहे। अंधविरोधी होकर कुछ पत्रकार आजकल ‘गोदी मीडिया’ शब्द गढ़ कर यह अफवाह फैला रहे हैं कि ‘देश में तानाशाही का खतरा मंडरा रहा है, सरकार अपनी आलोचना सहन नहीं कर पा रही है।’

जहां तक देश पर तानाशाही थोपे जाने का सवाल है, तो उसके आसार नहीं के बराबर हैं, क्योंकि यह देश अब पहले से ज्यादा जागरूक हो गया है और इंदिरा गांधी तथा उनके पुत्र संजय गांधी का उदाहरण सबके सामने है, जब आपातकाल के बाद वर्ष 1977 में हुए लोकसभा के चुनाव में दोनों ही बुरी तरह पराजित हुए थे। आजकल टीवी चैनलों पर आयोजित चर्चा में राजनीतिक दलों के अलावा विषय के विशेषज्ञ भी बुलाए जाते हैं जहां सरकार के समर्थन एवं विरोध में लोग अपनी बातें रखते हैं। अब तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कुछ लोग नाजायज फायदा उठाकर ‘झूठ और अफवाह’ को ‘वायरल’ कर देश में अराजकता और हिंसा फैलाने का काम कर रहे हैं जिस पर राष्ट्रहित में अंकुश लगाने की आवश्यकता है।

लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हर व्यक्ति को 25 जून की तिथि याद रखनी चाहिए। यह वह दिन है जब विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को बंदी बना लिया गया था। आपातकाल स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे काला अध्याय है, जिस समय लोकतंत्र के लिए उठने वाली हर आवाज को निर्ममता से कुचल दिया गया था। हमें यह जानना चाहिए कि आपातकाल के दौर में लोकतांत्रिक मूल्यों का कितना हनन किया गया था। यह भी समझना चाहिए कि कुछ विशेष वर्ग के लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर वर्तमान मोदी सरकार के विरुद्ध किस तरह षड्यंत्र रचते रहते हैं