योगेश कुमार सोनी
कोरोना कालने पर्यावरणकी अहमियतको बहुत अच्छे तरीकेसे समझाया। लोगोंको लगता था पर्यावरणको बढ़ावा देना सिर्फ कहनेके लिए ही बातें हैं आज वह भली-भांति इसकी गम्भीरता समझ गये। पहली बार ऐसा हुआ कि आक्सीजनकी लाइनमें लगे और यह समझ पाये कि पेड़-पौधे मानव जीवनके पर्यायवाची है। दुनियाको इस बातको समझानेके लिए एवं पर्यावरणको सुरक्षित करनेके लिए वर्ष १९७२ में संयुक्त राष्ट्र संघने स्वीडनमें विश्वके तमाम देशोंको एक मंचपर लाकर पहला पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किया था। इसमें ११९ देश सम्मिलित हुए और पहली बार एक ही उद्देश्यके लिए इतने देश एकत्रित हुए थे। विश्वमें लगातार बढ़ रहे प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंगसे होनेवाली हानिकी चिन्ताओंकी वजहसे विश्व पर्यावरण दिवसकी शुरुआत की गयी थी। इसके दो वर्ष बाद हमारे देशमें विश्व पर्यावरणकी नींव ५ जून १९७४ में रखी गयी थी। भारतकी पूर्व प्रधान मंत्री इंदिरा गांधीने पर्यावरण दिवसपर भारतकी प्रकृति और पर्यावरणके प्रति चिंता जाहिर करते हुए आग्रह किया था कि पर्यावरणको समझें एवं इससे प्यार करें चूंकि भारत जैसे देशमें इसका एक अलग ही महत्व है। वैसे तो विश्वभरमें कई महत्वपूर्ण दिवस मनाये जाते हैं लेकिन कुछ दिनोंका बेहद अहम मुद्दोंकी गम्भीरताको समझानेके लिए निर्माण हुआ था, इनमेंसे विश्व पर्यावरण दिवस भी एक है। मौजूदा स्थितिमें हाईटेक होनेके लिए हर रोज विश्वका एक सकारात्मक दिशाकी ओर निर्माण हो रहा है जिसमें भारतका नाम भी बेहद चुनिंदा देशोंमें गिना जाना लगा। लेकिन हम अन्य देशोंकी अपेक्षा पर्यावरणको बचाने एवं संभालनेमें उतने सक्षम नही हैं जितनेकी हमें जरूरत हैं और उम्मीद भी। दरअसल मामला यह है कि लगातार बढ़ रही जनसंख्याको व्यवस्थित करनेके लिए हम पर्यावरणका विनाश करते हुए आगे बढ़ रहे हैं। दुनियाके साथ कदमसे कदम मिलाते हुए और हाईटेक दुनियाका निर्माण करना गलत नहीं हैं लेकिन मानव जीवनकी सबसे अहम एवं मूलभूत जरूरतको दरकिनार करके तरक्की करना अपराध-सा लगता है। हमारे यहां जनसंख्याका बेहद तेजीसे बढऩा जारी है तो उस आधारपर सरकारको जनताके लिए जगहकी व्यवस्था करनी होती है जिसके चलते जंगल एवं पर्यावरण बर्बाद किया जा रहा है इसके अलावा प्रदूषण हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है। देशकी तरक्की एवं जनताकी जरूरतके लिए ऐसे मुद्दोंकी गम्भीरता न समझना मानव जीवनपर ही भारी पड़ रहा है। मनुष्यकी शहरीकरणकी भूखने प्रकृतिको इतनी हानि पहुंचा दी कि उसको यह मालूम ही नहीं पड़ा कि वह कब कालके गर्भमें प्रवेश कर गया। यदि महानगरोंकी जीवनशैलीकी चर्चा करें तो यहां पिछले दो दशकों कम आयुमें होनेवाली मौतोंके आंकडोंने चौंका दिया। मनुष्यकी आयुका घटना लगातार जारी है। इनसानकी उम्र करीब सौ वर्ष होती थी लेकिन आजके दौरमें साठ सालपर आकर सीमित रह गयी।
वैज्ञानिकोंके अनुसार लगातार हो रही आपदाओंके लिए प्राकृतिक संसाधनोंके बेहद अधिक इस्तेमालको जिम्मेदार ठहराया है। उनका मानना है कि आज स्थितिके आधारपर हमारी धरती अपने भारसे कहीं अधिक भार वहन कर रही है। यदि यही हाल रहा तो अगले दशकभरमें धरती रहने लायक नहीं बचेगी। लेकिन मनुष्य आज भी सही राहपर चले तो वह अपना भविष्य सुधार सकता है। गौरतलब है कि कोरोनाकी वजहसे लगे दोनों बार लाकडाउनके दौरान वातावरण इतना शुद्ध हो जाता था कि ऐसा हाल करीब तीन दशक पूर्व देखा जाता था। महानगरोंमें सांस लेनेमें भारी तकलीफ होती थी लेकिन इस दौरान इस तरहकी किसी समस्याने परेशान नहीं किया। पेड़-पौधे फिरसे हरे-भरे होने लगे साथ ही पक्षियोंका भी फिरसे आगमन हुआ। फैक्टरियां एवं गाडिय़ां न चलनेसे आसमान इतना साफ दिखने लगा कि मानो किसी पहाड़ी क्षेत्रमें आ गये हों। इन घटनाओंसे एक बात तो समझमें आ गयी कि यदि सरकार कोई ऐसी नीति बना दे जिससे किसी आपदाके कुछ दिन या समयका लाकडाउन कर दें तो और वह जनता आरामसे मान ले तो हम दोबारासे प्रकृतिको संरक्षित कर सकते हैं। जब हम एक वायरसके डरसे स्वयंको इतने लम्बे समयतक कैद कर सकते हैं तो क्या सप्ताहमें एक दिन या कुछ समयके लिए अपने आपको मना नहीं सकते। चूंकि प्रकृतिपर होनेवाले अत्याचारको हम तभी नियंत्रित कर पायंगे जब हम एक साथ सारी गतिविधियोंको रोक दें, जैसा लाकडाउनके दौरान हुआ। शहरोंमें यदि किसीकी सत्तर वर्षमें मृत्यु हो जाय तो लोग कहते हैं कि सही उम्रतक जी कर गये हैं।
इस तरहकी बातोंसे ऐसा लगता है कि महानगरवासियोंने स्वयं भी यह ही ठान और मान लिया कि वह कम आयुतक ही जीना चाहते हैं। कम जीना है यह तो उनको पता चल गया लेकिन वह इस सुधारकी ओर नहीं जाना चाहते। लेकिन जरूरत है वह अपनी संचालन प्रक्रियामें थोड़ा-सा बदलाव कर अपना जीवनको सुरक्षित करें। कम आयुमें हार्टअटैक, मधुमेह एवं ब्लड प्रेशर जैसी बीमारियां एवं अब कोरोनाकी वजहसे हमारा भविष्य दांवपर लग रहा है। हर रोज न जाने कितने परिवार बर्बाद हो जाते हैं। वैश्विक सरकारोंके माध्यमसे पर्यावरणके प्रति जागरूकता और प्रकृति और पृथ्वीके संरक्षणके लिए तमाम कार्यक्रमोंका आयोजन किया जाता है। हमारे देशमें भी इसको बेहद गंभीर मुद्दा माना जा रहा है लेकिन कुछ देर ही जागरूक होकर फिर पुराने ढर्रेपर आ जाते हैं जिससे हम सही दिशापर नहीं आ पा रहे हैं। इस बातमें कोई दो राय नहीं हैं कि सरकार ऐसे मामलोंमें एक बड़ा बजट पारित है करती है एवं इसके प्रति गम्भीर भी रहती हैं। इसके लिए केन्द्र एवं राज्य स्तरपर विभाग कार्यरत भी हैं लेकिन हम उतनी संजीदगीसे इस बातकी गम्भीरता नहीं समझ पा रहे जितनेकी जरूरत है। यदि हम आज भी छोटी-छोटी चीजोंको समझकर उसपर अमल करना शुरू कर दें तो निश्चित तौरपर हम अपनी आनेवाली पीढ़ीको स्वस्थ जीवन दे सकते हैं।