सम्पादकीय

गुरुका मार्गदर्शन


ओशो

क्या गुरुका मार्गदर्शन अनिवार्य है। मार्गदर्शन अनिवार्य है ऐसा हमें लगता है, लेकिन मार्गदर्शन सबीज हो सकता है और मार्गदर्शन निर्बीज हो सकता है। मार्गदर्शन ऐसा हो सकता है कि उससे मनमें विचार, कल्पनाएं और धारणाएं पकड़ जायं और तुम्हारे सब विचार तुमसे छिन जायं, अलग हो जायं। जो व्यक्ति कहता है, मैं मार्गदर्शन दूंगा उससे बहुत डर है कि वह तुम्हें विचार पकड़ा दे। जो व्यक्ति कहता है, मैं कोई मार्गदर्शक नहीं हूं, उससे संभावना है कि तुम्हारे सब विचार छीन ले। जो कहता है मैं तुम्हारा गुरु हूं, बहुत संभावना है कि वह तुम्हारे चित्तमें बैठ जाय। जो कहता है मैं गुरु नहीं हूं, राह चलते रास्तेपर हमें मिल गये हैं। तुमने पूछा है कि यह रास्ता कहां जाता है, मैं जानता हूं, मैं कहता हूं कि यहां जाता है। बस इससे ज्यादा कोई संबंध नहीं है। तुम कभी लौट कर मुझे धन्यवाद भी देना, इसका भी सवाल नहीं है। बस बात यहीं खत्म हो गयी है। मार्गदर्शन यदि निर्बीज हो तो मार्गदर्शन नहीं होगा वहां। मार्गदर्शन यदि सबीज हो तो मार्गदर्शक बड़ा प्रबल होगा, बल्कि मार्गदर्शक कहेगा कि पहले मार्गदर्शकको मानो तो फिर मार्गदर्शन है। कहेगा पहले गुरु, फिर दीक्षा है। कहेगा पहले मुझे स्वीकार करो, तब ज्ञान। लेकिन जहां दूसरा जो निर्बीज मार्गदर्शन है, शब्दकी तकलीफ है इसलिए ऐसा उपयोग करता हूं, जो निर्बीज मार्गदर्शन है, जो सीडलेस टीचर है, वह कहेगा, पहली तो बात यह रही कि अब मैं गुरु नहीं हूं। यानी पहले तो यह तय कर लो कि गुरु-शिष्यका संबंध न बनाओगे। पहले यह तय कर लो कि मेरी बात तुम्हारे लिए बीज नहीं बनेगी। पहले तो यह तय कर लो कि मुझे पकड़ नहीं लोगे, मेरे साथ क्लिगिंग नहीं बना लोगो। पहले तो यह तय कर लो कि तुम्हारे मनमें मेरे लिए कोई जगह न होगी। तब फिर आगे बात चल सकती है। इन दोनोंमें फर्क पड़ेगा। इसलिए कठिनाई होती है कि मार्गदर्शन तो चाहिए ही नयेपर यह कहकर भी मार्गदर्शन होता है और तब मार्गदर्शनके सब खतरे कट जाते हैं और जो कहता है कि गुरु बिन तो ज्ञान न होगा, तब मार्गदर्शनके सब खतरे पॉजिटिवली मौजूद हो जाते हैं तो जो गुरु अपनी गुरुडमको इनकार करनेको राजी नहीं है, वह गुरु होनेकी योग्यता खो देता है। जो गुरु अपने गुरुत्वको सबसे पहले काट डालता है, वह अपने गुरु होनेकी योग्यता देता है। अब यह बड़ा उलटा है, लेकिन ऐसा है। ऐसा है कि इस कमरेमें जो आदमी अपनी श्रेष्ठताकी बार-बार खबर देता है, जानना कि उसका चित्तहीन है। स्वाभवत: नहीं तो वह खबर नहीं देगा और जो आदमी एक कोनेमें चुपचाप बैठ जाता है, पता ही नहीं चलता कि वह है भी या नहीं है, जानना कि श्रेष्ठता इतनी सुनिश्चित है कि उसकी घोषणा व्यर्थ है। यह जो सारी कठिनाई है जीवनकी वह यह है कि यहां उलटा हो जाता है रोज। इसलिए जो आदमी कहेगा कि मैं गुरु हूं, जानना कि वह गुरु होनेके योग्य नहीं और जो आदमी कहे गुरु सब व्यर्थ है तो जानना कि इसी आदमीसे कुछ मिल सकता है। क्योंकि गुरुता ही इतनी गहरी है कि वह घोषण व्यर्थ है। जो कहता है मैं गुरु हूं, उसे गुरु मान लेते हैं और जो कहता है मैं गुरु नहीं हूं तो हम कहते हैं ठीक है। बात खत्म हो गयी और अब सीखनेको भी क्या है।