डा. समन्वय नंद
कम्युनिस्ट चीनके सरकार द्वारा नियंत्रित समाचारपत्र ग्लोबल टाइम्समें चीनी सैनिकोंके बारेमें विस्तृत ब्योरा दिया गया है तथा यह बताया गया है कि इसमेंसे चार सैनिकोंको मरणोपरांत चीनी सरकार द्वारा सम्मानित किया गया है। गलवान घाटीमें हुए संघर्षमें भारतके बीस सैनिकोंने बलिदान दिया था। भारत एवं विश्वके अनेक सैन्य विशेषज्ञोंने इस संघर्षमें चीनी सेनाको भारी नुकसान होनेकी बात कही थी । इसमें काफी अधिक चीनी सेनाके सैनिकोंकी मारे जानेकी बात विशेषज्ञ कर रहे थे। चीन इसमें किसी भी सैनिकके मारे जानेकी बात अबतक स्वीकार कर नहीं रहा था। वैसे देखा जाय तो चीनने इसमें अपने सैनिक मारे जानेकी बात न स्वीकार कर रहा था और न ही इसका खंडन कर रहा था। इसलिए इसपर भ्रमकी स्थिति थी। पहली बार ऐसा हुआ कि चीनने सार्वजनिक रूपसे इस बातको स्वीकार किया है कि उस संघर्षमें उसके सैनिक मारे गये हैं। यह बात स्वीकार करनेमें उसे आठ माहका समय लग गया। चीन जो बोल रहा है कि उसके पांच लोग ही मारे गये यह सही या नहीं है। चीनके ट्रैक रिकार्डको देखते हुए वह इस बारेमें सही आंकडा विश्वके सामने देगा इसे यकीन करना कठिन है। इस संघर्षपर नजर रखनेवाले भारतीय एवं विश्वके अन्य सैन्य विशेषज्ञ इसमें चीनको भारी नुकसान होनेकी बात कह चुके हैं। लेकिन चीन सभी सचाइयोंको मान लेगा ऐसा लगता नहीं है। काफी लोगोंको लगता होगा कि चीन अपने सैनिकोंके मारे जानेकी बातको छिपाना कैसा है। भारत जैसे देशमें लोगोंको लिए एक आश्चर्यसे भरा प्रश्न है। इस प्रश्नपर उत्तर खोजनेसे पहले हमें इस बातपर ध्यान देना होगा कि चीन कोई लोकतंत्र नहीं है और वह विशुद्ध रूपसे कम्युनिस्ट देश है। वहांकी व्यवस्था लोकतांत्रिक नहीं, बल्कि कम्युनिस्ट हैं। अत: वहांपर समाचारपत्रों एवं संचार माध्यमोंपर रोक है। चीनी सरकार यानी कम्युनिस्ट चीनकी स्टेट नियंत्रित मीडिया वहां काम करती है। अर्थात वहां कोई आम आदमी या संस्था संचार माध्यम चला नहीं सकता चीनी सरकार ही मीडिया चला सकती है। कौन-सी सूचना जानी है और कौन-सी सूचना नहीं जानी है यह सरकार ही निर्धारित करती है। वहां कोई विदेशी सोशल मीडियाके मंच भी नहीं है। समस्त प्रकारके सोशल मीडियाके प्लैटफार्म चीनमें प्रतिबंधित है। चीन सरकार द्वारा तैयार सोशल मीडिया प्लेटफार्म ही वहांके नागरिक इस्तमाल करते हैं। इसमें कांटेंटको भी चीनी कम्युनिस्ट सरकार नियंत्रित करती है।
१९६२ में भारतके साथ हुए युद्धमें भारत भले ही पराजित हो गया था लेकिन भारतके जाबांज सैनिकोंने चीनी सेनाके अनेक सैनिकोंको मौतके घाट उतार दिया था। चीनने इसमें उसके कितने सैनिक मारे गये इसका कभी सरकारी तौरपर खुलासा नहीं किया। चीनकी वर्तमान पीढ़ी इस बातसे अंजान है कि १९६२ में भारतके साथ चीनका युद्ध हुआ था और उसके देशके काफी सैनिक इसमें मारे गये थे। इसीसे सूचनाओं के प्रसारणपर चीनका कितना नियंत्रण है इसका अन्दाजा इसी बातसे लगाया जा सकता है। लेकिन हालके दिनोंमें दुनिया खुल-सी गयी है और चीनी युवा पढऩेके लिए एवं अन्य कामोंके लिए बाहरके देशोंमें आ रहे हैं। इस कारण बाहरी स्रोतोंसे उन्हें कुछ जानकारियां मिलने लगी है। शायद यही कारण है कि चीनको आठ माह बाद अपने सैनिकोंकी मारे जानेकी बात (भले ही कम संख्यामें हो) स्वीकार करनी पड़ी है।उपरोक्त बातोंसे यह स्पष्ट है कि चीन द्वारा जब भी कोई दावा किया जाता है तो उसकी किसी अन्य किसी इंडिपेंडेंट स्रोतसे पुष्टि करना संभव नहीं है। इसलिए चीन द्वारा अपने देशमें तेजीसे विकासकी बात हो या फिर उसकी सैन्य शक्तिकी बात हो या फिर अन्य विषयोंपर जो दावा किया जाता है उसपर प्रश्नचिह्न खड़ा होना स्वाभविक है।
चीन अपने आपको एक विशाल सैन्य शक्ति संपन्न देशके रूपमें दावा एवं प्रचारित करता रहता है। १९६२ में भारतको चीनसे इस कारण पराजित होना पड़ा था क्योंकि भारतकी किसी प्रकारकी तैयारी नहीं थी। चीन जब भारतके खिलाफ युद्धकी तैयारी कर रहा था तब तत्कालीन भारतका नेतृत्व एवं कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी हिन्दी-चीनी भाई-भाई नारेपर नाचनेमें व्यस्त थे। इसके बावजूद यानी बिना तैयारीके भी भारतके जाबांज सैनिकोंने चीनकी काफी नुकसान पहुंचाया था। इसके बाद चीनने किसी प्रकारकी लड़ाई नहीं लड़ी। वियतनाममें चीनको भारी नुकसान उठाना पड़ा। लेकिन इसके बावजूद भी चीन अपने आपको काफी शक्तिशाली सैन्य शक्तिके रूपमें प्रचारित करता रहता है। भारत एवं कुछ अन्य देशोंमें उसके कुछ समर्थक इस बातको बतानेमें लगे रहते थे। चीन मनोवैज्ञानिक रूपसे दूसरे देशोंके लोगोंको भयभीत रखना चाहता है। क्योंकि चीनके दावे झूठे एवं अविश्वसनीय होती हैं, इस कारण वह अपने प्रोपांगडाके लिए भारी धनराशि खर्च करता है। पिछले साल अमेरिकामें चीनकी इस रणनीतिके बारेमें बड़ा खुलासा हुआ था। यूएस डिपार्टमेंट आफ जस्टिसमें पिछले साल कुछ चौकानेवाले दस्ताबेज प्रदान किये गये थे। उसमें इस बातका उल्लेख था कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टीके नियंत्रणाधीन चाइना डेलीकी ओरसे २०१६ नवंबरके बादसे ही विभिन्न अमेरिकी समाचारपत्रोंको १९ मिलियन अमेरिकी डालर प्रदान किया गया है। भारतमें भी ऐसे अनेक एंकर एवं रणनीतिक विश्लेषक मिलते हैं जो दिन-रात अखबारोंमें एवं टीवी शोमें चीनकी प्रशंसा करते नहीं थकते और भारतको मनोवैज्ञानिक रूपसे परास्त करनेका प्रयास करते देखे जा सकते हैं। दुर्भाग्यकी बात यह है कि भारतीय विश्वविद्यालयों एवं अन्य संस्थानोंमें जो शोध होता है उसमें चीन द्वारा किये जानेवाले अविश्वसनीय दावोंको प्रामाणिक मानकर आगेका काम किया जाता है। आवश्यकता इस बातकी है कि चीनके झूठे दावोंके बजाय प्रामाणिक तथ्योंको शोध कार्यको आगे बढ़ाया जाय।