डा. भरत झुनझुनवाला
भारतका विशाल भू-भाग एक विशाल चट्टानपर स्थित है जिसे इंडियन प्लेट कहा जाता है। पृथ्वीके २४ घंटे घूमनेसे यह चट्टान धीरे-धीरे उत्तरकी ओर खिसक रही है। उत्तरमें इसे तिब्बतकी प्लेटसे टकराना पड़ता है। इन दोनोंके टकरावसे हिमालयमें विशेषकर उत्तराखंडमें, लगातार भूकम्प आते रहे हैं।
ऋषिगंगामें हुई भयंकर आपदाका कारण भी यही है। ऊपर ग्लेशियरके टूटनेसे जो पानी और मलबा नदीमें आया उसको नदी सहज ही गंगासागरतक ढकेल कर ले जाती लेकिन वह ऐसा न कर सकी क्योंकि पहले उसका रास्ता रोका ऋषिगंगा जलविद्युत् परियोजनाने, जिसे ऋषि गंगाने तोड़ा। उसके बाद पानीका रास्ता रोका तपोवन विष्णुगाड जलविद्युत परियोजनाकी बराजने। वह पानी बराजको तोड़ता हुआ आगे बढ़ा। इस प्रकार पहाड़के टूटनेकी सामान्य घटनाने भयंकर रूप धारण कर लिया। यदि उत्तराखंडमें जलविद्युत् परियोजनओंका निर्माण होगा तो ऐसी आपदाएं आती ही रहेंगी।
हिमालयमें पिछले बीस वर्षोंमें भूकम्प न आनेका कारण यह हो सकता है कि टिहरी झीलमें पानीके भरनेसे दोनों प्लेटके बीचमें दबाव पैदा हो गया है जिससे इनका आपसमें टकराना कुछ समयके लिए टल गया है जैसे दो पहलवानोंके बीच एक छोटा बच्चा खड़ा हो जाये तो कुछ क्षणके लिए उनकी कुश्ती बंद हो जाती है। दोनों प्लेटोंके टकरावसे एक ओर हिमालय ऊंचा होता जा रहा है तो दूसरी ओर गंगा इनकी मिट्टीको नीचे ला रही है। हिमालयके ऊपर उठानेमें पहाड़ कमजोर होते जाते हैं और उनकी मिट्टी गंगामें आकर गिरती है। गंगा उस मिट्टीको मैदानी इलकोंतक पहुंचती है। पहाड़ोंमें जो हमें जो घाटीयां दिखायी पड़ती है वह गंगा द्वारा मिट्टीको नीचे ले जानेसे ही बनी है। गंगा द्वारा मिट्टïी नीचे नहीं लायी जाती तो हिमालयका क्षेत्र भी तिब्बतके पठार जैसा दीखता। हरिद्वारसे गंगासागरतकका समतल और उपजाऊ भूखंड भी इसी मिट्टीसे बना है। इसलिए हिमालयपर दो परस्पर विरोधी प्रभाव लगातार पड़ते हैं। एक तरफ इंडियन प्लेटके टकरानेसे यह ऊपर होता है तो दूसरी तरफ गंगा द्वारा इसकी मिट्टी ले जानेसे यह नीचा होता है। इस परिप्रेक्षमें २०१३ में चोराबारी ग्लेशियरका टूटना एवं वर्तमानमें ऋषिगंगा ग्लेशियरका टूटना सामान्य घटनाएं हैं और ऐसी घटनाएं आगे भी निश्चित रूपसे घटती रहेंगी। हमारे भू-वैज्ञानिक इस टूटनको वृक्षारोपण आदिसे रोकनकी फर्जी बात कर रहे हैं।
हिमालयके इस सामान्य चरित्रमें जलविद्युत परियोजनाओंने संकटको बढ़ा दिया है। २०१३ की आपदाके बाद सुप्रीम कोर्टके निर्देशपर पर्यावरण मंत्रालयने एक कमेटी गठित की थी जिसके अध्यक्ष रवि चोपड़ा थे। इस कमेटीने पाया कि २०१३ की आपदामें नुकसान केवल जलविद्युत परियोजनाओंके ऊपर एवं नीचे हुआ था। केदारनाथके नीचे फाटा व्यूंग परियोजनाके कारण मंदाकिनीका बहाव रुक जानेके कारण पीछे एक विशाल तालाब बन गया जिससे सीतापुरका पुल डूब गया और हजारों लोग काल-कलवित हो गये। इसी प्रकार फाटा व्यूंगके नीचे सिंगोली भटवाडी जल विद्युत् परियोजनाके बराज टूटनेके कारण बहता पानी नदीके एक छोरसे तेजीसे निकला और सर्पके आकारमें दोनों किनारोंको तोड़ता हुआ आगे बहा जिससे हजारों लोगोंके मकान पानीमें समा गये। जहां गंगाका खुला बहाव था वहां कोई आपदा नहीं आयी। कमेटीने कहा कि यह आकस्मिक नहीं हो सकता है कि आपदाका नुकसान केवल जलविद्युत् परियोजनाओंके ऊपर और नीचे हुआ है। दरअसल जलविद्युत् परियोजनाओंसे गंगाका मुक्त बहाव बाधित हो जाता है। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि पहाड़ अथवा ग्लेशियरके टूटनेसे जो मलबा और पानी आता है उसको गंगा सहज ही गंगा सागरतक पहुंचा देती है। लेकिन इस कार्यको करनेके लिए उसे खुला रास्ता चाहिए, ताकि वह सरपट बह सके। रास्तेमें कोई रुकावट नहीं जैसे हाथीको सड़कपर चलनेके लिए खुले रास्तेकी जरूरत होती है। लेकिन जलविद्युत् परियोजनाओंके द्वारा गंगाके इस खुले रास्तेपर अवरोध लगा दिया जाता है और यही आपदाको जन्म देता है।
वर्तमानमें ऋषिगंगामें हुई भयंकर आपदाका कारण भी यही है। ऊपर ग्लेशियरके टूटनेसे जो पानी और मलबा नदीमें आया उसको नदी सहज ही गंगासागरतक ढकेल कर ले जाती लेकिन वह ऐसा न कर सकी क्योंकि पहले उसका रास्ता रोका ऋषिगंगा जलविद्युत् परियोजनाने जिसे ऋषि गंगाने तोड़ा। उसके बाद पानीका रास्ता रोका तपोवन विष्णुगाड जलविद्युत परियोजनाकी बराजने। वह पानी बराजको तोड़ता हुआ आगे बढ़ा। इस प्रकार पहाड़के टूटनेकी सामान्य घटनाने भयंकर रूप धारण कर लिया। यदि उत्तराखंडमें जलविद्युत् परियोजनओंका निर्माण होता रहेगा तो ऐसी आपदाएं आती ही रहेंगी क्योंकि पहाड़ोंका टूटना जारी रहेगा और उनका रास्ता बांधों और बराजोंसे बाधित होनेसे संकट पैदा होगा ही।
कौतुहलका विषय यह है कि उत्तराखंडकी सरकार इन जलविद्युत् परियोजनाओंको बनानेमें क्या दिलचस्पी है। इनसे उत्पादित बिजली भी बहुत महंगी पड़ती है। वर्तमानमें नयी जल विद्युत् परियोजनाओंसे उत्पादित बिजली लगभग आठसे दस रुपये प्रति यूनिटमें उत्पादित होती है। मैंने देवप्रयागके पास प्रस्तावित कोटली भेल १बी जलविद्युत् परियोजनाके पर्यावर्णीय प्रभावोंके आर्थिक मूल्यका आकलन किया। मछलियों, बालू, जंगलों, भूस्खलन, मनुष्योंके स्वास्थ और संस्कृति आदिका आर्थिक मूल्य निकाला तो पाया कि पर्यावरणकी हानिके मूल्यको जोडऩेसे कोटलीभेल परियोजना द्वारा उत्पादित बिजलीका उत्पादन मूल्य लगभग १८ रुपये प्रति यूनिट पड़ता है। इनके सामने आज सोलर पावर लगभग तीन रुपयेमें उपलब्ध है। यद्यपि यह बिजली दिनमें उत्पादित होती है लेकिन इसे सुबह और शामकी पीकिंग पावरमें परिवर्तित करनेका खर्च मात्र ५० पैसा प्रति यूनिट आता है। इसलिए आर्थिक दृष्टिसे भी ये जल विद्युत् परियोजनाएं पूर्णतया अप्रासंगिक हो गयी हैं। लेकिन इन योजनाओंको बनानेमें सरकारको १२ प्रतिशत बिजली मुफ्त मिलती है। एक यूनिट बिजलीका दाम चार रुपये मान लें तो उत्तराखंड सरकारको ४८ पैसे मुफ्त मिलते हैं जबकि जनताको १८ रुपये अदा करने पड़ते हैं। इसके अलावा इन परियोजनाओंमें पर्यावरण स्वीकृति, जंगल स्वीकृति, भूमि अधिग्रहण, बिजली लाइसेंस इत्यादिके टंटे होते हैं जिसके कारण उत्तराखंड सरकार इनको बनाना चाहती है।
आश्चर्य यह है कि प्रकृतिका पूजन करनेवाली भारतीय संस्कृति जिसका एक विशेष मंत्र है पृथ्वी: शांति, आप: शांति, वनस्पति: शांति:। वह संस्कृति आज हमारी धरती, पानी और वनस्पतिको नष्ट करनेपर तुली हुई है। इसकी तुलनामें भोगवादी कहलानेवाली अमेरिकी संस्कृतिने तमाम क्रियाशील जलविद्युत् परियोजनाओंको सिर्फ इसलिए हटा दिया है कि वहांके लोग खुली और अविरल बहती हुई नदीमें स्नान करना, नाव चलाना और मछली पकडऩा चाहते थे। समय आ गया है कि हम भी थोड़ा अन्तर्मुखी होकर विचार करें कि हम अपनी संस्कृतिसे कैसे विमुख हो गये हैं। हम क्योंकर केवल विकासका आभास पैदा करनेके लिए अपने पहाड़ों, अपने प्राकृतिक संसाधनों, अपनी संस्कृति और अपनी जनताको कष्ट पहुंचानेको प्रतिबद्ध हैं।