भारतका चुनावी परिदृश्य विगत छह दशकोंसे गठबंधनके प्रयोगोंसे भरा पड़ा है। ये प्रयोग अंतत: पर्सनालिटीके विरुद्ध हमेशासे अपने-अपने दावोंको मजबूत करनेपर आधारित रहे हैं। कभी नेहरू, कभी इंदिरा, कभी सोनिया गांधीके खिलाफ इन्हें बनाया गया है। किन्तु इनकी ऐतिहासिक असफलताएं बताती हैं कि कार्यक्रमके मुकाबले व्यक्तित्वसे टकरावकी राजनीतिकी सफलता संदेहास्पद रहती है। कांग्रेसकी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधनके नेतृत्वकी पात्रतापर जो सवाल उठाये जा रहे हैं। वे जोड़तोड़ आधारित चुनावी राजनीतिमें अपना-अपना हिस्सा बड़ा करनेकी सोचपर आधारित हैं। वे तात्कालिक राजनीतिक बढ़तके हथकंडोंको रणनीति मानते हैं। किसी भी राजनीतिक दलके दूरगामी लक्ष्योंमें तात्कालिक समाधान प्राप्त करना कुछ राजनीतिक दलोंके लिए भले ही सुखकी अनुभूति देते हों किन्तु देशके लिए उससे क्या प्राप्त होगा यह भी जाहिर होना चाहिए।
भारतमें व्यक्तिके समर्थन या व्यक्तिके विरोधपर आधारित गठबंधन छह दशकसे बनते-बिगड़ते रहे हैं। १९६७ में डा. राममनोहर लोहियाने गैर-कांग्रेसवादका नारा दिया था और उसमें धुर दक्षिणपंथी और वामपंथियोंका साथ लिया था। कालांतरमें जिन दक्षिणपंथियोंकी वे आलोचना करते थे उन्हीं दक्षिणपंथियोंने १९७९ के बाद समाजवादी आन्दोलनका भक्षण कर लिया। न्यूनतम साझा कार्यक्रमके सिद्धांतपर बने गठबंधन दुहरी सदस्यताकी कुल्हाड़ीसे लहुलुहान हो गये। ऐसा क्यों हुआ यह समझनेके लिए हमें पीछे जाना होगा। समाजिक न्यायके नारेको लेकर बना गठबंधन मंडल और कमंडलके संघर्षमें धराशायी हो गया। क्योंकि सामाजिक न्यायकी चाहत कागजी थी जबकि सत्ताका लालच आत्मिक। ढाई-ढाई सालकी सत्ताके सौदेपर भी उत्तर प्रदेशके गठबंधन दूसरे दलके ढाई वर्ष प्रारंभ होनेके पहले ही शत्रुभावसे समाप्त हो गये। १९३६ में जब गुलाम भारतकी जनताने कांग्रेसके मंचसे संसदीय चुनावमें भाग लेनेका फैसला लिया, उस चुनावके पूर्व लखनऊ सम्मेलनमें कांग्रेसने सफ-साफ कहा और ध्वनिमतसे जो मार्ग स्वीकार किया था वही आज भी कांग्रेसका रास्ता है। जिसपर उसका नेतृत्व अडिग खड़ा है, भले ही उसपर कमजोरीके आरोप चस्पा करके अन्य राजनीतिक दल अपने-अपने लिए अवसरकी तलाश कर रहे हों। इस अधिवेशनकी अध्यक्षता करते हुए जवाहरलाल नेहरूने कहा था कि कांग्रेसकी नीतिकी तार्किक परिणति केवल यह है कि उसे पद और मंत्रिमंडलसे कुछ लेना-देना नहीं है। इस नीतिसे किसी भी तरह अलग हटनेका मतलब होगा कि भारतीय जनताके शोषणमें ब्रिटिश साम्राज्यवादका सहभागी होना।
गुलामीके दिनोंमें नेहरूका यह वक्तव्य कांग्रेसके दर्शन और सोचको इंगित करता है। मई १९३६ में कांग्रेसके चार लाख ५० हजार सदस्य थे जो इस सम्मेलनकी सफलता और वैचारिक दृढ़ताके बाद दिसंबर १९३६ में छह लाख ३६ हजार हो गये थे। जब कुछ सांप्रदायिक संघटन ब्रिटिश हुकूमतके लिए काम कर रहे थे तब कांग्रेसने इन सम्मेलनोंमें तय किया था कि भारतका एक संविधान होना चाहिए। जिसे बनानेके लिए १९३६ में ही संविधान सभा बनानेका प्रस्ताव कांग्रेसने पारित कर दिया था। उसने विश्व राजनीतिमें भारतकी सोचको सामने रखा और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियोंपर प्रस्ताव रखे। वहीं आंतरिक उन्नतिके लिए कृषि कार्यक्रम घोषित किये जो शोषण और शोषकोंपर भारी प्रहार थे। जब कुछ अंग्रेज समर्थित ग्रुप्स सांप्रदायिक बंटवारेको लेकर बवंडर कर रहे थे तब कांग्रेस भारतकी जनताकी उन्नतिके लिए कार्यक्रम बना रही थी। वह १९३८ में योजना मंडल बना रही थी। हालांकि उन कार्यक्रमोंकी भी आलोचना हुई, विमर्श हुआ और घंटोंकी बहसके बाद जो कार्यक्रम पारित हुए वे कांग्रेसकी दूरगामी सोच और भारत निर्माणकी कल्पनाशीलताको ही दर्शाते हैं।
भारतीय प्रतिभाओंको सिविल सर्विस परीक्षामें शामिल किये जानेसे लेकर, प्रांतीय सेवाओंमें भारतीयोंकी भर्ती, किसानोंपर लगनेवाले जानलेवा टेक्स, सिंचाईपर कर, जंगलकी संपदासे आदिवासियोंको बेदखल करनेके फैसले कांग्रेसकी चिन्ताके विषय थे। कांग्रेसके इसी अधिवेशनमें प्रस्तुत कार्यक्रमोंपर गौर करें। लगान और मालगुजारीमें ५० प्रतिशतकी कमी। अन उपजाऊ जमीनको कृषि भूमि करसे मुक्ति। सामंती उगाही और जबरिया मजदूरीका उन्मूलन। सहकारी खेतीमें बकाया लगानको समाप्त करना। बेदखली कानूनोंको आधुनिक बनाना। किसान संघटनों (किसान सभा) आदिको मान्यता देना। यह दर्शाता है कि कांग्रेस न केवल देशमें विकासके कार्यक्रम बना रही थी, बल्कि विश्व राजनीतिपर पैनी नजर रखते हुए उसपर भी अपना पक्ष सार्वजनिक कर रही थी।
कांग्रेसने जागीरदारी, बेगारी जैसी अंग्रेजोंकी लठैत सेनापर हमला करनेका साहस गोरी हुकूमतके कालमें तो किया ही किंतु उसे आजाद भारतमें लागू भी किया। यह सब बतानेका तात्पर्य यही है कि कांग्रेस पार्टी आज भी पक्ष, प्रतिपक्षके आक्रामक विरोधके बावजूद अपने २० फीसदी वोट बचाये हुए हैं। कटुतम और कुटिल आलोचनाओं और झूठे चरित्र हनन अभियानके बावजूद अपनी नीतियों और राजनीतिक विचारपर स्थिर है। आज भी कांग्रेस व्यक्ति सापेक्षताके बरक्स नीति सापेक्षताके सिद्धांतका पालन करती है। यही उसकी राजनीतिक नेतृत्वकी सबल पात्रता है। जो संघटन चुनावी परिणामोंको अपनी श्रेष्ठताका पैमाना मानते हैं, उन्हें विचार करना पड़ेगा कि कांग्रेसने १९३९ में प्रथम विश्व युद्धमें भारतीय सैनिकोंको बिना भारतीयोंकी राय जाने युद्धमें झोंकनेके विरोधमें देशकी सभी प्रांतीय सरकारोंसे इस्तीफे दे दिये थे। राजीव गांधीने १८४ सीटें जीतनेके बाद भी सविनय सरकार बनानेका अवसर त्याग दिया था। क्या इन कसौटियोंपर गठबंधनके नेतृत्वकी परख होगी या पारिश्रमिकके बदले राजनीतिक हितलाभके सलाहकार इसे कुरबान कर देंगे।