सम्पादकीय

आचरण


श्रीराम शर्मा

आजकी समस्याओंका यही सबसे सही समाधान है कि ऐसे व्यक्तियोंकी संख्या बढ़े जो निजी स्वार्थोंकी अपेक्षा सार्वजनिक स्वार्थोंको प्रधानता दें और इस संदर्भमें अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करनेके लिए वैसी जीवन प्रक्रिया जीकर दिखायें जिसे सत्ताधारियोंके लिए आदर्श माना जा सके। यदि लोगोंमें समाजके हित साधनकी उतनी ही ललक हो जितनी अपने शरीर या परिवारके लिए रहती है तो कोई कारण नहीं कि गयी-गुजरी स्थितिका व्यक्ति भी कुछ ऐसे प्रयत्न करनेमें सफल न हो सके जो लोगोंमें समाज हितके लिए कुछ त्याग एवं श्रम करनेकी अनुकरणीय चेतना न उत्पन्न कर सकें। व्यक्तिगत जीवन क्रमके बारेमें भी यही बात लागू होती है। विचारणीय है कि क्या जिन बातोंको हम सत्य मानते हैं उन्हें आचरणमें लाते हैं और जिन्हें अनुचित समझते हैं उन्हें अपने चिंतन तथा कर्तव्यमेंसे अलग हटाते हैं। इस प्रकारकी दुर्बलता आज व्यापक हो गयी है कि उचितकी उपेक्षा और अनुचितसे सहमतिका अवांछनीय ढर्रा चलता रहता है और उसे बदलनेकी हिम्मत इक_ी नहीं की जाती। यदि सचाईको अपनानेके लिए बहादुरी और हिम्मत इक_ी की जाने लगे तो हर किसीको अपने जीवन क्रममें भारी परिवर्तन लानेकी गुंजाइश दिखायी पड़ेगी। यदि उस गुंजाइशको पूरी करनेके लिए साहसपूर्वक कदम उठाये जायं तो आज नगण्य जैसा दिखनेवाला व्यक्ति कल ही अति प्रभावशाली प्रतिष्ठित और प्रशंसित सज्जनोंकी श्रेणीमें बैठ सकता है और उसके इस प्रयाससे अगणितोंको आत्म सुधारकी प्रेरणा मिल सकती है। शक्तिसे शक्तिको हटा देना उतना कठिन नहीं है जितना कि यह प्रबंध कर लेना कि उस रिक्त स्थानकी पूर्ति कौन करेगा। मध्यकालमें शासकोंके बीच अगणित छोटी-बड़ी लड़ाइयां हुई हैं और उनमेंसे प्रत्येक आक्रमणकारीने कोई न कोई कारण ऐसा जरूर बताया है कि अमुक बुरी बातको या अमुक व्यक्तिको हटाकर सुव्यवस्था लानेके लिए उसने युद्ध आरंभ किया। उस समय यह कथन प्रतिपादन उचित भी लगापर देखा गया कि विजेता बननेके बाद उसने उस पराजितसे भी अधिक अनाचार आरंभ कर दिया, जिसे कि अनाचारी होनेपर अपराधमें आक्रमणका शिकार बनाया गया था। मूल कठिनाई यही है। इस तथ्यमें संदेह नहीं कि प्रभावशाली पदोंपर अवांछनीय व्यक्तियोंका अधिकार बढ़ता चला जाता है।  यदि वह चाहते हैं तो अपनी कुशलताका उपयोग विघातक न होने देकर मनुष्य जातिको सुखी, समुन्नत बनानेके लिए कर सकते थे।