सम्पादकीय

संसदतक सिमटा किसान आन्दोलन


डा. श्रीनाथ सहाय 

केंद्र सरकारके तीन नये कृषि कानूनोंके विरोधमें शुरू हुआ किसान आन्दोलन खत्म होनेका नाम नहीं ले रहा। संसदका मानसून सत्र चल रहा है। ऐसेमें एक बार फिरसे किसान आन्दोलन तेज होता दिख रहा है। दिल्ली बार्डरके साथ ही साथ किसान अब दिल्लीमें जंतर-मंतरमें प्रदर्शन कर रहे हैं। चालू सत्रमें किसान आन्दोलनकी गंूज सड़कसे सदनतक सुनायी दे रही है। किसान आन्दोलनको करीब आठ माह गुजर चुके हैं। भारत सरकारके साथ किसान प्रतिनिधियोंकी ११ दौरकी बातचीत भी हो चुकी है। एक बार केंद्रीय स्वराष्टï्रमंत्री अमित शाह भी किसानोंसे संवाद कर चुके हैं। बावजूद इसके आन्दोलनसे कोई राह निकलती दिखाई नहीं दे रही। किसान कृषि कानूनोंको रद करवानेकी मांगपर अड़े हैं तो वहीं सरकार जरूरी परिवर्तन और संशोधन करनेकी बात कर रही है। सरकार और किसानोंके बीच चल रहे गतिरोधके कारण मामला सुलझनेकी बजाय लंबा ख्ंिाचता जा रहा है। दिल्लीके उप-राज्यपाल अनिल बैजलने अधिकतम दो सौ किसानोंको नौ अगस्ततक जंतर-मंतरपर प्रदर्शन करनेकी अनुमति दी है। २६ जनवरीको दिल्लीमें उग्र प्रदर्शनके बावजूद दिल्ली सरकारने किसानोंको एंट्रीकी इजाजत दी है। यह परमिशन २२ जुलाईसे लेकर ९ अगस्ततक है।

दिल्ली डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटीने शर्तोंके साथ प्रदर्शनकी मंजूरी दी है। संसदमें मानसून सत्रके बीच केंद्रके तीन कृषि कानूनोंके खिलाफ जंतर-मंतरपर गुरुवारको किसानोंने प्रदर्शन किया। पुलिसने इसे देखते हुए मध्य दिल्लीके चारों ओर कड़ी सुरक्षा व्यवस्था रखी। वाहनोंकी आवजाहीपर कड़ी नजर रखी गयी। किसान नेता राकेश टिकैतने जंतर-मंतरपर कहा कि आज आठ महीने बाद सरकारने हमें किसान माना है। किसान खेती करना भी जानता है और संसद चलाना भी जानता है। संसदमें किसानोंकी आवाज दबायी जा रही है। जो सांसद किसानोंकी आवाज नहीं उठायगा हम उसका विरोध करेंगे। किसान संसदकी शुरुआतमें पहले तो आन्दोलनके दौरान शहीद हुए किसानोंको श्रद्धांजलि दी गयी, उसके बाद किसानों नेताओंपर जो मुकदमे दायर किये गये हैं उन्हें वापस लेनेकी मांग उठी। फिलहाल इसीपर सभी किसान चर्चा कर रहे हैं। जानकारोंकी माने तो सरकार आन्दोलनको लेकर बेपरवाह और निश्चिंत है, क्योंकि उसका भीतरी आकलन है कि आन्दोलन बिखर कर नाकाम हो चुका है। इधर-उधर विरोध-प्रदर्शन कर अराजकता और भाजपा-विरोधी राजनीतिके अलावा, किसान आन्दोलनकारियोंके पास कोई ठोस मुद्दा शेष नहीं है। सरकार कई बार स्पष्टï कर चुकी है कि कृषिके तीनों विवादास्पद कानून न तो वापस लिये जायंगे और न ही रद किये जायंगे। खरीफकी फसलोंके लिए भारत सरकारके कृषि मूल्य आयोगने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी)में वृद्धि की है। यह भी किसानोंकी अपेक्षाओंसे कमतर हो सकती है। उत्तर प्रदेशमें ही गन्ना मिलोंको किसानोंके ८००० करोड़ रुपयेसे भी अधिकका भुगतान चुकाना है। प्रधान मंत्री मोदीके सार्वजनिक आश्वासनके बावजूद किसानोंको उनकी उपजका पैसा नहीं मिला है और न ही १५ दिन बीत जानेके बाद भुगतानपर ब्याजकी व्यवस्था लागू की गयी है।

हालांकि यह किसान आन्दोलनका बुनियादी मुद्दा नहीं है। अब नयी रणनीतिके मुताबिक, किसान संसद भवनका घेराव करना चाहते हैं। मानसून सत्र १९ जुलाईसे शुरू हो चुका है। किसानोंकी रणनीति है कि हर रोज दो सौ आन्दोलनकारी दिल्लीके सिंघु बॉर्डरसे मार्च करके संसद भवनतक पहुंचेंगे और बाहर धरना देंगे। फिलहाल संयुक्त किसान मोर्चा और पुलिस अधिकारियोंके बीच संवाद जारी है।

यदि पुलिस बहुत ज्यादा विनम्र हुई तो जंतर-मंतरपर किसानोंको धरना-प्रदर्शनकी मंजूरी दी जा सकती है। उसकी भी समय-सीमा और शर्तें तय की जा सकती हैं, लेकिन किसानोंको संसदका घेराव करनेकी अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, क्योंकि यह सुरक्षा और संप्रभुताका सवाल है। यदि आन्दोलनकारी किसान किसी भी तरह संसद परिसरमें घुसनेमें कामयाब हुए तो उसे ‘संसदपर आक्रमणÓ माना जायगा। संसद देशकी संप्रभुताकी ही प्रतीक है। विपक्षी खेमेसे कांग्रेस, अकाली दल और आप आदिने किसान आन्दोलनके मुद्देपर संसदमें ‘कामरोको प्रस्तावÓ के नोटिस दिये हैं। चूंकि पंजाबमें विधानसभा चुनाव फरवरी, २०२२ से पहले होने हैं, लिहाजा यह मुद्दा वहांकी राजनीतिके लिए बेहद संवेदनशील है। अकाली दलको बसपा और सीपीएमने ‘कामरोको प्रस्तावÓ पर समर्थनकी घोषणा की है। लोकसभामें यह स्पीकरका विशेषाधिकार है कि वह ऐसे प्रस्तावको स्वीकार करें अथवा नहीं। अलबत्ता वह किसी और नियमके तहत किसान आन्दोलनपर चर्चा करवा सकते हैं। संयुक्त किसान मोर्चाने विपक्षके सांसदोंके लिए ‘पीपल्स ह्विïपÓ जारी की है, जिसके तहत सांसदोंको सदनसे वॉकआउट न करनेका आग्रह किया गया है। ऐसी ‘ह्विïपÓ की कोई भी संसदीय वैधता नहीं है। किसान नेताओंका अहंकार संतुष्टï हो सकता है। किसान आन्दोलनके मुद्देपर सर्वोच्च न्यायालयने तीन सदस्योंकी जो समिति गठित की थी, उसने बंद लिफाफेमें क्या अनुशंसाएं की हैं, उन्हें भी सार्वजनिक नहीं किया गया है और न ही केंद्र सरकारपर कोई दबाव है। अतीतपर नजर डालें तो इस देशमें ज्यादातर बड़े और निर्णायक किसान आन्दोलन आजादीके पहले ही हुए हैं। आजादीके बाद दो ऐसे बड़े किसान आन्दोलन हुए हैं, जिन्होंने देशकी राजनीतिक धाराको प्रभावित करनेका काम किया। यह दोनो आन्दोलन भी वामपंथियोंने ही खड़े किये थे। पहला था आजादीके तुरंत बाद १९४७ से १९५१ तक तेलंगाना (पूर्वकी हैदराबाद रियासत) में सांमती अर्थव्यवस्थाके खिलाफ आन्दोलन। इसमें छोटे किसानोंने ब्राह्मïण जमींदारों खिलाफ गुरिल्ला युद्ध छेड़ दिया था। लेकिन इसका असल फायदा रेड्डी और कम्मा जैसी सम्पन्न लेकिन पिछड़ी जातियोंको हुआ।

वह आज सत्ताकी धुरी हैं। इसके बाद दूसरा बड़ा किसान आन्दोलन १९६७ में पश्चिम बंगालमें नक्सली आंदोलनके रूपमें हुआ। इसमें किसानोंकी मुख्य मांग बड़े काश्तकारोंको खत्म करना, बेनामी जमीनोंके समुचित वितरण और साहूकारों द्वारा किया जानेवाला शोषण रोकनेकी थी। किसान सिंघु बॉर्डर, गाजीपुर बॉर्डर, टीकरी बॉर्डरपर धरना देते रहें या जंतर-मंतरपर प्रतीकात्मक विरोध-प्रदर्शन करें, इससे समाधानतक नहीं पहुंचा जा सकता। संसदमें किसान आन्दोलनके अलावा, कोरोना वायरसकी दूसरी लहर, महंगी, बेरोजगारी, फोन टैपिंगके जरिये मंत्रियों, पत्रकारों और वकीलोंकी जासूसी, टीकाकरण नीति आदि भी महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। सरकारको २३ विधेयक भी पारित कराने हैं। प्रधान मंत्री मोदीने तीखे और धारदार सवाल पूछनेके साथ-साथ सार्थक बहसकी भी उम्मीद जतायी है, लेकिन पहले दिन ही उनके संबोधनके दौरान लोकसभामें जबरदस्त हंगामा मचता रहा। फिलहाल संसदको सिर्फ किसान आन्दोलनतक समेट कर नहीं रखा जा सकता।