सम्पादकीय

उदात्त नहीं था नौटंकीका हास्य


हृदयनारायण दीक्षित
भारत उत्सव प्रिय देश है। सतत् कर्म यहां जीवन साधना है। पूरे वर्ष कर्म प्रधान जीवन और बीच-बीचमें पर्व-त्योहार और उत्सवोंका आनन्द। भारतके मनका उत्स सांस्कृतिक है। उत्सका अर्थ है केन्द्र। उत्सव परिधि है।
भारतीय उत्सव-उल्लासधर्मा होते हैं। वे भारतके लोकको भीतर और बाहरतक आच्छादित करते हैं। मकर संक्रान्तिका उत्सव अभी समाप्त हुआ है। यह भारतके सभी हिस्सोंमें अपने-अपने ढंगसे सम्पन्न हुए हैं। पवित्र नदियोंमें कड़ाकेकी ठंडमें स्नान ध्यान, पूजन और आनन्द। इसके पहले कार्तिक पूर्णिमामें भी करोड़ोंने स्नान किये थे। उसके पहले शरद उत्सव। हम भारतके लोग उत्सवोंमें समवेत होते हैं, आनन्दित होते हैं। इस आनन्दमें वह संगीत गीत और अपने-अपने ढंगसे नाटक नौटंकीमें भी रस लेते हैं। मकर संक्रान्तिके अवसरपर भी ग्रामीण क्षेत्रोंमें कहीं-कहीं नाटक और नौटंकीके आयोजन हुए। नाटक बहुत प्राचीन हैं। भरतमुनिका नाट्य शास्त्र भी बहुत पुराना है। नाटकको उससे भी पुराना होना चाहिए लेकिन नौटंकी बहुत पुरानी नहीं जान पड़ती है। नाटक दुनियाके बड़े क्षेत्रोंमें प्रचलित रहे हैं। प्राचीन दर्शनके क्षेत्र यूनानमें भी नाटकोंका प्रचलन था। अरस्तूने कलाको प्रकृतिकी अनुकृति बताया। रंगों द्वारा बनाये गये मुखौटेसे चेहरेको ढकनेका भी रिवाज था। अंग्रेजीमें इसे परसोना कहते हैं। मुखौटेके लिए प्रयुक्त परसोना परसन और पर्सनाल्टी एक जैसे शब्द हैं। भारतमें नाटकोंकी प्राचीन उत्कृष्ट परम्परा थी ही। उसी परम्परासे नौटंकीका विकास हुआ होगा। नाटककी तरह नौटंकी भी एक सुव्यवस्थित कला थी। मुझे स्वयं नाटकोंमें रस रहा है। मैंने बहुत ध्यानपूर्वक नौटंकी भी प्रस्तुतियां देखी हैं। नौटंकीमें कोई एक कथा होती है। कथाके अनुसार पात्र होते हैं। कथानक प्राय: पद्य होता है। इसमें दोहा, छन्द, चोगोला आदि प्रयुक्त होते हैं। कुशल कलाकार अपनी प्रस्तुतियोंमें शास्त्रीय संगीतके आरोह अवरोह और आलापका प्रयोग करते हैं। ४०-५० वर्ष पहलेतक नौटंकी ग्रामीण क्षेत्रोंके अलावा शहरोंमें भी लोकप्रिय थी। इसके नक्कारेकी आवास पांच-छह किलोमीटर दूरतक रातमें सुनायी पड़ती थी। लोग काम छोड़कर भागते थे। उत्तर भारत पाकिस्तान और नेपाल आदि क्षेत्रोंमें लोकनृत्य थे। तमाम उत्सवोंमें लोकनृत्योंके आयोजन थे।
भारतीय उपमाहद्वीपमें किसी समय प्राचीनकालमें स्वांग परम्पराका विकास हुआ। किसी व्यक्तिके रूपको स्वयंमें धारण करना और उसकी नकल करना स्वांग कहलाता था। राजस्थानमें स्वांगकी लोकप्रियता थी। अब भी है। इसी स्वांग परम्परासे नौटंकीका विकास हुआ। नौटंकीमें नाटक और स्वांगके तत्व हैं। स्वांग पुराना जान पड़ता है। पाकिस्तानी पंजाबके मुल्तानमें नौटंकी नामकी राजकुमारी थी। उसीकी कथाको लेकर ‘शहजादी नौटंकी’ नामका नृत्य नाटक हुआ था। माना जाता है कि नौटंकी शब्दका विकास इसी नामके आधारपर हुआ। उत्तर प्रदेशके कुछ क्षेत्रोंमें एक दूसरी कथा भी चलती है कि किसी समय नृत्य नाटिकामें नाचनेवाली लड़की नक्कारेकी आवाजके साथ बहुत ऊपरतक छलांग लगाती थी। उस समय वजन नापनेकी ईकाई टंक थी। बताते हैं कि उस लड़कीका वजन ०९ टंक था, इसलिए उसे नौटंकी कहा गया। जो भी हो, नौटंकी अत्यन्त लोकप्रिय माध्यम है।
ग्रामीण क्षेत्रोंमें सिनेमाकी तुलनामें नौटंकीके प्रति ज्यादा आकर्षण है। नौटंकीमें मनोरंजनके साथ नैतिक उपदेश भी थे लेकिन प्रेमके चक्करमें जीवन बर्बाद करनेका मसाला भी था। धीरे-धीरे नौटंकीके मूल संवाद घटे। सांस्कृतिक विषयोंवाले गीत भी घटे और सिनेमाई गानोंपर अश्लील नृत्य होने लगे। नौटंकीने सिनेमासे अश्लीलता ग्रहण की। इसके उलट सिनेमाने नौटंकीसे भाव प्रवणताका तत्व लिया। गीतकार शैलेन्द्रके गीतोंसे सजित तीसरी कसम फिल्म नौटंकी है। इसमें नौटंकीकी नर्तकी वाली बाईका किस्सा है। यह भावप्रवण अमर फिल्म है। कारवां सहित ऐसी ही अनेक फिल्मोंमें नौटंकीसे ली गयी सामग्री साफ दिखाई पड़ती है। नौटंकी सहित सभी कलाएं एक-दूसरेसे पोषित होती हैं। लेकिन नौटंकीमें इधरके १०-१५ वर्षमें अन्य कलाओंसे अपना संवर्धन नहीं किया। गुजरात, बंगाल, महाराष्ट्रमें लगातार नाट्यकी तमाम विधाओंको काफी सराहा जाता है। लेकिन उत्तर प्रदेशमें कानपुर, हाथरस, मथुरा, फैजाबाद, रायबरेली, उन्नावमें प्रतिष्ठित नौटंकी पार्टियां जीर्ण-शीर्ण हो रही हैं। सिनेमाकी तरह नौटंकीमें भी महिलाएं पहले काम नहीं करती थी। पुरुष ही महिलाओंका अभिनय करते थे। धीरे-धीरे महिलाएं भी आने लगी। गुलाब बाई मशहूर नौटंकी कलाकार थी। त्रिमोहन लालके नौटंकी समूहमें गुलाब बाई भी थी।
नौटंकी लोकको आनन्दसे भरती थी। नौटंकीमें नर्तक या नर्तकीको पुरस्कार देनेकी परम्परा भी रोचक रही है। आम जनता कोई व्यक्ति पुरस्कार रूपमें रुपया स्टेजपर भेजता है। उद्ïघोषक उसका नाम एवं धन बताता है। फिर वह नर्तक/नर्तकीसे कहता है कि श्रीमानने इनाम दिया है। अब तुम शुक्रिया अदा करो। शुक्रिया अदायगी अश्लील प्रदर्शन होती है। पुरस्कार प्रतिस्पर्धामें झगड़े भी होते हैं। कई बार गोलियां भी चलती देखी गयी। लेकिन यह लोकप्रियताका आलम था। पंडित नत्थाराम, लम्बरदार लालमन द्वारा श्रीकृष्ण पहलवानकी मण्डलियां भी लोकप्रिय थी। नौटंकीमें प्रेम कथाएं थी। उनमें लैला-मजनू और शीरी-फरहाद, हीर-रांझा काफी लोकप्रिय थे। चरित्र निर्माणकी दृष्टिसे हरिश्चन्द्रकी नौटंकीका कथानक बहुत सुन्दर था। कथानकमें सत्य था और कल्पनाशीलता भी थी। सुल्ताना डाकूका कथानक सुन्दर था और वह गरीबोंका नायक दिखाई पड़ता था। नौटंकीका हास्य पहले भी उदात्त नहीं था। प्रत्येक मण्डलीमें जोकर होते हैं। वह प्राय: हास्यबोधसे नासमझ होते हैं। इसलिए नौटंकीका हास्य एवं प्रहसनवाला भाग लगातार अश्लील होता गया। लोकजीवनको आनन्दित करनेवाली यह विधा अब लगभग अश्लीलताके सहारे है और प्राय: लुप्त हो रही है। इसके इतिहास और विधापर परिश्रमपूर्वक लिखी गयी तथ्यपरक पुस्तक होनी चाहिए। वरिष्ठ पत्रकार आलोक पराड़करने ‘कला कलरव’ नामसे एक छोटी-सी सुन्दर पुस्तक लिखी है। इसमें नौटंकीपर छोटे-छोटे दो अध्याय हैं। नौटंकी भारतीय उपमहाद्वीपमें विकसित कला रही है। लोक मनोरंजक रही है। इस कलाको हर तरहसे बचाये जानेकी आवश्यकता है।