सम्पादकीय

कुर्बानीका त्योहार


एम. रजा

चांदकी दसवीं तारीखको ईद-उल-अजहा यानी बकरीदका त्योहार मनाया जाता है। ईद उल अजहापर कुर्बानी दी जाती है। यह एक जरिया है जिससे बंदा अल्लाहकी रजा हासिल करता है। अल्लाहको पसंद है कि बंदा उसकी राहमें अपना हलाल तरीकेसे कमाया हुआ धन खर्च करे। कुर्बानीका इतिहास देखें तो इब्राहीम अलैय सलामको ख्वाबमें अल्लाहका हुक्म हुआ कि वे अपने प्यारे बेटे इस्माईल (जो बादमें पैगंबर हुए) को अल्लाहकी राहमें कुर्बान कर दें। यह इब्राहीम अलैय सलामके लिए इम्तिहान था, जिसमें एक तरफ अपने बेटेसे मुहब्बत और एक तरफ था अल्लाहका हुक्म। इब्राहीम अलैय सलामने सिर्फ अल्लाहके हुक्मको पूरा किया और अल्लाहको राजी करनेकी नीयतसे अपने लख्ते जिगर इस्माईल अलैय सलामकी कुर्बानी देनेको तैयार हो गये। जैसे ही इब्राहीम अलैय सलाम अपने बेटेको कुर्बान करने लगे, वैसे ही फरिश्तोंके सरदार जिब्रील अमीनने बिजलीकी तेजीसे इस्माईल अलैय सलामको छुरीके नीचेसे हटाकर उनकी जगह एक मेमनेको रख दिया। इस तरह इब्राहीम अलैय सलामके हाथों मेमनेके जिब्हा होनेके साथ पहली कुर्बानी हुई। इसके बाद जिब्रील अमीनने इब्राहीम अलैय सलामको खुशखबरी सुनायी कि अल्लाहने आपकी कुर्बानी कुबूल कर ली है। जब बंदा अल्लाहका हुक्म मानकर महज अल्लाहकी रजाके लिए कुर्बानी करेगा तो यकीनन वह अल्लाहकी रजा हासिल करेगा, लेकिन यदि कुर्बानी करनेमें दिखावा या तकब्बुर आ गया तो उसका सवाब जाता रहेगा। शरीयतके मुताबिक कुर्बानी हर उस औरत और मर्दके लिए वाजिब हैै। ईद उल अजहापर कुर्बानी देना वाजिब है। यदि साहिबे हैसियत होते हुए भी किसी शख्सने कुर्बानी नहीं दी तो वह गुनाहगार होगा। जरूरी नहीं कि कुर्बानी किसी महंगे जानदारकी की जाय। हर जगह जामतखानोंमें कुर्बानीके हिस्से होते हैं, उसमें भी हिस्सेदार बन सकते हैं। यदि किसी शख्सने साहिबे हैसियत होते हुए कई सालोंसे कुर्बानी नहीं दी है तो वह सालके बीचमें सदका करके इसे अदा कर सकता है। सदकेके जरियेसे ही मरहूमोंकी रूहको सवाब पहुंचाया जा सकता है। कुर्बानीके गोश्तके तीन हिस्से करनेकी शरीयतमें सलाह है। एक हिस्सा गरीबोंमें तकसीम किया जाये। दूसरा, दोस्त अहबाबके लिए इस्तेमाल किया जाये और तीसरा, अपने घर में इस्तेमाल किया जाय। तीन हिस्से करना जरूरी नहीं है, यदि खानदान बड़ा है तो उसमें दो हिस्से या ज्यादा भी इस्तेमाल किये जा सकते हैं। गरीबोंमें गोश्त तकसीम करना मुफीद है।