सम्पादकीय

सामग्री स्फीतिका गहराता संकट


आर.डी. सत्येन्द्र कुमार

संकट तो संकट है, फिर चाहे वह मुद्रास्फीतिका संकट हा या सामग्री स्फीतिका और जब यह संकट घरेलू उपयोगकी सामग्रियोंसे लेकर एफएमसीजीतकको अपनी निमर्म चपेटमें ले ले तो यह दुखद है। काबिलेगौर है कि पेट्रोल और डीजलकी कीमतोंमें उछाल पहले ही आ चुका था। इसके पहले प्रमुख एवं महत्वपूर्ण कृषि सामग्रियोंकी कीमतोंमें जबरदस्त उछाल भी आ गया था जिससे हालात बदसे बदतर हो चुके हैं। यह अर्थव्यवस्थापर जो गहन अंतर्विरोधसे ग्रस्त रही है, बहुआयामी प्रहार है जिसे वह झेलनेमें असमर्थ साबित हो रही है और वह भी सहज, स्वाभाविक क्रममें। इस भयावह स्थितिसे उपभोक्ता सामग्रियोंके निर्माता एवं उपभोक्ता दोनों ही बेहद परेशान नजर आ रहे हैं जिसे आर्थिक विशेषज्ञ स्वाभाविक ही मान रहे हैं। व्यापक स्तरपर उपयोगमें लाये जा रहे कच्चे मालकी कीमतोंमें जबरदस्त उछालके चलते स्थिति गुणात्मक सुधारकी सम्भावना नहीेें बराबर प्रतीत हो रही है। प्रभावित सामग्रियोंमें खाद्य तेल, दाल, टेलीविजन पैनल, सस्ते सेट्स आदिकी कीमतोंमें उछालके चलते घरेलू बजटमें भारी उछाल आ रहा है। इसी क्रममें प्रमुख निर्माताओंपर भी भारी दबाव पड़ रहा है। परिस्थितियां इतनी विपरीत होती जा रही हैं कि उनमें सुधारकी दूरस्थ आशा भी नितान्त अव्यावहारिक प्रतीत हो रही है। इन कुप्रभावित सामग्रियोंमें खाद्य तेल सबसे बड़ी सामग्री है जिसका रेंज १.५ ट्रिलियन रुपये है। उनकी औसत कीमतमें लगभग ४५ प्रतिशतका उछाल आया है जिसे किसी भी मानकसे बड़ा और खतरनाक करार दिया जा सकता है। सूरजमुखीके तेलमें ६०.६ प्रतिशत, सोयाबीनके तेलमें ५२.६ प्रतिशत, पॉम तेलमें ४८.६, वनस्पतिमें ४८.६, सरसो तेलमें ४५.६, ग्राउंड नट तेलमें २८.१ प्रतिशतका उछाल आया है और वह भी जूनसे लेकर अबतककी अल्पावधिमें। इससे त्वरित गामी उपभोक्ता सेक्टरमें जबरदस्त मूल्यवृद्धि दर्ज हुई है। नतीजतन इस सेक्टरकी सभी कम्पनियां या तो मूल्यवृद्धि कर रही हैं या फिर सामानका वजन कम कर रही हैं। प्राप्त जानकारीके अनुसार हिन्दुस्तान यूनिलीवरमें अपनी सामग्रियोंकी कीमतें छह प्रतिशतकी वृद्धि की, जबकि डाबरने तीन प्रतिशत मूल्यवृद्धि की। विनिर्माताओंका कहना है कि अभूतपूर्व मुद्रास्फीतिके चलते ही उन्हें उक्त मूल्यवृद्धि करनी पड़ी है। कई कम्पनियोंने इस स्थितिका अतिरिक्त दबाव महसूस किया है। इनका कहना है कि लागत मूल्यकी वृद्धिके उत्पादनपर प्रतिकूल प्रभावके मद्देनजर मूल्य वृद्धिका यह कदम उठाया गया है। स्थिति कुल मिलाकर गम्भीर बनी हुई है। विशेषज्ञों और विश्लेषकोंके कुछ तबके इस मुद्देपर मौन साधे हुए हैं। हालांकि उन्होंने अपने यहां उत्पादित सामग्रियोंकी कीमतोंमें वृद्धि कर दी है। वैसे जिन व्यापारियोंका वह प्रतिनिधित्व करते हैं वह काफी डरे हुए लगते हैं। उनका कहना है कि हमारी समस्या काफी बड़ी है लेकिन ज्यादा मूल्यवृद्धिका सहारा भी हम नहीं ले सकते, क्योंकि उससे सामग्रियोंकी बिक्रीपर प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ सकता है। इस सिलसिलेमें कई व्यापारियोंके प्रतिनिधियों एवं प्रवक्ताओंने बताया कि दाम बढ़ाना हमारी मजबूरी है लेकिन हमें यह भी देखना है कि इस मूल्यवृद्धिका सामग्रियोंकी बिक्रीपर कितना प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। हमारा उद्देश्य ऐसी मूल्य वृद्धि करनेका है जिसका बिक्री एवं कारोबारपर अधिक प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।

कई व्यापारिक प्रतिनिधियोंके चेहरोंपर उदासी छायी हुई थी। बहुत पूछताड़के क्रममें उन्होंने स्वीकार किया कि अधिक मूल्यवृद्धिसे कारोबार संकटके चक्रव्यूहमें उलझ सकता है जो व्यापारी और उपभोक्ता दोनोंके व्यापक हितमें नहीं होगा। ऐसी स्थितिमें हमें खरीदारोंको विश्वासमें लेना पड़ेगा। हमें उन्हें बताना पड़ेगा कि समस्याकी जड़में क्या है। एक व्यापारीने अपना नाम गोपनीय रखनेकी शर्तपर कहा कि सामग्रियोंकी कीमतोंमें महंगीके अनुरूप वृद्धिका कोई विकल्प हमारे पास नहीं है। यह संकट कई दृष्टिïयोंसे एक अभूतपूर्व संकट है जिसमें सामग्रियोंकी कीमतोंमें वृद्धिका हमारे पास कोई अन्य कारगर विकल्प नहीं है। इस सवालके जवाबमें कि क्या व्यापारी जनताको विश्वासमें लिये बिना सामग्रियोंकी कीमतोंमें वृद्धि करने जा रहे हैं, कई व्यापारियोंने कहा कि हम इस समस्याका ऐसा हल चाहेंगे जिससे दोनों पक्ष सहमत हों। हम एक वास्तविक समस्यासे जूझ रहे हैं जो देखनेमें सरल लग सकती है लेकिन जो व्यवहारमें काफी जटिल और टैक्सिंग है। इसका समस्याकी जटिलताके मद्देनजर हमें गहन और व्यापक विचार-विमर्शका सहारा लेना ही होगा। यदि ऐसा नहीं किया जायगा तो यह समस्या दोनों पक्षोंका सिरदर्द बन जायगी। हमें विवेकको भावनापर वरीयता देनी ही होगी, क्योंकि समस्या काफी जटिल है। एक तरफ व्यापारी है जिन्हें बदली परिस्थितियोंमें अपने सामानोंको जनताको सुलभ कराते रहना पड़ेगा, जबकि दूसरी तरफ इन सामग्रियोंके खरीदार हैं, जिन्हें परिवर्तित परिस्थितियोंको ठीकसे समझना पड़ेगा। समस्या वैसे दोनोंकी ही है। ऐसेमें दोनों पक्षोंको मिल-बैठकर इसका संतोषप्रद समाधान निकालना पड़ेगा। मुद्रास्फीतिकी तरह ही सामग्री स्फीति भी एक बेहद संवेदनशील मुद्दा है। इस समस्याका समाधान असम्भव नहीं है। बशर्ते दोनों ही सबद्ध पक्ष समस्याकी गम्भीरताको समझें। उन्हें यह मानकर चलना होगा कि टकराव इस समस्याका समाधान नहीं, उल्टे उससे स्थिति बदतर हो सकती है।

व्यापारियों और जनताके खरीदार तबकेके अलावा सरकारका भी कुछ फर्ज बनता है। उसे विवेकका परिचय देना पड़ेगा जिससे लगे कि इसीमें दोनों पक्षोंका हित है। यह तभी सम्भव है जब हमेशा संवादकी स्थिति बनी रहे। दोनों पक्षोंको यह मानकर चलना होगा कि समस्या बेहद संवेदनशील है और संयमकी अपेक्षा रखती है। संयम भाषा और कार्य दोनों स्तरपर होगा तभी वह समस्याके स्थायी समाधानकी ओर ले जा सकेगा। शेष सब वहम है। हमेशा बीचके रास्तेकी तलाश करनी ही होगी, क्योंकि इस मुद्देपर किसी किस्मके अतिवादकी कतई बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए। मसला बेहद संवेदनशील है, इसे समझकर फूंक-फूंककर कदम उठाना ही दोनों पक्षोंके लिए हितकर होगा।

इसी क्रममें दोनों पक्षोंको मध्यमार्गकी भूमिका और महत्वको भली-भांति हृदयंगम करते रहना होगा। वैसे कुल मिलाकर समस्या जटिल है और उसकी जटिलताके मद्देनजर सतत सतर्कता बरतनी होगी। इसी क्रममें दोनों पक्षोंको विरोधके लिए विरोधकी रणनीतिसे सक्रिय परहेज करना होगा। जैसा कि गोस्वामी तुलसीदासने लिखा है- कीरति भणित भूत भल सोई, सुरसरि सम सब कह हितकर होई। यदि विक्रता और खरीदार दोनों पक्षोंने इस नीति वाक्यमें निहित सत्यको ठीकसे समझ लिया और उसकी रोशनीमें आचरण किया तो इस तेज डंक मारनेवाली समस्यासे भी बचा जा सकेगा और उसका भी समाधान प्राप्त किया जा सकेगा।