सम्पादकीय

गतिरोध कायम


सरकार और किसानोंके बीच कई दौरकी वार्ताके बाद भी गतिरोध कायम है। सरकारने किसानोंकी कई मांगोंको स्वीकार भी कर लिया है फिर भी किसान आन्दोलन समाप्त नहीं कर रहे। लग रहा कि यह किसान अन्यत्रसे संचालित हो रहे हैं। क्योंकि सरकारने कई मुद्दोंपर लिखित आश्वासन भी दिया है। उम्मीद थी कि किसान अपने अडिय़लपनसे डिगेंगे और तथाकथित आन्दोलन समाप्त करेंगे। बीते दशकोंकी बात करें तो किसानोंकी आमदनीमें खास वृद्धि नहीं हुई है। पुराने कानूनको यथास्थितिमें रखनेकी जिदपर यदि सरसरी नजर डालें तो स्पष्टï है कि किसानोंको कर्जदार बनाकर उनको एक तरहसे मानसिक एवं शारीरिक तौरपर बंधक ही बनाया गया। पिछले लगभग तीन दशकमें चार लाखसे अधिक किसानोंने आत्महत्या की। कर्जमाफीके बाद भी किसान कर्जदार बना रहा। यह स्थिति कारुणिक है। यह आन्दोलन संवेदनशील मुद्देसे भटक गया है। आन्दोलनरत किसान सिर्फ तीन कानूनोंको निरस्त करनेकी मांग कर रहे हैं। सन्ï १९६७ में एमएसपीको लागू किया गया था। तबसे किसानकी आमदनी मात्र १९ गुणा ही बढ़ी है, जबकि सरकारी कर्मचारियोंके वेतन लगभग १५० गुणा बढ़े हैं। एक ही देशमें इस प्रकार विरोधाभास क्यों है। किसान इस गम्भीर मुद्देपर क्यों नहीं एकजुटता दिखाते। सिर्फ पराली जलाने, एमएसपी जैसे मुद्दोंपर ही आन्दोलनको केन्द्रित कर पूरे कृषि क्षेत्रको दोयम दर्जेका बना रहे हैं। यदि बाजार बेहतर होता और सरकारी खरीद भी पर्याप्त होती तो किसानोंकी यह दुर्दशा नहीं होती। पिछले लगभग तीस वर्षोंसे किसान खेत-खलिहानसे नाता तोड़ रहा है। वह शहरोंमें जाकर मजदूरी करनेपर विवश है। यदि पुराना कानून तमाम तरहकी सुविधाएं दे रहा था तो यह किसान असहाय दीन-हीन दशामें क्यों हैं। पिछले दिनों रक्षामंत्री राजनाथ सिंहने कहा कि किसानोंको कुछ दिन इस कानूनको देख-परख लेना चाहिए। यदि उन्हें पसन्द नहीं आता है तो सरकार अवश्य ही इसमें फेरबदल कर सकती है। परन्तु किसान स्वहित नहीं देख रहे। वह मोहरे बन गये हैं। अब तो ऐसा प्रतीत होता है कि प्रदर्शनरत किसानों और सरकारके बीच यदि किसी भी प्रकारकी सहमति बनती है तो यह आश्चर्य ही होगा। विश्व बैंक भी चाहता है कि लोग गांव छोड़कर शहरोंमें बसे। शहरीकरणका विस्तार हो। सरकारें भी अपनी फायदेके लिए कई प्रकारकी रणनीति बनाती हैं। परन्तु इस बार ऐसा लगता है कि सरकार किसान हितके बारेमें सोच रही है। परन्तु आन्दोलनरत किसानोंमें कई ऐसे नेतृत्वकर्ता हैं जो सरकार और किसानोंके मेलजोलमें अवरोध बनकर खड़े हैं। कृषिमंत्री तोमरने आठ जनवरीकी बैठकमें यहांतक कह दिया है कि यदि किसानोंको इन तीनों विधेयकमें किसी प्रकारकी कमी महसूस होती है तो सुप्रीम कोर्टमें जा सकते हैं। परन्तु आन्दोलनरत किसान इसपर भी सहमत नहीं है। अब अगली वार्ता १५ जनवरीको रखी गयी है। परन्तु उम्मीदकी किरणें क्षींण हैं। यह मात्र गतिरोध पैदा करनेके लिए आन्दोलन है।
हठधर्मितासे अराजकता

विश्वका सबसे पुराना लोकतन्त्र होनेका दम्भ भरनेवाले अमेरिकामें इन दिनों जो चल रहा है वह शर्मसार करनेवाला है। बुधवारको जिस प्रकार ट्रम्प समर्थकोंने लोकतन्त्रको बंधक बनाया वह अमेरिका जैसे खुले समाजके लिए अतिनिन्दनीय है। समृद्ध एवं शिक्षित समाजसे इस प्रकार उत्तेजनाकी उम्मीद नहीं की जा सकती। हजारों ट्रम्प समर्थकोंने संसद परिसरपर धावा बोल दिया। लगभग चार घण्टे चले उपद्रवके दौरान जमकर तोड़-फोड़ एवं गोलीबारी हुई। तब संसदमें बाइडनकी जीतपर मुहर लगानेकी काररवाई चल रही थी। अब जबकि २० जनवरीको सत्ता हस्तान्तरणकी काररवाई होगी, ट्रम्पपर महाभियोग चलानेकी तैयारी भी हो रही है। दरअसल ट्रम्पने हठधर्मिता दिखाकर अपने समर्थकोंको जिस प्रकार भ्रमित किया उसकी परिणति हमलेके रूपमें हुई। इस प्रकारकी अराजक गतिविधि लोकतान्त्रिक कहे जानेवाले देशोंके लिए खतरेकी घण्टी है। हालांकि ह्वïाइट हाउसने जो वीडियो जारी किया है उसमें ट्रम्पने कहा है कि सभी अमेरिकियोंकी तरह मैं भी हिंसा और अराजकतासे आहत हूं। इस अराजक घटनाक्रमके बाद भले ही ट्रम्प अनौपचारिक रूपसे पराजय स्वीकार करते हुए सत्ता हस्तान्तरणके लिए सहमति दे चुके हों, परन्तु वैश्विक पटलपर जिस प्रकारकी उनके देशकी तस्वीर उभरी है वह शर्मिन्दा करती है। हालांकि कैपिटल हिलपर हुए उपद्रवियोंमें कुछ ऐसे लोग भी शामिल थे, जिनके शरीरपर हसिया-हथौड़ेका टैटू बना था। यह इंगित करता है कि वामपंथ अमेरिका जैसे देशमें भी गहरी जड़ें जमा रहा है। क्योंकि जिस प्रकार ट्रम्पने अपने कार्यकालमें चीनकी भत्र्सना की, वह चीन जैसे वामपंथी सरकारको नागवार ही लगा। चीन कभी नहीं चाहेगा कि अमेरिकामें लोकतन्त्र मजबूत हो। विश्वमें जहां भी लोकतन्त्रकी जड़ें मजबूत हैं, वहां वह किसी भी प्रकारसे मतभेद उत्पन्न कर अराजकताको हवा देनेका कार्य कर रहा है। इस बार सत्ता हस्तान्तरणसे पूर्व उपद्रवने अमेरिकी लोकतन्त्रको शर्मसार किया। चीनकी अन्दरूनी मंशा भले ही कामयाब दिखे, परन्तु चीनको यह नहीं भूलना चाहिए कि जो बाइडेन भी अमेरिकी हितोंकी रक्षा करते हुए चीनकी गतिविधियोंको रोकनेका प्रयास अवश्य करेंगे। जहांतक भारतका प्रश्न है तो अमेरिकामें ट्रम्प हों या जो बाइडन भारतके साथ सम्बन्ध मजबूत ही रखना ही चाहेंगे। क्योंकि भारत उभरता हुआ बाजार है जिसकी आवश्यकता अमेरिकाको भी है। कोरोना एवं मंदीके वैश्विक दौरमें अमेरिकाकी अर्थव्यवस्था अधोगामी हुई है। इससे उबरनेके लिए जो बाइडनका चुनौतीभरा कार्यकाल होगा। जो बाइडनको विभाजित समाज विरासतमें मिल रहा है जिसे एकजुट करना और कोरोनासे उबरकर अर्थव्यवस्थाको संकटसे बाहर निकालना कठिन कार्य होगा।