ओशो
परम लक्ष्यकी प्राप्तिके जो मार्ग बताये गये हैं, उनमें बड़ी भिन्नता है। मूल तत्व एक है, परन्तु कहनेका ढंग अलग-अलग है। इसलिए यह समझना जरूरी है कि मार्गमें कहां-कहां अटकनेकी संभावना है ताकि हम मीलके पत्थरोंको पड़ावके रूपमें ही जानें, उन्हें मंजिल समझनेकी भूल न हो। संसारके लिए परम सत्यकी ओर जानेमें मीलका पहला पत्थर है, उपासना। आप किसकी उपासना करते हैं, इससे फर्क नहीं पड़ता। इतना तो बोध हुआ कि संसारमें वह नहीं मिलता, जिसे मैं खोज रहा हूं, लेकिन यदि कोई मंदिर, मस्जिद इसलिए जा रहा है कि नौकरी बरकरार रहे, प्रमोशन मिलता रहे, दुश्मनोंकी हार हो जाय, मुकदमा जीत जाय तो ऐसी उपासना भटकाव है। दूसरा पड़ाव है शास्त्र। शास्त्रसे बड़ी समझ, प्यास, अभीप्सा और खोजकी प्रेरणा पैदा होती है, लेकिन शास्त्र भी तब अटकाव हो जाता है, जब शास्त्रको पाठका विषय बना लिया जाय। कहीं नवाह्न.परायण हो रहा है, कहीं अंखड पाठ हो रहा है। शास्त्रका पालन विकास है और पाठ भटकाव है। कहते हैं बिन सत्संग विवेक न होई। सत्संग और शास्त्रमें क्या फर्क है। जब शास्त्र है तो उसे सुनना या पढऩा सत्संग है। जितने भी वेदांत और उपनिषद हैं, वह सब गुरु, शिष्यके बीचके सत्संग थे लेकिन अब शास्त्र हैं। वह सत्संग भी भटकाव है जिसमें úकारकी चर्चा न हो। दूसरी बात, सत्संगमें सुनेको हम बहुत महत्वपूर्ण मान लेते हैं। काफी लोग सत्संगपर ही रुक जाते हैं कि इसीसे काम हो जायगा। परन्तु सत्संगमें केवल वाद होता है। जैसे गुरु कोई मंत्र देता है तो शिष्य सोचता है कि गुरुने उसे अंतिम शस्त्र दे दिया। गुरुने जो मंत्र पहले कदमके रूपमें दिया था, शिष्यने उसे अंतिम कदमके रूपमें लिया। गुरुके शरीर छोडऩेके बाद शिष्य सोचता है कि जिस गुरुसे जुड़े थे, वह चला गया तो अब किसी औरके पास जाना धोखा होगा। हर गुरु कहता है कि मेरे जानेके बाद किसी सद्गुरुमें मुझे तलाश लेना। यदि आप इससे आगे बढऩेका साहस जुटा सकें तो फिर आपकी यात्रा अटक नहीं सकती। अपने गुरुके प्रति सच्ची निष्ठा रखनेवाले शिष्य आजके दौरमें कम ही मिलते हैं। आजकल इनसान अपना हर काम नफा-नुकसान देखकर करना चाहता है इसलिए वह सफल कम और असफल ज्यादा हो रहा है। सच्चे शिष्य अपने गुरुके बताये मार्गपर चलते हैं।