राजेश माहेश्वरी
पेट्रोल-डीजलकी लगतार बढ़ती कीमतोंके साथ पिछले दो महीनोंमें ही एलपीजी गैसकी कीमतें १७५ रुपये प्रति सिलेंडर बढ़ी हैं। विशेषज्ञोंके अनुसार पेट्रोल, डीजलके दाम बढऩेका सीधा असर महंगीपर पड़ता है और इससे मांग घटती है। खास तौरपर गरीब और हाशियेपर मौजूद तबकेके लिए ज्यादा मुश्किलें बढ़ती हैं। १५ जून २०१७ से देशमें पेट्रोल, डीजलकी कीमतें रोजाना आधारपर बदलना शुरू हो गयी हैं। इससे पहले इनमें हर तिमाही बदलाव होता था। पूरी दुनियामें कोविड-१९ महामारीके चलते क्रूडकी कीमतें नीचे आयी हैं, लेकिन भारतमें ईंधनके दाम कम नहीं हुए हैं। सरकार एक तरफ तो उद्योगों, किसानों और नौकरीपेशाके हितके लिए राहतके पैकेज घोषित किया करती हैं लेकिन जिन पेट्रोल और डीजलकी कीमतें समूची अर्थव्यवस्थाको प्राथमिक स्तरसे ही प्रभावित करती हैं उनके बारेमें वह बेहद असंवेदनशीलताका प्रदर्शन कर रही है। वास्तवमें सरकारके लिए शराब और पेट्रोल, डीजल कमाईका सबसे बढिय़ा जरिया हैं। ये जीएसटीके दायरेमें नहीं आते हैं, ऐसेमें इनपर टैक्स बढ़ानेके लिए सरकारको जीएसटी काउंसिलमें नहीं जाना पड़ता है। कोरोना महामारीके दौरान क्रूडके दाम नीचे आये, ऐसेमें इसी हिसाबसे पेट्रोलके दाम भी गिरने चाहिए थे, लेकिन सरकारने ऐसा नहीं होने दिया। अर्थ जगतके विशेषज्ञ मानते हैं कि पेट्रोलियमकी कीमतोंमें दस फीसदीकी वृद्धिसे खुदरा महंगी दरमें बीस आधार अंक यानी ०.२ प्रतिशतकी वृद्धि हो सकती है। यह इस बातपर निर्भर करता है कि कच्चे तेलकी कीमतोंमें वृद्धिका भार किस हदतक दूसरोंपर डाला जाता है।
आंकड़ोंपर नजर डाली जाय तो महंगी दर अपने निचले स्तरसे ऊपर निकल चुकी है। आनेवाले महीनोंमें यह और बढ़ेगी। खुदरा महंगी दर अगले वित्त वर्षकी पहली छमाहीमें पांचसे साढ़े पांच फीसदीतक रह सकती है। इस साल जनवरीमें खुदरा वस्तुओंकी महंगी दर ४.०६ फीसदी रही थी। आर्थिक विशेषज्ञोंके मुताबिक, कच्चे तेलकी कीमतोंमें दस फीसदीकी वार्षिक वृद्धिसे चालू खातेके घाटेमें जीडीपीके ५० आधार अंकके बराबरकी वृद्धि हो जाती है। इससे राजकोषीय घाटेमें इजाफा होगा, जो सरकारपर वित्तीय दबावको बढ़ाता है। पेट्रोल-डीजलकी बढ़ती कीमतसे उत्पादनकी लागत बढ़ जाना सामान्य बात है। उत्पादकी बढ़ी हुई कीमतें सीधे तौरपर प्रतिस्पर्धाकी क्षमताको प्रभावित करती हैं। देशका ७० प्रतिशतसे ज्यादा ट्रांसपोर्ट पेट्रोलियमपर निर्भर करता है और पेट्रोल-डीजलकी बढ़ती कीमतसे इसपर असर पड़ेगा। छोटे उद्यमियोंकी माने तो पेट्रोल-डीजलकी बढ़ती कीमत आनेवाले समयमें उनके लिए कई मुसीबतें एक साथ लानेवाली हैं। कच्चे मालकी कीमत पहलेसे २५ से ७० फीसदीतक बढ़ चुकी है। अर्थव्यवस्थामें रिकवरीका दौर इन बढ़ती कीमतोंसे प्रभावित होगा, क्योंकि उत्पादनकी तीसरी सबसे बड़ी लागत ट्रांसपोर्ट एवं अन्य लॉजिस्टिकसे जुड़ी होती है। कोरोनासे उत्पादनका मुनाफा पहलेसे ही दबावमें है। यह दबाव और बढऩेपर उत्पादक कीमत बढ़ायंगे, जिससे महंगी बढ़ेगी। आर्थिक विशेषज्ञोंके मुताबिक आवश्यक वस्तुओंकी ९० फीसदी ढुलाई सड़क मार्गसे होती है और डीजलके दाम बढऩेसे इनकी कीमत भी बढ़ेगी। जनवरीमें खाद्य वस्तुओंकी महंगी दर १.८९ फीसदी रही, लेकिन ढुलाई लागत बढऩेसे इसमें वृद्धिकी आशंका है। विशेषज्ञोंके मुताबिक, पेट्रोल-डीजलके दाममें हो रही बेतहाशा वृद्धिसे महंगी दर बढ़ेगी, जिससे अन्य वस्तुओंकी मांगमें कमी आयगी, जो रिकवरीके इस दौरमें अच्छी बात नहीं है। महंगी बढऩेसे मैन्यूफैक्चरिंगमें तेजी लानेके प्रयास भी प्रभावित होंगे। पेट्रोल-डीजलकी कीमतोंमें वृद्धिका सिलसिला ऐसे ही चलता रहा तो ऐसा खतरनाक चक्र पैदा होगा, जिससे आरबीआईको नीतिगत दरोंमें वृद्धिके लिए मजबूर होना पड़ सकता है। इसके चौतरफा नकारात्मक असरको थामना बहुत आसान नहीं होगा।
इस बातसे इनकार नहीं किया जा सकता कि कोरोना कालमें केंद्र और राज्य दोनोंकी आर्थिक स्थिति खराब होनेसे राजस्वमें जबरदस्त कमी रिकार्ड की गयी। उद्योग-व्यापार बंद हो गये और लोगोंकी आवागमन भी थम-सा गया। निश्चित रूपसे उन हालातोंमें देश और प्रदेशकी अर्थव्यवस्थाको गतिमान बनाये रखना बहुत बड़ी समस्या थी किन्तु किसी तरहसे गाड़ी खींची जाती रही। कोरोना कालमें प्रत्यक्ष करोंसे होनेवाली आयमें भी जबर्दस्त गिरावट आयी थी। लॉकडाउन हटनेके कुछ महीने बादतक जीएसटीकी वसूली भी अपर्याप्त थी। ऐसेमें केंद्र और राज्य सरकारको राजस्व वसूलीका सबसे आसान स्रोत समझ आया पेट्रोल और डीजल। भले ही सरकार यह दावा करती हो कि पेट्रोल-डीजलकी कीमतें अंतरराष्टï्रीय उतार-चढ़ावपर निर्भर हैं लेकिन भारतमें केंद्र और राज्यों द्वारा पेट्रोलियम पदार्थोंपर जितना कर लगाया जाता हैं वह विकसित देशोंको तो छोड़ दें भारतसे आकार और आर्थिक दृष्टिïसे कमजोर छोटे-छोटे देशोंतककी तुलनामें बहुत ज्यादा है जिसके आंकड़े किसीसे छिपे नहीं हैं। ईंधनकी कीमतें हर राज्यमें अलग-अलग हैं। यह राज्यकी वैट दर या स्थानीय करोंपर निर्भर करती हैं। इसके अलावा इसमें केंद्र सरकारके टैक्स भी शामिल होते हैं। दूसरी ओर क्रूड ऑयलकी कीमतों और फॉरेक्स रेट्सका असर भी इनपर होता है। सरकारी करोंकी विसंगतिका प्रमाण ही है कि विभिन्न राज्योंमें पेट्रोल-डीजलके दाम अलग-अलग हैं।
उदहारणके तौरपर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेशमें पेट्रोल-डीजलकी कीमतोंमें तकरीबन आठ रुपये प्रति लीटरका अन्तर है। पेट्रोल डीजलकी बढ़ी कीमतोंके लिए आमतौरपर केंद्र सरकारको जिम्मेदार बताया जाता है। वहीं जमीनी सचाई यह भी है कि राज्य सरकारें भी इस बारेमें कम कसूरवार नहीं है। इसी वजहसे पेट्रोलियम पदार्थोंको जीएसटीके अंतर्गत लानेके लिए कोई राज्य सरकार तैयार नहीं है। अब जबकि पेट्रोल-डीजलके दाम सौका आंकड़ा छूनेकी स्थितिमें आ गये हैं और केंद्र सरकारने अपना पल्ला झाड़कर मामला पेट्रोलियम कम्पनियोंपर छोड़ दिया है तब इस बातका भी विश्लेषण होना चाहिए कि लम्बे लॉकडाउनके बाद भी इन कम्पनियोंने आखिर जबरदस्त मुनाफा कैसे कमाया और यदि कमा भी लिया तब अर्थव्यवस्थाके पटरीपर लौटनेके साथ ही उन्हें दाम घटाकर जनताको राहत देनेकी उदारता दिखानी चाहिए। साथ ही गैस सिलेण्डर और प्याजकी बढ़ी कीमतें भी आम आदमीका बजट बिगाड़ रही हैं। निश्चित तौरपर सरकारके पास पेट्रोलियम उत्पादोंके दाम घटानेके विकल्प हैं। इनमें कीमतोंको डीरेगुलेट करने और इनपर टैक्स घटानेके विकल्प शामिल हैं।