सम्पादकीय

छोटे उद्योगोंको प्रोत्साहनकी जरूरत


डा. भरत झुनझुनवाला

वैश्विक सलाहकारी कम्पनी मैकेंजीने अक्तूबर २०२० के एक अध्ययनमें कहा था कि यूरोपके छोटे उद्योगोंका स्वयंका अनुमान है कि आधे आनेवाले १२ माहमें बंद हो जायेंगे। भारतकी परिस्थिति ज्यादा दुष्कर है क्योंकि हमारे छोटे उद्योगोंने लाकडाउनके साथ नोटबंदी और जीएसटीकी मार भी खायी है। ई-कॉमर्स और बड़ी कम्पनियोंने छोटे उद्योगोंके बाजारपर कब्जा कर लिया है। अत: प्रश्न उठता है कि छोटे उद्योगोंको जीवित रखा ही क्यों जाय। उन्हें मर क्यों न जाने दिया जाय। यदि बड़े उद्योग मालको कम कीमतमें उत्पादन कर सकते हैं तो उसे छोटे उद्योगोंसे उत्पादन करनेसे लाभ क्या है। विषय यह है कि छोटे उद्योग यद्यपि माल महंगा बनाते हैं परन्तु वह हमारे भविष्यके उद्यमियोंके इनक्यूबेटर अथवा लेबोरेटरी भी हैं। आजका छोटा उद्यमी कल बड़ा हो सकता है। धीरुभाई अम्बानी किसी समय छोटे उद्यमी थे। यदि उनके छोटे उद्योगको पनपनेका अवसर नहीं मिलता तो वह कभी बड़े भी नहीं होते। साथ ही यह भारी संख्यामें रोजगार सृजित करते हैं। रोजगार उत्पन्न होनेसे जनताकी सृजनात्मक क्षमता उत्पादक कार्यों समाहित हो जाती है।

यदि हमारे युवाओंको रोजगार नहीं मिला तो वह अंतत: अपराधिक गतिविधियोंमें लिप्त होंगे जो हो भी रहा है। औरंगाबाद महाराष्ट्रके विश्वविद्यालयके प्रोफेसरकी माने तो उनके एमए पढ़े छात्र भी अब एटीएम तोडऩे जैसे कार्योंमें लिप्त हो गये हैं चूंकि वह बेरोजगार हैं। बड़ी संख्यामें लोगोंके अपराधमें लिप्त होनेसे सुरक्षाका खर्च बढ़ता है, देशपर पुलिसका खर्च बढ़ता है, नागरिकोंमें असुरक्षाकी भावना विकसित होती है और सामाजिक और पारिवारिक ढांचा विघटित होता है। देशमें असुरक्षित वातावरणके कारण विदेशी कम्पनियां भी निवेश करनेसे कतराती हैं। इसलिए यदि हम छोटे उद्योगोंसे बने मालके ऊंचे दामको सहन करें तो इस भारके बावजूद आर्थिक विकास हासिल होता है चूंकि अपराध कम होते हैं और सामाजिक वातावरण आर्थिक गतिविधियोंके विस्तार और निवेशके अनुकूल स्थापित हो जाता है। इसके विपरीत यदि हम बड़े उद्योगोंसे उत्पादन करायें और तो बेरोजगारी और अपराध दोनों बढ़ते हैं। यद्यपि बाजारमें सस्ता माल उपलब्ध होता है परन्तु अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ती है क्योंकि अपराध बढ़ते हैं। इसके अतिरिक्त, बेरोजगारोंको न्यूनतम सुरक्षा देनेको मनरेगा जैसे कार्यक्रमोंपर सरकारको खर्च भी अधिक करना पड़ता है। मेरा आकलन है कि मनारेगापर खर्च की गयी रकम मूल रूपसे उनुत्पदक कार्योंमें लगती है। वहीं रकम यदि छोटे उद्योगोंको समर्थनमें लगायी जाये तो उत्पादन बढ़ेगा। अतएव केवल बड़े उद्योगोंके सहारे आर्थिक विकासकी नीति विफल होनेकी संभावना ज्यादा है। पिछले छह वर्षोंमें हमारी आर्थिक विकास दर गिरने यह एक बड़ा कारण दीखता है।

छोटे उद्योगोंको जीवित रखनेके लिए हमें पहला कार्य यह करना होगा कि उनकी उत्पादन लागत कम आये। इसके लिए ऋण देनेके अतिरिक्त ठोस कदम उठाने होंगे। यूरोपीय यूनियनकी छोटे उद्योगोंकी गाइड बुकमें सुझाव दिया गया है कि छोटे उद्योगोंको ट्रेनिंग, रिसर्च एवं सूचना उपलब्ध करनेके लिए उनके गुट अथवा क्लस्टर बनाने चाहिए और इन क्लस्टरोंका संचालन छोटे उद्योगोंके अपने संघटनोंके हाथमें दे देना चाहिए। जैसे वाराणसीमें यदि बुनकरोंको समर्थन देना है तो बुनकरोंके संघटनके माध्यमसे उन्हें ट्रेनिंग, रिसर्च और सूचना उपलब्ध करायी जाय। उनके संघटनको सही ज्ञान होता है कि किस प्रकारकी तकनीककी जरूरत है और किस प्रकारकी ट्रेनिंग कामयाब होगी। यदि यही कार्य किसी एनजीओ अथवा किसी सरकारी तंत्रके माध्यमसे कराया जाता है तो उन्हें जमीनी स्थितिका ज्ञान नहीं होता है और उनके द्वारा चलाये गये कार्यक्रम वैसे होते हैं जैसे तेलपर पानीके रंग बिखरते हैं। तमाम एनजीओ जैसी योजनाओंमें अपनी रोटी सेंक रहे हैं। चिकने पन्नोंपर रिपोर्टें लिखी जाती हैं लेकिन छोटे उद्योग मरते ही जाते हैं। इस दिशामें भारत सरकारकी नीति विपरीत दिशामें दिख रही है। छोटे उद्योगोंके परिसंघके सचिव अनिल भरद्वाजके अनुसार सरकार द्वारा छोटे उद्योगोंकी समस्याओंके निवारणके लिए जो बोर्ड बनाये गये हैं उसमें पूर्वमें छोटे उद्योगोंके संघटनोंके प्रतिनिधियोंको पर्याप्त स्थान दिया जाता था। बीते दिनोंमें सरकारने इन बोर्डमें केवल अधिकारी और नेताओंकी नियुक्ति की है और छोटे उद्योगोंके संघटनोंकी सदस्यता पूर्णतया समाप्त कर दी है। यानी जिसके हितके लिए यह बोर्ड बनाये गये हैं वह ही इन बोर्डोंमें अनुपस्थित हैं। इस नीतिको बदलना चाहिए।

दूसरा काम सरकारको छोटे उद्योगोंको इस कठिन समयमें वित्तीय सहायता देनेपर विचार करना चाहिए। भारत सरकारकी नेशनल इंस्टिट्यूट आफ पब्लिक फाइनेंस एंड पालिसीके अप्रैल २०२० के एक अध्ययनमें बताया गया है कि ब्राजील, कनाडा और न्यूजीलैंडमें छोटे उद्योगों द्वारा अपने श्रमिकोंको दिये जानेवाले वेतनका एक अंश कुछ समयके लिए सब्सिडीके रूपमें दिया गया है जिससे कि छोटे उद्योग भी जीवित रहें और उनमें कार्यरत श्रमिक भी अपना जीवन निर्वाह कर सकें। यहां भी भारत सरकारकी नीति विपरीत दिशामें है। सरकारने छोटे उद्योगोंको सरल ऋण उपलब्ध करनेपर जोर दिया है जो कि सामान्य परिस्थतियोंमें सही बैठता। लेकिन जिस समय छोटे उद्योगों द्वारा बनाया गया माल बाजारमें बिक ही नहीं रहा है उस समय उनके द्वारा ऋण लेकर कठिन समय पार करनेके बाद उनके ऊपर ऋणका अतरिक्त बोझ आ पड़ेगा और वह ऋणके बोझसे उबर ही नहीं पायेंगे। यूं ही मरनेके स्थानपर वह ऋणके बोझसे दब कर मरेंगे। इसलिए ऋणपर सब्सिडी देनेके स्थानपर उसी रकमको सीधे नगद सब्सिडीके रूपमें देना चाहिए।

छोटे उद्योगों द्वारा अकसर आयातित कच्चे मालका उपयोग करके माल तैयार किया जाता है और फिर उसको बाजारमें बेचा जाता है अथवा निर्यात किया जाता है। इनमेंसे एक कच्चा माल प्लास्टिक है। सरकारने प्लास्टिकपर आयात कर बढ़ा दिये हैं जिसके कारण कच्ची प्लास्टिकका दाम अपने देशमें बढ़ गया है और विशेषज्ञोंके अनुसार प्लास्टिकका माल बनानेवाले छोटे उद्योग बंद प्राय हो गये हैं। यही परिस्थिति अन्य कच्चे मालकी हो सकती है। ऐसे कच्चे मालपर आयात कर घटना चाहिए। सरकारको अपनी नीतियोंका पुनरावलोकन करके छोटे उद्योगोंको राहत पंहुचाना चाहिए अन्यथा न तो भविष्यमें धीरुभाई जैसे उद्यमी बनेंगे, न ही आर्थिक विकास हासिल होगा।