श्यामसुन्दर मिश्र
भौतिक सुखोंकी अंधी दौड़में इनसान प्रकृति और परमात्मा दोनोंसे ही दूरियां बनाता चला आ रहा है। वह भूल चुका है कि जान है तो जहान है और शरीर स्वस्थ एवं मनप्रसन्न है तो ही भौतिक संसाधनोंसे हमें सुख और शान्तिकी प्राप्ति हो सकती है। देहकी संरचनामें प्रकृति और परमात्मा दोनोंकी ही भूमिका है। प्रकृतिके पांच तत्वोंसे देहका निर्माण हुआ है और प्राण अर्थात्ï जीवात्माने इसमें प्रवेश करके इसे जीवन्त बना दिया है। अत: अपने क्रियाकलापोंसे हमें इनका संरक्षण एवं संवर्धन ही करना चाहिए। इनकी उपेक्षाका अर्थ हे देह एवं प्राणोंका निरन्तर क्षरण, जबकि भौतिक सुखोंके भोगमें दोनोंकी ही प्रमुख भूमिका है। आदि सनातन धर्मका उदय इसी सत्यको उजागर करनेके लिए हुआ है जिसमें जल-जंगल-जमीन वायु, पेड़-पौधों, पर्वतों एवं नदियोंकी पूजाका विधान इसीलिए बनाया गया है, ताकि हम इनके संरक्षण एवं संवर्धनसे समस्त सुखोंकी प्राप्ति कर सकें। फलस्वरूप प्राणवायु अर्थात्ï आक्सीजन भरपूर मात्रामें उपलब्ध थी और प्राणायामके माध्यमसे श्वासोंको नियंत्रित करके इनसान स्वस्थ एवं दीर्घजीवी बना रहता था। सुख-सुविधाओंके लिए बुद्धि-विवेक एवं श्रमका उपयोग आवश्यक एवं प्रशंसनीय है किन्तु जिस देहके माध्यमसे हमें सुख एवं शान्ति प्राप्त होती है उसके क्षरणको नियंत्रित किये बिना यह सर्वथा असम्भव है। आजका इनसान इस अटल सत्यको भूलकर स्वयंको ही सर्जक एवं नियंता मान बैठा है। प्रकृति और परमात्मा उसकी सोचसे निरन्तर दूर होते जा रहे हैं। अत: न तो उसे पर्यावरणकी चिन्ता है, न ही प्राणवायुकी जो पर्यावरणके प्रदूषणसे निरन्तर दूषित होती जा रही है। देहकी रक्षाके लिए वैद्यजनोंने जलवायु एवं मानवकी प्रकृतिके अनुसार खान-पान एवं दिनचर्याके सूत्र बताये हैं किन्तु सर्वप्रथम पश्चिमके लोगोंने इनकी उपेक्षा की और आज भारत जैसा सुसंस्कृत देश उनका अनुसरण कर अपनी सुख-शान्ति एवं स्वास्थ्यको नष्टï करनेमें लगे हैं।
परमपिता परमेश्वरने हमारे शरीरमें अतुलनीय प्रतिरक्षा तंत्रका समावेश किया है, ताकि हमपर वातावरणमें उत्पन्न होनेवाले विषाणुओंका दुष्प्रभाव न पड़ सके। किन्तु शरीर रक्षाके सारे मानदण्ड हम दिन-प्रतिदिन ध्वस्त करने जा रहे हैं और वातावरणमें मौजूद विषाणु हमपर हावी होने लगे हैं। कोरोना नामक बीमारीको चीनका जैविक हमला कहकर हम अपने अपराधोंपर पर्दा भले ही डाल लें किन्तु इस अटल सत्यको माननेपर विज्ञान जगत भी मजबूर है कि जिसका प्रतिरक्षातंत्र सशक्त है उसपर इस विषाणुका प्रभाव नगण्य है और प्रतिरक्षातंत्र इनसानकी दिनचर्या, जीवनशैली एवं मानसिक सुख एवं शान्तिपर पूर्णतया निर्भर है। शायद ही किसीको यह ज्ञान न हो कि पेड़-पौधे वातावरणमें व्याप्त कार्बन डाई आक्साइडका भक्षण कर हमें प्राणदायी आक्सीजन प्रदान करते हैं। कोरोना महामारी इन्हीं दो कारणोंसे हमपर हावी हो रही है। हम अपनी जलवायु एवं प्रकृतिके अनुरूप खान-पान एवं जीवनशैलीसे दूर होते जा रहे हैं जो हमारे प्रतिरक्षातंत्रको सशक्त बनाये रखनेका एकमात्र माध्यम है। दूसरी है शुद्ध वायु आक्सीजन जो हमें जंगल, पहाड़ों, नदियों एवं पेड़-पौधोंसे प्राप्त होती रहती है। किन्तु अपनी भौतिक एवं विलासितापूर्ण जीवनशैलीकी पूर्तिके लिए हम इनकी दिन-प्रतिदिन उपेक्षा ही करते जा रहे हैं। फलस्वरूप प्रतिरक्षातंत्रकी कमजोरीसे व्याप्त कोरोनाके विषाणु हमारी श्वसन प्रणालीपर हमला करके उसे तीव्रतासे बाधित करते हुए मृत्युका मार्ग प्रशस्त करते जा रहे हैं और हम प्राणवायु आक्सीजनका अभाव अपनी अधिकांश ऊर्जा एवं अकूत धन खर्च करनेके लिए मजबूर हो रहे हैं। भौतिक संसाधन जुटानेके प्रयासमें प्राणोंकी आहूति देना किसी भी दृष्टिïसे बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती, क्योंकि जब प्राण ही चले जायंगे तो मृत शरीर उनका उपभोग कैसे कर सकता है।
कोरोनासे सभी देश इसलिए प्रभावित है कि विभिन्न देशोंने भले ही धरती बांट ली हो किन्तु वायुमंडलका बंटवारा असम्भव है। अत: विश्वके समस्त देशोंका दायित्व होता है कि पर्यावरणकी रक्षामें तनिक भी कोताही न करें, क्योंकि जान है जो जहान है, का फार्मूला अकाट्य है। वायुमण्डलसे आक्सीजनका दोहन नि:सन्देह एक उपलब्धि है। किन्तु कृत्रिम रूपसे उसका उत्पादन करनेसे अच्छा है कि हम प्राकृतिक रूपसे उसके उत्पादनमें यथाशक्ति सहभागी बनें। आदि सनातन संस्कृतिने विश्वके समस्त प्राणियोंके हितका चिन्तन किया है किन्तु वर्तमानमें विश्व अनेक भागोंमें विभक्त हो गया है और अभी सिर्फ अपने हितका चिन्तन करनेमें लगे हैं। इतना ही नहीं, अपना हित करनेकी मानसिकतासे दूसरे देशका अहित करनेमें तनिक भी कोताही नहीं करते। बस इसी मानसिकताके चलते सभी किसी न किसी संकटसे जूझ रहे हैं। कोरोना नामक महामारीने सिद्ध कर दिया है कि जबतक सभीकी सोच एक-दूसरेका हित करनेकी बजाय अहित करनेकी रहेगी तबतक कोई भी देश समस्याओंसे कभी भी मुक्त नहीं हो सकता। वसुधैव कुटुम्बकमकी सोचके साथ सर्वे भवन्तु सुखिन:। सर्वे संतु निरायमय: का महामंत्र ही मानव जातिके कल्याणका एकमात्र मार्ग है। इसके बावजूद दूसरी लहर एवं तीसरी लहरका भय भी कायम है। रही-सही कसर ब्लैक फंगस नामक मारक बीमारी पूरी करनेमें तत्पर है।
स्वयंको बुद्धिजीवी कहनेवाला इनसान इस अटल सत्यसे इनकार करनेका दुस्साहस इसीलिए कर रहा है कि आधुनिक विज्ञान सनातन धर्मके इस सिद्धान्तको नकारनेपर तुला है कि हमारा शरीर प्रकृतिके पंचभौतिक तत्वोंसे बना है। अपने मूलकी उपेक्षा करनेसे ही सम्पूर्ण विश्व भिन्न-भिन्न महामारियों एवं प्राकृतिक आपदाओंसे ग्रस्त होकर नित नयी पीड़ाएं झेल रहा है। हमारे मनीषियोंका यह सिद्धान्त भी दिन-प्रतिदिन उपेक्षित होता जा रहा है कि पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख टेटमें माया। किन्तु कोरोनाकी त्रासदीने धन-बलपर इतरानेवाले अमेरिकाको भी यह सोचनेपर मजबूर कर दिया है कि स्वस्थ शरीरके अभावमें भौतिक सुख एवं वैभव अर्थहीन हैं। वायुमण्डलको शुद्ध करनेके लिए हवन एवं यज्ञ जैसी प्रथाएं भारतवर्षमें ही प्रचलित हैं जबकि रूसी वैज्ञानिक शिरोविचने शोधके द्वारा सिद्ध कर दिया है कि यज्ञकुण्डमें घी-चावल, जौ एवं तिल आदिकी आहुतियां देनेसे टनों आक्सीहन उत्पन्न होती है। साथ ही अन्य प्रकारकी गैसोंकी उत्पत्ति वर्षा एवं अन्न उत्पादनमें सहायक होती है। बावजूद अपने अहंकारके चलते प्रकृतिको ही अपनी मु_ïीमें करनेपर तुले हैं जो सर्वथा असम्भव है। किन्तु कभी ब्लैक फंगस एवं अन्य बीमारियोंने आतंक प्रारम्भ कर दिया है। अत: प्रकृति और परमात्माका सम्मान करना सीखना ही होगा अन्यथा मानव संस्कृतिका लोप अवश्यंभावी है।