सम्पादकीय

लोकतांत्रिक देशमें दलबदलकी राजनीति


ऋतुपर्ण दवे      

इसमें कोई दो मत नहीं कि दुनियाका सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत है जहां लोक यानी जनता अपने भरोसेमंदों नुमाइंदे बनाकर जन उत्तरदायी व्यवस्थाओंकी संचालित प्रणालियोंकी अगुवाई और सुधारकी गुंजाइशोंकी जिम्मेदारी देती है। लोकतंत्रके यह पहरु, आम चुनावोंके जरिये चुने जाकर देश-प्रदेशकी सरकारोंसे लेकर गांवकी पंचायतोंतकमें पक्ष-विपक्षमें बैठकर आमजनके हितके कानून और सुख, सुविधाओंकी जिम्मेदारियां निभाते हैं। निश्चित रूपसे संविधान बनाते समय यही सोच इसके केन्द्रमें रही होगी। लेकिन तब शायद राजनीतिक दलोंको लेकर संशय न रहा होगा इसीलिए १९५० के मूल संविधानमें जिक्र नहीं था। लेकिन सालभर बाद ही जन-प्रतिनिधित्व कानूनमें जिक्र हुआ। १९६८ तक चुनाव चिह्नïोंको एलॉट किये जानेके नियम बने। निश्चित रूपसे इससे लोकतंत्र बेहद मजबूत हुआ। लेकिन एक आम कहावत है कि हर मजबूत इनसान या तंत्रमें कोई न कोई कमजोरी या खामी निकल ही आती है जो सवाल भी बनती है और दर्द भी। यहां भी ऐसा ही हुआ। आज लाख कोशिशोंके बाद वही सवाल, भारी बहुमतसे बने और बनाये गये तमाम कानून लोकतांत्रिक व्यवस्थोंको ही आईना दिखाते हुए दिखते हैं। दलबदल इन्हींमें एक सबसे भारी कमजोरीके रूपमें दलबदलोंकी निष्ठाओंपर ही सवाल उठाता है।

१९७० के दशकमें तब संविद सरकारोंके सफल होते ही लोकतंत्रमें आयाराम-गयारामकी नयी राजनीति हुई। विधायकोंके खरीद-फरोख्तका जो खेल चला वह थमना तो दूर उल्टा संसदसे लेकर विधान सभाओंतकमें नासूर बनता गया। इसकी रोकथामके लिए रिकॉर्ड बहुमतके साथ १९८५ में राजीव गांधीकी सरकारने तमाम कोशिशें कीं। दसवीं अनुसूचीमें संशोधन करके दलबदल विरोधी कानून बनावाया। विधायकों और सांसदोंके पार्टीसे इस्तीफा देने या ह्विïप उल्लंघनपर सदस्यता खात्मेतकका नया कानून बना। लेकिन दलबदलुओंने यहां भी रास्ता निकाल लिया जो बदले तौर-तरीकोंसे बदस्तूर जारी है। कहीं दो-तिहाई विधायकोंको तोडऩे या मिलाना तो कभी मसल या मनी पावर या फिर हवाई जहाजोंसे अपनी-अपनी राज्य सरकारोंकी निगरानीमें सैर-सपाटेके नामपर फाइव स्टार होटलों, रिजाट्र्समें नजरबन्दीका खेल भी देश खूब देख रहा है। यकीनन दलबदल कानून कितना भी प्रभावी बनाया गया, राजनीतिकी बिसातके आगे पूरी तरहसे निष्प्रभावी और निरीह दिखने लगा।

चुनाव और राजनीतिक सुधारोंकी हिमायती संस्था एसोसियेशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स यानी एडीआरकी एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि सन् २०१६ से २०२० के बीच हुए चुनावोंके दौरान कांग्रेस, भाजपा समेत कई दलोंके नेता दूसरेमें शामिल हुए। ४३३ सांसदों एवं विधायकोंके शपथ पत्रोंके विश्लेषणके आधारपर तैयार रिपोर्ट बताती है कि कांग्रेसके १७० यानी ४२ प्रतिशत विधायक दूसरे राजनीतिक दलोंमें चले गये तो भाजपाके भी १८ यानी ४.४ प्रतिशत विधायकोंने पार्टी बदली। चुनाव लडऩेकी नीयतसे इस चार सालके दौरान ४०५ विधायकोंमेंसे १८२ यानी ४४.९ प्रतिशत भाजपामें, ३८ यानी ९.४ प्रतिशत विधायक कांग्रेस और २५ यानी ६.२ प्रतिशत विधायकोंने तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) का दामन थामा। इसी तरह २०१९ लोकसभा चुनावके दौरान १२ सांसदोंने दल-बदल किया, जिसमें पांच यानी ४१.७ प्रतिशतने भाजपा छोड़ी। जबकि सात यानी ४३.८ प्रतिशतने राज्यसभा चुनाव खातिर कांग्रेस छोड़ी। वहीं २०१६ से २०२० के बीच हुए राज्य सभा चुनावोंके दौरान १६ में दस यानी ६२.५ प्रतिशत दल-बदलकर भाजपामें शामिल हुए। दल-बदल या इसके लिए हुए इस्तीफोंके चलते मध्यप्रदेश, मणिपुर, गोवा, अरुणाचल प्रदेश और कर्नाटककी सरकारें गिरी। जहां उपचुनाव हुए, वहां वही चेहरे दूसरों दलोंके नुमाइंदे बने और जीते भी। लगता नहीं कि चुनाव व्यक्तिगत राजनीतिक महत्वकांक्षाओं या हित साधनेके लिए निष्ठा बदले जानेका दूसरा नाम बनता जा रहा है। एकदम नया उदाहरण पश्चिम बंगाल और बिहारका है जहां तृणमूल कांग्रेससे बगावत कर भाजपासे विधायक बने मुकुल रायने तुरन्त घरवापसी कर भारतीय राजनीतिमें जबरदस्त सनसनी फैला दी। अब जबकि भाजपा उनकी अयोग्यता संबंधी दस्तावेज तैयार कर रही है तो मुकुल राय दो दर्जनसे ज्यादा विधायकोंकी घर वापसी करानेके कयासोंसे सुर्खियोंमें हैं। वहीं बिहारमें लोजपामें दो फाड़के छहमेंसे पांच सांसदोंने नया गुट बना लिया जिसे लोकसभा अध्यक्षने मान्यता भी दे दी। निश्चित रूपसे यहां भी राजनीतिक शह-मात और घरवापसीका खेला भी चलेगा।

अब देशभरकी निगाहें आगामी पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुरपर है जहां पंजाबमें कांग्रेस बाकी जगह भाजपाकी सरकारें हैं। ठीक इसी वक्त भाजपा नेता राजवर्धन सिंह राठौड़का बयान कि उनकी पार्टीके दरवाजे देशको प्राथमिकता देनेवालोंके लिए खुले हैं, के बहुत गहरे मायने हैं क्योंकि राजस्थानकी कांग्रेस सरकारमें कलह तो उत्तर प्रदेशमें बसपा और सपाके बीच विधायक तोडऩेकी जंग छिड़ी है। ऐसेमें यह न्यौता दल-बदलको प्रोत्साहन ही है। दल-बदलके कई दिलचस्प उदाहरण हरियाणामें दिखे। उनमें एक है जब १९७७ में देवीलालकी जनता पार्टी सरकार बनी। १९७९ में भजनाल तीन मंत्रियोंको रिझा इस्तीफा दिलाकर सरकार गिरवा खुद मुख्य मंत्री बन गये। १९८० में इन्दिरा गांधीकी वापसीके बाद लगा कि कहीं उनकी सरकार भी न गिरा दी जाय। उन्होंने बिना देरी किये अपने पालेके ३७ विधायकोंको कांग्रेसमें शामिल करा भारतके इतिहासमें पहली बार रातों-रात जनता पार्टीकी सरकारको सुबह होते-होते कांग्रेसी बना दी। सवाल जहांका तहां दल-बदल उस मतदाता और लोकतंत्रकी कसौटीपर कितना खरा। मतदाता चुनता किसीको है, वही सदनमें पहुंच किसी औरको हो जाता है। जाहिर है अप्रत्यक्ष ही सही किसी दलका मत दूसरेको ट्रांसफर हो जाता है। ऐसेमें निर्दलीयोंके भाव भी बेकाबू हो जाते हैं। इसके कानूनी पहलू कुछ भी हों, तिकड़म और तकनीकी रूपसे खामियां तो भरपूर हैं जिससे बहुमतका जुगाड़ हो जाता है। ऐसेमें दल-बदल कैसे रुक पायेगा। दलबदल रोकनेसे ही सजीव लोकतंत्रकी सुगंध बरकरार रह आगे बढ़ेगी वरना धीरे-धीरे इसमें भी कहीं दुर्गंध न आने लग जाय।