सम्पादकीय

लाकडाउन ही अंतिम विकल्प


डा. श्रीनाथ सहाय   

भारत ही नहीं, विदेशी विशेषज्ञ भी मौजूदा संकटमें लाकडाउनको उपयोगी मान रहे हैं। वहीं स्वास्थ्य विशेषज्ञोंका कहना है कि कोरोनाकी तीसरी लहर भी आ सकती है। कोरोनाकी रोकथामके लिए प्रदेश सरकारें अपने हिसाबसे आंशिक लाकडाउन और कफ्र्यूका सहारा ले रही हैं। वहीं खबरें यह भी आ रही है कि सरकार पिछले सालकी भांति सम्पूर्ण लाकडाउन लगाकर स्थिति संभालनेकी कोशिश करेगी। इस बीच सम्पूर्ण लाकडाउनकी उड़ती खबरोंको लेकर इस बातकी चर्चाएं शुरू हो गयी है कि क्या लॉकडाउन ही कोरोनाकी रोकथामका अंतिम उपाय है? यदि सम्पूर्ण लाकडाउन लगेगा तो अर्थव्यवस्थासे लेकर गरीब तबकेका क्या होगा? आखिरकार लाकडाउन कितने समयतक लगेगा? सवाल कई हैं, लेकिन वर्तमानमें इन सवालोंका जवाब किसीके पास भी नहीं है। कोरोनासे निबटनेका पिछली बार एक पक्ष था, लेकिन इस बार ऐसा नहीं है। हर पक्षका एक विपक्ष खड़ा हो रहा है तो कहीं बेचैनी है तो कहीं मजबूरियोंसे आजिज हकीकत सामने हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि लाख कोशिशोंके बावजूद देशके हालात फिर वहीं पहुंच गये हैं, जहां नहीं पहुंचने थे। केंद्र और राज्य सरकारोंने हरसम्भव कोशिश कर ली। हाईकोर्टकी फटकारकी भी परवाह नहीं की।

सुप्रीम कोर्ट जाकर अपने लिए खास मंजूरी ले आये कि लाकडाउन न लगाना पड़े। लेकिन आखिरकार उन्हें भी लाकडाउन ही आखिरी रास्ता दिख रहा है। महाराष्टï्रने सख्ती दिखाई तो फायदा भी दिख रहा है। अप्रैलके आखिरी दस दिनोंमें सिर्फ मुंबईमें कोरोना पॉजीटिव मामलोंमें ४० प्रतिशतकी गिरावट दर्ज की गयी है। जहां २० अप्रैलको शहरमें ७,१९२ मामले सामने आये, वहीं २९ अप्रैलतक यह गिनती गिरकर ४,१७४ पहुंच चुकी थी। २१ अप्रैलसे सरकारने राज्यमें लगभग लाकडाउन जैसे नियम लागू कर दिये थे, उसीका यह नतीजा है और अब यह सारी पाबंदियां १५ मईतक बढ़ायी जा रही हैं। सीएमआईईकी ताजा रिपोर्ट बताती है कि पिछले सालभरमें ९८ लाख लोगोंकी नौकरी गयी है। २०२०-२१ के दौरान देशमें कुल ८.५९ करोड़ लोग किसी न किसी तरहकी नौकरीमें लगे थे और इस साल मार्चतक यह गिनती घटकर सिर्फ ७.६२ करोड़ रह गयी है और अब कोरोनाका दूसरा झटका और उसके साथ जगह-जगह लाकडाउन या लाकडाउनसे मिलते-जुलते नियम-कायदे रोजगारके लिए दोबारा नया खतरा खड़ा कर रहे हैं। शहरोंमें बीमारीके असर और फैलनेपर तो इन पाबंदियोंसे रोक लगेगी, लेकिन इस चक्करमें लाखोंकी रोजी-रोटी एक बार फिर दांवपर लग गयी है और साथमें दूसरे खतरे भी खड़े हो रहे हैं। सबसे बड़ा डर फिर वही है, जो पिछले साल बेबुनियाद साबित हुआ। शहरोंसे जानेवाले लोग अपने साथ बीमारी भी गांवोंमें पहुंचा देंगे। यह डर इस बार ज्यादा गहरा है, क्योंकि इस बार गांवोंमें पहले जैसी चौकसी नहीं दिख रही है। बाहरसे आनेवाले बहुतसे लोग बिना क्वारंटीन या आइसोलेशनकी कवायदसे गुजरे सीधे अपने-अपने घरतक पहुंच गये हैं और काममें भी जुट गये हैं। दूसरी तरफ, चुनाव प्रचार और धार्मिक आयोजनोंके फेरमें बहुतसे गांवोंतक कोरोनाका प्रकोप पहुंच चुका है।

शहरोंके मुकाबले गांवोंमें जांच भी बहुत कम है और इलाजके साधन भी। इसलिए यह पता लगना भी आसान नहीं कि किस गांवमें कब कौन कोरोना पाजीटिव निकलता है और पता चल भी जाय तो इलाज मिलना और मुश्किल। संकट इस बातसे और गहरा जाता है कि हमारी अर्थव्यवस्था अभीतक पिछले सालके लाकडाउनके असरसे पूरी तरह निकल नहीं पायी है। अब यदि दोबारा वैसे ही हालात बन गये, तो फिर झटका गंभीर होगा। हालांकि अभीतक तमाम अंतरराष्टï्रीय संस्थाओं, क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों और ब्रोकरेजेजने भारतकी जीडीपीमें बढ़तके अनुमान या तो बरकरार रखे हैं या उनमें सुधार किया है। लेकिन साथ ही उनमेंसे ज्यादातर चेता चुके थे कि कोरोनाकी दूसरी लहरका असर इसमें शामिल नहीं है और यदि दोबारा लाकडाउनकी नौबत आयी तो हालात बिगड़ सकते हैं।

रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड ऐंड पूअर्सने चेतावनी दी है कि कोरोनाकी दूसरी लहरसे फिर कारोबारमें अड़चनका खतरा है और इसकी वजहसे भारतकी आर्थिक तरक्कीको गम्भीर नुकसान हो सकता है और इसकी वजहसे एजेंसी भारतकी तरक्कीका अपना अनुमान घटानेपर मजबूर हो सकती है। एसऐंडपीने इस साल भारतकी जीडीपीमें ११ प्रतिशत बढ़तका अनुमान दिया हुआ है, लेकिन उसका कहना है कि रोजाना तीन लाखसे ज्यादा मामले आनेसे देशकी स्वास्थ्य सुविधाओंपर भारी दबाव पड़ रहा है, ऐसा ही चला तो आर्थिक सुधार मुश्किलमें पड़ सकते हैं। कमसे कम सरकार, बाजार, व्यापार और निजी क्षेत्रके सरोकार अपनी ओरसे प्रयत्नशील हैं कि किसी भी सूरत लाकडाउन न लगे। इसका यह अर्थ नहीं कि इस समय जानबझ कर जान जोखिममें डाली जाय या किसी भी छूटके अहसासमें सौ फीसदी कार्य करना होगा। निजी क्षेत्रके विभिन्न सेक्टर यदि नब्बे फीसदी कार्य करें तो भी वर्तमान परिस्थितियां उन्हें उबरनेका मौका नहीं देंगी, लेकिन यहां तो कोशिश कमसे कम पचास फीसदीतक करनेकी है। पहले ही बसें अपनी क्षमताके बीस या तीस फीसदीपर जीनेका बहाना और दायित्वकी जरूरत पूरी कर रही हैं और यदि इस चक्रमें भी संघर्षकी दावत या बगावतमें आवाज उठने लगी तो लाकडाउन कुछ ही दूरी पर खड़ा होगा।

यूं ही देशमें औद्योगिक उत्पादनकी हालत ठीक नहीं है और लंबे दौरके हिसाबसे यहां जीडीपीके दस प्रतिशततकका नुकसान हो सकता है। रिसर्च नोटमें कहा गया है कि भारतमें कोरोनाके मामलोंकी बढ़ती गिनतीसे विदेशी निवेशक व्याकुल हो रहे हैं और घबराहटमें पैसा निकाल सकते हैं। लेकिन शेयर बाजारसे ज्यादा बड़ी फिक्र है कि हमारे शहरोंके बाजार खुले रहेंगे या नहीं। यदि वहां ताले लग गये तो फिर काफी कुछ बिगड़ सकता है और इस वक्त खतरा यही है कि कोरोनाको रोकनेके दूसरे सारे रास्ते नाकाम होनेपर सरकारें फिर एक बार लाकडाउनका ही सहारा लेती नजर आ रही हैं। अभीतक सभी जानकार इसके खिलाफ राय देते रहे हैं और सरकारें भी पूरी कोशिशमें रहीं कि लॉकडाउन न लगाना पड़े। अर्थशास्त्री भी मान रहे हैं कि कोरोनाकी दूसरी लहर ज्यादा खतरनाक होनेके बावजूद अर्थव्यवस्थापर उसका असर शायद काफी कम रह सकता है, क्योंकि लॉकडाउन नहीं लगा है। परन्तु अब जो नये हालात दिख रहे हैं, उसमें भारतीय अर्थव्यवस्था कबतक और कितनी बची रहेगी, कहना मुश्किल है। उद्योग जगतकी प्रतिनिधि संस्था सीआईआईने देशमें संक्रमणके विस्तारको नियंत्रित करनेके लिए आर्थिक गतिविधियोंमें कटौती तथा सख्त कदम उठाये जानेकी मांग की है। निश्चिय ही अब केंद्र सरकारको पिछले लाकडाउनके दुष्प्रभावोंसे सबक लेकर संक्रमणके चक्रको तोडऩेका प्रयास करना चाहिए। लेकिन सरकारको लॉकडाउन लगानेसे पहले कमजोर वर्गके लोगोंको व्यापक राहत देनेका कार्यक्रम लागू करना चाहिए।