सम्पादकीय

आर्थिक समस्याको बढ़ाता मुद्रीकरण


डा. वरिंदर भाटिया     

भारतीय अर्थव्यवस्थाको मजबूती देनेके लिए सरकारको नोट छापनेके सुझाव दिये जा रहे हैं। भारतमें १९९७ तक आरबीआई सरकारी घाटेकी भरपाई नये करंसी नोट छापकर करता रहा है। हालांकि इस तरहसे सरकारी घाटेकी भरपाई करनेके काफी नुकसान भी होते हैं। इसीलिए १९९४ में तत्कालीन वित्तमंत्री और तत्कालीन आरबीआई गवर्नरने १९९७ से इस सुविधाको बंद करनेका फैसला किया। लेकिन मौजूदा हालातमें अनेक अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि सरकारको वित्तीय घाटेकी भरपाईके लिए नये करेंसी नोट छपवाने ही होंगे। उनका कहना है कि सरकारी कर्जके मुद्रीकरणके बिना मांगमें इतनी बड़ी वृद्धिका प्रबंधन नहीं किया जा सकता है। लेकिन ऐसे कई कारण हैं सरकारने अबतक आरबीआईसे नये करेंसी नोट छापनेके लिए नहीं कहा है। कुछ आर्थिक विशेषज्ञोंके मताबिक नोट छापकर अर्थव्यवस्थामें उपलब्ध करना बहुत ही जटिल मुद्दा है।

सरकारको इससे बचना चाहिए। इसके विकल्पके रूपमें निश्चित तौरपर संकटके इस दौरमें सरकारको कर्ज लेकर ज्यादासे ज्यादा खर्च चाहिए। यह सरकारकी एक बड़ी जिम्मेदारी है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि १९९१ में भुगतान संकट और २०१३ में नजदीकी वित्तीय संकट वित्तीय लापरवाहीका ही परिणाम था। आखिर नये करेंसी नोट छापकर प्रसारित करनेमें सरकारी दिक्कत क्या हो सकती है। इसका जवाब करेंसी नोटकी छपाईसे नहीं, बल्कि इसकी वापसीसे जुड़ा है। विशेषज्ञोंके मुताबिक सरकारको मांग बढ़ानेके लिए यह सुविधा दी जाती है। लेकिन यदि सरकार जल्दसे जल्द इसका भुगतान नहीं कर पाती है तो दूसरे आर्थिक संकटकी समस्या खड़ी हो जाती है। नये करेंसी नोट और पुराने नोट एक साथ चलनमें आनेपर महंगी आसमान छूने लगती है।

आर्थिक संकटके हालात कैसे बनते हैं, हमें इसे समझना होगा। सरकार नये छापे गये नोटोंका इस्तेमाल लोगोंकी आय और निजी मांग बढ़ानेमें करती है। इससे महंगी बढ़ जाती है। महंगीमें हल्की वृद्धि अर्थव्यवस्थाके लिए अच्छी मानी जा सकती है, लेकिन यदि सरकार इसे समयपर नहीं थाम पाती तो पुरानी और नयी करेंसीके चलनमें आनेसे बाजारमें पैसेकी बाढ़-सी आ जाती है। इससे महंगी आसमान छूने लगती है। जबतक सरकार इस उच्च मुद्रास्फीति यानी महंगीसे निबट पाती है, तबतक काफी देर हो चुकी होती है। सरकारको यह समझनेमें देरी हो चुकी होती है कि उन्होंने जरूरतसे ज्यादा कर्ज ले लिया। उच्च मुद्रास्फीति और बड़ा सरकारी कर्ज इकोनॉमीमें अस्थिरताकी जमीन तैयार कर देता है। इस समय भारतकी अर्थव्यवस्थाकी सबसे बड़ी परेशानी उसका मांग पक्ष है। इस समय काफी लोगोंके पास पैसे नहीं हैं कि वह खर्च करें, यानी कि अर्थव्यवस्थामें खरीदनेवाले खरीददारी नहीं कर रहे हैं। इस मांग पक्षको बढ़ानेके कई तरीके हो सकते हैं। जिनके पास रोजगार नहीं है, उन्हें रोजगार दिया जाय। इसके अलावा दूसरी तरीके भी अपनाये जा सकते हैं। लेकिन इन सबके लिए पैसेकी जरूरत पड़ेगी। पैसेको लेकर सलाह दी जा रही है कि सरकारको नोट छापना शुरू कर देना चाहिए।

सरकारको नोट छापनेका सुझाव इसलिए भी दिया जा रहा है क्योंकि अर्थव्यवस्थाकी हालत ठीक नहीं है। पिछले साल कुछ बड़े अर्थशास्त्रियोंने सुझाव दिया था कि गरीब तबकेके अकाउंटमें सीधे पैसा भेजा जाना चाहिए और इसके लिए सरकारको नये नोट छापने चाहिए। याद रहे कि हर देशकी अर्थव्यवस्था डिमांड और सप्लाईके नियमपर चलती है। यदि डिमांड और सप्लाईका संतुलन बिगड़ जाय तो अर्थव्यवस्थामें या तो गिरावट आयगी या बेहताशा महंगी बढ़ जायगी। अभी देशकी अर्थव्यवस्थामें जरूरत है डिमांड बढ़ाने की, लेकिन इसके साथ ही खूब सारा पैसा छापकर लोगोंमें बांटनेवाली इकनॉमिक्स इतनी सीधी नहीं है। इसे एक उदाहरणसे समझते हैं। मान लीजिए एक देशमें सिर्फ पांच ही लोग रहते हैं और हर आदमीकी सालाना आमदनी दस रुपये है। यानी पांच लोगोंके पास कुल ५० रुपये। इस देशमें सालके सिर्फ पांच किलो चावल ही होते हैं जो दस किलोके भावसे मिलते हैं।

अब मान लीजिए इस देशमें ज्यादा पैसे छापे जाते हैं तो लोगोंकी आमदनी दस रुपयेके बजाय बीस रुपये हो जाती है। अब लोगोंके पास ज्यादा पैसा आ गया तो वह ज्यादा चावल खरीदना चाहते हैं। लेकिन चावल तो पहले जितना ही है। बस उसकी डिमांड बढ़ गयी। इसलिए उसकी कीमत भी बढ़ जायगी। यानी महंगी बढ़ जायगी। ज्यादा पैसा छापनेका सबसे बड़ा खतरा महंगी बढऩा ही है। हमारे पास कई देशोंके उदाहरण हैं जहां ज्यादा पैसे छाप लिये तो महंगी हजारों गुना बढ़ गयी। हालिया उदाहरण जिम्बाब्वे और वेनेजुएलाके हैं। वहां अर्थव्यवस्थाको खराब हालतसे निकालनेके लिए सरकारोंने मुद्रा छपवायी। बाजारमें पैसा बढ़ा तो मांग भी बढ़ी। चीजोंकी कीमतें भी बढऩे लगी। जिम्बाब्वेमें तो २००८ में महंगीकी वृद्धि दर करोड़ोंमें पहुंच गयी थी। हालात यह हो गये कि छोटी-सी चीज खरीदनेके लिए भी बोरा भरकर पैसा लाना पड़ता था। ऐसा ही हाल हमने कुछ बरस पहले वेनेजुएलामें देखा। इस स्तरतक महंगी बढऩेको अर्थशास्त्रकी शब्दावलीमें हाइपरइंफ्लेशन कहा जाता है और किसी देशकी अर्थव्यवस्था यदि एक बार हाइपरइंफ्लेशनमें पहुंच जाय तो फिर वहांसे निकलना मुश्किल होता है। इस तरह नोट छापना हमारे लिए एक बड़ा नुकसान साबित हो सकता है।