सम्पादकीय

विदेशी मालपर जनस्वास्थ्य स्वाहा


डा. भरत झुनझुनवाला       

सन्ï १९७० में भारतमें बिकनेवाली दवाओंमें बहुराष्ट्रीय कम्पनियोंका दो-तिहाई हिस्सा था। इसके बाद सरकारने प्रोडक्ट पेटेंटको निरस्त कर दिया। पेटेंट, यानी नये अविष्कारोंको बेचनेका एकाधिकार दो तरहसे बनाये जाते हैं। प्रोडक्ट पेटेंटमें आप जिस माल (प्रोडक्ट) का आविष्कार करते हैं और उसे पेटेंट करते हैं, उस मालको कोई दूसरा बनाकर नहीं बेच सकता है। इसके विपरीत प्रोसेस पेटेंटमें आप किसी मालको पेटेंट नहीं करते हैं, बल्कि उसको बनानेकी प्रक्रिया अथवा तकनीक (प्रोसेस) को पेटेंट करते हैं। प्रोसेस पेटेंटकी व्यवस्थामें कोई भी व्यक्ति पेटेंट किये गये मालको किसी दूसरे प्रोसेससे बना सकता है। जैसे, आपने लोहेको गर्म करके सरिया बनानेका पेटेंट ले लिया। प्रोडक्ट पेटेंटके अनुसार दूसरा कोई भी व्यक्ति किसी भी प्रक्रियासे सरिया नहीं बना सकता है। लेकिन प्रोसेस पेटेंटके अनुसार दूसरा व्यक्ति लोहेको पीटकर सरिया बनानेको स्वतंत्र है क्योंकि आविष्कारकने लोहेको गर्म करके सरिया बनानेका पेटेंट ले रखा है। सरियाके प्रोडक्टका पेटेंट उसे नहीं दिया गया है। प्रोसेस पेटेंटमें दूसरी तकनीकसे कोई व्यक्ति उसी मालको बना सकता है।

७० के दशकमें भारत सरकारने देशमें प्रोडक्ट पेटेंटको निरस्त कर दिया। इसका अर्थ हुआ कि जो दवाएं बहुराष्ट्रीय कम्पनियां बना और बेच रही थीं चूंकि उनके पास उन दवाओंके प्रोडक्ट पेटेंट थे, उन्हीं दवाओंको दूसरी तकनीकसे बनाकर बेचनेको भारतीय कम्पनियां स्वतंत्र हो गयी। परिणाम यह हुआ कि भारतीय कम्पनियोंने उन्हीं दवाओंको नयी तकनीकोंसे बनाना शुरू किया और १९९१ में तैयार दवा जिसे फार्मूलेशन कहते हैं उसमें भारतीय कम्पनियोंका दबदबा भारतमें ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्वमें स्थापित हो गया। साथ ही दवाओंको बनानेवाले कच्चे माल जिसे एक्टिव फार्मास्यूटिकल इंग्रीडिएंट्स या एपीआई कहते हैं, उनका ९९ प्रतिशत उत्पादन भारतमें होने लगा और केवल एक प्रतिशत आयात किया जाने लगा।

इसके बाद १९९५ में सरकारने विश्व व्यापार संघटनके अंतर्गत प्रोडक्ट पेटेंटको पुन: लागू कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि १९९१ में हम जो केवल एक प्रतिशत एपीआईको आयातित करते थे, वह २०१९ में बढ़कर ७० प्रतिशत आयात होने लगा। भारत इस बाजारसे लगभग बाहर हो गया। फॉर्मूलेशन यानी तैयार दवामें कमोबेश ऐसी ही स्थिति बन गयी है। पब्लिक हेल्थ फाउंडेशनके शक्तिवेल सेल्वाराजकी माने तो अगले छह वर्षोंमें तैयार दवा भी भारी मात्रमें आयातित होने लगेंगी और इस क्षेत्रमें भी चीनका दबदबा स्थापित हो जायगा।

इस परिस्थितिका सामना करनेके लिए सरकारने अगले छह वर्षमें ६,९४० करोड़ रुपये दवाओंके उत्पादनकी बुनियादी संरचना बनानेमें निवेश करनेका ऐलान किया है। १९ मेडिकल उपकरणके आयातको प्रतिबंधित कर दिया है। यह दोनों कदम सही दिशामें है परन्तु ऊंटके मुंहमें जीरे जैसे हैं। रकारको और अधिक प्रभावी कदम उठाने होंगे। पहला यह कि दवाओंपर आयात कर बढ़ाने होंगे। यह सही है कि आयात कर बढ़ानेसे हमारे देशके नागरिकोंको देशमें बनी महंगी दवाएं खरीदनी पड़ेगी। लेकिन प्रश्न देशकी स्वास्थ्य संप्रभुताका है। यदि कुछ समयतक सस्ती आयातित दवाएं न खरीदें और उन्हें स्वयं बनाना शुरू करें तो कुछ समय बाद हम भी सस्ती दवाएं बना लेंगे। इसलिए विषय तात्कालिक बनाम दीर्घ कालीन हितोंका है। अपनी दीर्घकालिक स्वास्थ्य संप्रभुताको स्थापित करनेके लिए हमें कुछ समयके लिए आयात कर बढ़ा देने चाहिए जिससे इनका उत्पादन देशमें होने लगे। इस दिशामें असोसिएशन ऑफ इंडियन मेडिकल डिवाइस इंडस्ट्रीके राजीव नाथने कहा है कि इस वर्ष फरवरीमें लागू किये गये बजटसे वह निराश हैं क्योंकि मेडिकल डिवाइसोंपर आयात कर नहीं बढ़ाये गये। उनके अनुसार घरेलू उत्पादनको प्रोत्साहन देनेके लिए आयात करोंको बढ़ाना ही होगा।

दूसरा कदम सरकारको नयी दवाओंके अविष्कारमें भारी निवेश करना होगा। वर्तमानमें कोरोनाके टीके बनानेवाली दो प्रमुख कम्पनियां एस्ट्रेजनेका और फाइजरको उनकी सरकारोंने भारी मात्रामें मदद की है और आज वह उन टीकोंको हमें बेचकर बिक्री मूल्यका ५० प्रतिशत रॉयल्टीके रूपमें हमसे वसूल कर रहे हैं। इनके सामने भारत सरकारने भारतकी अपनी कोवैक्सीन बनानेवाली भारत बायोटेकको मात्र ६५ करोड़ रुपयेकी मदद आविष्कार करनेके लिए की थी जो दिखावटी मात्र है। यदि भारत सरकारने अपनी दस-बीस फार्म कंपनियोंको टीका बनानेको रकम दी होती तो आज हम विश्वके तमाम देशोंको टीकेका निर्यात करके भारी रकम कम रहे होते। लेकिन दुर्भाग्य है कि हमारा स्वस्थ्य तंत्र अनेक दुव्यवस्थाओंका शिकार है। भारत सरकारने भारतीय कम्पनियोंको अविष्कारके लिए पर्याप्त मदद नहीं दी है। हमें मानकर चलना चाहिए कि आनेवाले समयमें कोरोनाका वायरस मुटेट कर सकता है अथवा नये रोग पैदा हो सकते हैं इसलिए आगेकी रणनीति बनानी होगी और वर्तमानमें ही अपने देशमें नये अविष्कारके लिए सरकारको निवेश करना होगा।

तीसरा कदम दवाओंके उत्पादनके लिए जरूरी बुनियादी संरचनामें निवेशका है। जैसा ऊपर बताया गया है सरकारने ६,९४० करोड़ रुपयके निवेशकी घोषणा की है लेकिन पॉली मेडिकेयरके हिमांशु वैद्यके अनुसार यह रकम यदि आनेवाले छह वर्षोंके अंतिम समयमें व्यय की गयी तो तबतक देशमें तैयार दवाओंपर भी चीनका कब्जा हो चुका होगा। तब यह निवेश चिडिय़ाके खेत चुग लेनेके बाद जाल बिछाने जैसा होगा। चौथा कदम सरकारको भारतीय कंपनियोंको निवेशके लिए रकम सस्ते ब्याज दरपर ऋण अथवा सब्सिडीके रूपमें देना चाहिए। अमेरिकी सरकारने ईस्टमैन कोडक कम्पनीको ५,७०० करोड रुपयेकी विशाल रकम २५ वर्षकी मियादपर दवाओंके कच्चे माल यानी एपीआई बनानेके लिए दिये हैं। विशेष यह कि यह रकम अमेरिकाके डिफेंस प्रोडक्शन एक्टके अंतर्गत दिये गये हैं अर्थात्ï अमेरिकी सरकार मानती है कि देशकी रक्षाके लिए यह रकम दी जा रहा है। इसी प्रकार भारत सरकारको अपनी कम्पनियोंको एपीआई और फॉर्मूलेशन बनानेके लिए भारी मदद करनी चाहिए अन्यथा देर हो जायगी।