सम्पादकीय

आध्यात्ममें नृत्य परम्परा


हृदयनारायण दीक्षित

भारतीय अध्यात्म आन्तरिक आनन्द है। आध्यात्मिक प्रभावसे लोग गाते-बजाते-नृत्य करते हैं। भारतके गांवोंमें भी नृत्य परम्परा रही है। मांगलिक उत्सवमें नृत्योंके आयोजन होते रहे हैं।

भारतके आदिवासी, वनवासी सहित अनेक समूहोंके नृत्य आकर्षक रहे हैं। मांगलिक उत्सवमें बच्चोंसे लेकर बूढ़े, बुजुर्ग भी आध्यात्मिक नृत्योंका आनन्द लेते रहे हैं। सभी राज्योंके भी अपने-अपने नृत्य हैं और वह अब भी होते हैं। उत्तर प्रदेशके अवध क्षेत्रमें लिल्ली घोड़ी और हुड़क नृत्यकी परम्परा रही है। लिल्ली घोड़ीमें लकड़ी या दफ्तीसे घोड़ी बनाते हैं। लकड़ी या अन्य किसी पदार्थसे बनी घोड़ीके भीतर सजा-धजा नर्तक नाचता है। बरातोंमें असली घोड़ीके नाचनेकी भी परम्परा रही है। नाटकोंकी भी परम्परा यहां रही है। उत्तर प्रदेश, बिहार विशेषतया भोजपुरी क्षेत्रोंमें नौटंकीका अपना मजा है। नौटंकीमें अनेक कथाएं लोकप्रिय थीं। राजा हरिश्चन्द्रकी कथा भारतीय मूल्यबोधसे जुड़ी है। अनेक कथाएं प्रेमके कथानकसे भरी-पूरी थीं। अब आरकेस्ट्राका चलन बढ़ा है। इसमें नृत्यमें आध्यात्मिक तत्व नहीं हैं। न प्रीतिका भाव है और न सौंदर्यबोधका पालन। नग्न देहकी परेड है। लोकनृत्य लोक कलाओंमें सुरक्षित है और शास्त्रीय नृत्य भी। यह कलाप्रेमियोंका मार्गदर्शन करते हैं। भारत विभिन्न परम्पराओंका देश है। लोक नृत्य परम्पराओंको दर्शाते हैं। इन लोक नृत्य विभिन्न सामाजिक आध्यात्मिक मांगलिक उत्सवोंमें प्रसन्नता व्यक्त करनेके माध्यम हैं जैसे कि ऋतुओं, बच्चोंका जन्म, त्यौहार आदि। हर त्योहारमें उत्सव जुड़े हैं। लोक नृत्य हमारे अभिन्न अंग बन जाते हैं। इन नृत्योंके दौरान पारम्परिक वेशभूषा या रंगमंचकी सामग्रीका उपयोग भी किया जाता है। भारतमें दो प्रमुख नृत्य रूप हैं- शास्त्रीय और लोक नृत्य। शास्त्रीय और लोक नृत्यके बीच अंतर है। शास्त्रीय नृत्यका नाट्य शास्त्रके साथ गहरा रिश्ता है। यह अनुशासित है। प्रत्येक शास्त्रीय नृत्यके विशिष्ट रूप हैं। लोक नृत्य संबंधित राज्य, जातीय या भौगोलिक क्षेत्रोंकी स्थानीय परम्परासे उभरा है। माना जाता है कि भारतमें शास्त्रीय नृत्यकी उत्पत्ति नाट्य शास्त्रसे हुई है। विद्वानोंके अनुसार भारतमें कुल नौ शास्त्रीय नृत्य हैं।

भारतीय लोकनृत्योंके अनेक स्वरूप और ताल हैं। इनमें अध्यात्म धर्म, व्यवसाय और समूहके आधारपर अन्तर है। मध्य और पूर्वी भारतकी जनजातियां (मुरिया, भील, गोंड, जुआंग और संथाल) सभी उत्सवोंपर नृत्य करती हैं। ऋतुओंके वार्षिक चक्रके लिए भी अलग-अलग नृत्य हैं। नृत्य धार्मिक, आध्यात्मिक अनुष्ठानोंका अंग है। नृत्योंकी उपस्थिति भारतीय गणतंत्र दिवसके आयोजनोंमें भी होती है। नेशनल स्टेडियमके विशाल क्षेत्र और परेडके आठ किलोमीटर लम्बे मार्गपर नृत्य करनेके लिए देशके सभी भागोंसे नर्तक दिल्ली आते हैं। भारतीय लोकनृत्योंको तीन वर्गोंमें समझा जा सकता है। पहला, वृत्तिमूलक जैसे जुताई, बुआई आदि है। दूसरा, आध्यात्मिक है। तीसरा, आनुष्ठानिक है। यह देवी या देवोंको प्रसन्न करनेसे जुड़ा है।

प्रसिद्ध लोकनृत्योंमें कोलयाचा (कोलियोंका नृत्य) है। पश्चिमी भारतके कोंकण तटके मछुआरोंके मूल नृत्य कोलयाचामें नौकायनकी भावभंगिमा दिखाई जाती है। महिलाएं पुरुषोंकी ओर रुमाल लहराती हैं। विवाहके अवसरपर युवा कोली (मछुआरे) नवदंम्पतिके स्वागतमें नृत्य करते हैं। नृत्यके चरमपर नवदम्पति भी नाचने लगते हैं। घूमर राजस्थानका सामाजिक लोकनृत्य है। महिलाएं लम्बे घाघरे और रंगीन चुनरी पहनकर नृत्य करती हैं। इस क्षेत्रका कच्ची घोड़ी नर्तक दर्शनीय है। ढाल और लम्बी तलवारोंसे लैस नर्तकोंका ऊपरी भाग दूल्हेकी वेशभूषामें रहता है। निचले भागको बांसके ढांचेपर कागजकी लुगदीसे बने घोड़ेसे ढका जाता है। भागड़ा पंजाब क्षेत्रका चर्चित लोकनृत्य है। यह भारत-पाकिस्तान सीमाके दोनों ओर लोकप्रिय है। ढोल गूंजता है। सभी नर्तक मिलकर गाते हैं। आंध्र प्रदेशकी लंबाड़ी जनजातिकी महिलाएं धीरे-धीरे झूमते हुए नृत्य करती हैं। पुरुष ढोल बजाने और गानेका काम करते हैं। कुचीपुड़ी भी महत्वपूर्ण है। मध्य प्रदेशमें मुरिया जनजातिका गवल-सींग (पहाड़ी भैंसा) नृत्यमें पुरुष सींगसे जुड़े शिरोवस्त्र गुच्छेदार पंखके साथ पहनते हैं। उनके चेहरोंपर कौड़ीकी झालर लटकती है। गलेमें ढोल लटकता है। उड़ीसामें जुआंग जनजाति बड़े सजीव अभिनयके साथ नृत्य करती हैं।

महाराष्ट्रके डिंडी और काला नृत्य आध्यात्मिक, धार्मिक उल्लासकी अभिव्यक्ति है। नर्तक गोल चक्कर घूमते हैं और छोटी लाठियां जमीनपर मारते हुए समूहगानके मुख्य गायक बीचों बीच खड़े ढोल वादकका साथ देते हैं। लयमें तेजी आते ही नर्तक दो पक्तियां बना लेते हैं और दाये पांवको झुकाकर बाये पांवके साथ आगे बढ़ते हैं। एक पुरुष इनके ऊपर चढ़कर लटकी दहीकी मटकी फोड़ता है। गरबा, गुजरातका सुप्रसिद्ध धार्मिक नृत्य है। यह नवरात्रिके दौरान ५० से १०० महिलाओंके समूूह द्वारा देवी अंबाके सम्मानमें किया जाता है। धार्मिक अनुष्ठानसे जुड़े तमिलनाडुके लोकनृत्य हैं। इनकी शैलियां यह पुरातन उपासनासे जुड़ी हैं। यह अध्यात्मिक हैं। तमिलनाडुका कराकम नृत्य मुख्यत: मरियम्मई (महामारीकी देवी) की प्रतिमाके समक्ष होता है। देवीसे महामारीका प्रकोप न फैलानेकी प्रार्थना की जाती है। कहते हैं कि नर्तकके शरीरमें देवी प्रवेश करती हैं। केरलमें हिन्दुओंके देवोंको प्रसन्न करनेके लिए थेरयाट्टम उत्सव नृत्य आयोजित किया जाता है।

अरुणाचल प्रदेश (भूतपूर्व पूर्वोत्तर फ्रंटियर एजेंसी ‘नेफाÓ) में सबसे ज्यादा मुखौटा नृत्य किये जाते हैं। यहां तिब्बतकी नृत्य शैलियोंका प्रभाव दिखाई देता है। याक नृत्य कश्मीरके लद्दाख क्षेत्र और असमके निकट हिमालयके दक्षिणी सीमावर्ती क्षेत्रोंमें किया जाता है। याकका रूप धारण किये नर्तक अपनी पीठपर चढ़े आदमीको साथ लिये नृत्य करता है। मुखौटा नृत्यकी अनूठी शैली छऊ झारखंडमें प्रचलित है। नर्तक पशु, पक्षी इन्द्रधनुष, या फूलका रूप धारण करता है। वह अभिनय करता है। छऊ नर्तकका चेहरा भावहीन होता है, इसलिए उसका शरीर ही पात्रके सम्पूर्ण भावनात्मक और आध्यात्मिक रंगको व्यक्त करता है। अध्यात्म भारतके मनकी सुंदर गतिविधि है। तैत्तिरीय उपनिषद्में अध्यात्मका विवेचन है। कहते हैं, अथ अध्यात्मम् अब अध्यात्मका वर्णन। शरीरमें नीचेका जबड़ा पूर्ववर्ण है। ऊपरका जबड़ा परवर्ण है। वाणी दोनोंके मिलनकी संधि है जिह्वा संधान है। इति अध्यात्मम् अध्यात्म पूरा हो गया। यहां अध्यात्ममें शरीरके अंगोंके उल्लेख हैं। मुख प्रधान अंग है। इसीके अंग जबड़े हैं। वह वर्ण हैं। वर्णसे ही वर्णन संभव है। वाणीकी शक्ति विलक्षण है। सारे अंग-उपांग प्रत्यक्ष हैं, भौतिक हैं। इन्हीं अंगोंका संयुक्त प्रसाद वाणी है और इन सबकी उपासना अध्यात्म है।