सम्पादकीय

रोगमुक्त बनाती आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति


डा. प्रदीप कुमार सिंह

आज जब भारत कोरोना महामारीसे संघर्ष कर रहा है एवं तीन लाखसे अधिक मौतें हो चुकी हैं, तब ऐलोपैथीको लेकर योगगुरु स्वामी रामदेवके बयानोंपर कुछ चिकित्सकों एवं इंडियन मेडिकल असोशिएशन (आईएमए) ने नाराजगी जतायी है। परन्तु यह विषय केवल स्वामी रामदेव या आइएमएका नहीं, बल्कि देशके १३९ करोड़ लोगोंसे जुड़ा है। इसलिए विवादको गहराईसे समझना आवश्यक है। एलोपैथी, आधुनिक चिकित्सा पद्धति या एविडेंस-बेस्ड मेडिसिन वैज्ञानिक शोधपर आधारित है। माना जाता है कि भारतमें ऐलोपैथीका प्रयोग पुतर्गालसे आये डाक्टरोंके माध्यमसे १६वीं सदीमें शुरू हुआ। तब पश्चिमी भारतके तटीय क्षेत्रोंपर पुर्तगालका कब्जा था। वर्ष १७९६ में चेचककी वैक्सीन विकसित हुई, जिससे भारतमें भी बीमारीसे बचाव हुआ। इस प्रकार इसपर लोगोंका विश्वास बढ़ गया। औपनिवेशिक कालमें अंग्रेजों द्वारा देशमें ऐलोपैथीका हेल्थ इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित किया गया एवं मॉडर्न मेडिकल साइंसकी शिक्षाका प्रसार हुआ। धीरे-धीरे उपचारकी यह पद्धति लोकप्रिय होती गयी। साथ ही शासन द्वारा आयुर्वेदकी उपेक्षा होती रही। तभीसे आयुर्वेद और ऐलोपैथीके बीच संघर्ष शुरू हो गया।

आयुर्वेद हजारों वर्ष पुरानी चिकित्सा पद्धति है। आयुर्वेद जीवनके विज्ञानको परिभाषित करता है। वेदोंमें विशेषकर अथर्वेदमें बीमारियों एवं औषधियोंका वर्णन मिलता है। चिकित्सा पद्धतिमें आगे विकास होनेपर दो ग्रंथों- चरक संहिता एवं सुश्रुत संहिताकी रचना हुई। चरक संहितामें महर्षि चरक द्वारा बीमारियोंके बारेमें विस्तारसे लिखा गया है। महान चिकित्साशास्त्री और शल्य चिकित्सक सुश्रुतने सुश्रुत संहितामें विभिन्न प्रकारकी सर्जरी और सैकड़ों दवाइयोंका उल्लेख किया है। उन्हें शल्य चिकित्साका जनक भी कहा जाता है। मान्यता है कि उन्होंने ही लगभग ढाई हजार वर्ष पहले प्लास्टिक सर्जरीकी पद्धति विकसित की थी। एक अन्य वर्गीकरणमें आयुर्वेदका आठ भागोंमें विस्तृत वर्णन मिलता है। इस प्रकार आयुर्वेद एक विकसित एवं सुव्यवस्थित चिकित्सा पद्धति है। यह भारतकी सांस्कृतिक विरासत, सनातन पहचान एवं सॉफ्ट पावर है। ऐलोपैथीके प्रति समाजमें बहुत आकर्षण रहा है, इसके कई कारण हैं। इस चिकित्सा पद्धतिमें प्राय: मरीजको तुरन्त राहत देनेवाली दवाइयां दी जाती हैं। प्राय: दवाइयां रेडीमेड-पीने, निगलने या शरीरमें सीधे इनजेक्ट करनेके लिए उपलब्ध रहती हैं, जो कि सुविधाजनक है। गम्भीर बीमारियोंमें जब रोगीके पास समय कम होता है, यही चिकित्सा पद्धति उपयुक्त मानी जाती है। इस परिस्थितिमें रोगीके परिजन कितना ही धन खर्च करनेको तैयार हो जाते हैं। इसलिए कुछ लोगोंके लिए यह मुनाफाखोरीका माध्यम बन जाता हैं। शायद इसीलिए चिकित्सक बननेके इच्छुक अधिकांश युवाओंके लिए यह चिकित्सा पद्धति पहली पसंद रहती है। दवाइयां बनानेवाली फार्मा कम्पनियोंको भी मुनाफाखोरीके अच्छे अवसर रहते हैं। रिपोट्र्सके अनुसार जनवरीमें सीरम इंस्टीट्यूटने कोरोना वैक्सीनकी कीमत बाजार एवं सरकारके लिए क्रमश: १००० एवं २५० रुपये प्रति खुराक मांगी थी, परन्तु भारत सरकारने एक समान १५० रुपये प्रति खुराक दर तय की। पुन: अप्रैलमें १८-४४ आयु वर्गके टीकीकरणके लिए भारतीय कम्पनियों द्वारा रखी गयी वैक्सीनकी कीमत प्रणाली तर्कसंगत नहीं है।

आयुर्वेदमें मरीजको स्वस्थ्य होनेमें समय लगता है, परन्तु कई बीमारियोंको जड़से ठीक करनेका दावा किया जाता है। इसमें ऋतु अनुसार पथ्य-अपथ्यका ध्यान रखना पड़ता है। कभी-कभी दवाइयां जड़ी-बूटियोंसे तैयार करनी पड़ती हैं, जो कि असुविधाजनक है। स्वतंत्र भारतमें भी शासन द्वारा आयुर्वेदकी उपेक्षा होती रही। यद्यपि शल्य चिकित्साका विकास आयुर्वेदसे ही हुआ, परन्तु आयुर्वेदिक चिकित्सकोंको लम्बे समय बाद वर्ष २०२० में परास्नातक पाठ्यक्रममें इसके सीमित प्रशिक्षणको शामिल किया गया। इसलिए प्रशिक्षित एवं कुशल चिकित्सकोंकी कमी रही है। साथ ही मुनाफाखोरीके अवसर न होनेके कारण युवाओंमें आयुर्वेदिक चिकित्सकके रूपमें करियर बनानेकी रुचि भी नहीं रही। परन्तु एलोपैथीके दुष्प्रभावों एवं खर्चको देखते हुए और स्वामी रामदेव एवं अन्य आयुर्वेद विशेषज्ञों द्वारा इस दिशामें शोधकार्य आगे बढ़ानेसे अब समाजका रुझान एक बार फिर आयुर्वेदकी ओर बढ़ रहा है। प्रकृतिमें दो प्रकारकी क्रियाएं होती हैं-धीमी एवं तीव्र। ऊष्मागतिकी (थर्मोडाइनमिक्स) के अनुसार यह क्रियाएं हैं-समतापीय (आइसोथर्मल) एवं ऊष्मारोधी (ऐडियाबेटिक)। समतापीय क्रियाओंमें बहुत धीमी गतिके कारण हर क्षण वातावरणसे सन्तुलन बना रहता है, परन्तु ऊष्मारोधी क्रियाओंमें तीव्र गतिके कारण वातावरणसे ऊष्माका आदान-प्रदान नहीं हो पाता, जिससे आन्तरिक ऊर्जा घट जाती है। चिकित्साके विषयमें भी ऐसा ही होता है। आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रकृतिके साथ धीमी गतिसे काम करती है, इसलिए इसके दुष्प्रभाव बहुत कम होते हैं। इसके विपरीत ऐलोपैथी चिकित्सा शीघ्र प्रभाव डालती है, इसलिए दुष्प्रभाव अधिक होते हैं एवं चूक होनेपर सुधारके अवसर बहुत सीमित हो जाते हैं। इसका उदाहरण कोरोनासे ठीक होनेपर कुछ लोगोंमें ब्लैक फंगस या हृदयकी बीमारियोंके रूपमें देखा जा सकता है। मॉडरेट वर्गके अधिकांश रोगियोंको भी संक्रमणसे छुटकारा मिलनेपर पहले जैसा स्वास्थ्य पानेमें समय लग जाता है।

कोरोनाकालमें आयुर्वेद विशेषज्ञोंने रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाकर समाजको माहमारीसे बचानेके लिए गरम पानी पीने, भाप लेने, काढ़ा एवं गिलोयका सेवन करने, योगाभ्यास एवं प्राणायाम करनेकी सलाह देते रहे हैं। संक्रमित एवं स्वस्थ्य, अधिकांश लोग इन दिशा-निर्देशोंका पालन करते रहे। ऐलोपैथीके चिकित्सक भी ब्रीदिंग इक्सरसाइजकी सलाह देते रहे। समाजको स्वस्थ्य रखने हेतु चिकित्सा पद्धतियोंके अनुयायियोंमें यह तालमेत शुभ संकेत है। विचारणीय है कि दोनों ही चिकित्सा पद्धतियोंका अपना महत्व है। कोरोनाकालमें एलोपैथके अनेक स्वास्थ्यकर्मियोंने कठिन परिस्थितियोंमें रहकर रोगियोंके रक्षार्थ कड़ी मेहनत कर करोड़ों रोगियोंका जीवन बचाया है। कई कोरोना योद्धाओंको बलिदान भी देना पड़ा। कृतज्ञ समाज इन सभीका सम्मान करता है। स्वास्थ्य रक्षामें आयुर्वेद एवं इससे जुड़े स्वास्थ्य कर्मियोंकी भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। एकान्तवासमें रहकर कोरोनासे बचाव करनेवालों या अस्पतालसे घर वापस आकर स्वास्थ्य लाभ लेनेवालोंमें अधिकांशने आयुर्वेदका भी आश्रय लिया है।

इसके अलावा वह करोड़ों लोग जो संक्रमणसे बच सके, उनमें भी अधिकांशने आयुर्वेदका सहारा लिया है। कोरोना-सुनामीके दौरान पतंजलि आरोग्य केन्द्रोंपर कोरोनिलकी बिक्रीमें वृद्धिसे यह स्पष्ट संकेत मिलता है। हालके दशकोंमें योग एवं आयुर्वेदके प्रचार-प्रसारसे समाजमें स्वास्थ्यका प्रति जागरूकता बढ़ी है, जिससे एलोपैथीसे जुड़े कारोबारपर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इसे लेकर कुछ एलोपैथी चिकित्सक एवं फार्मा कम्पनियां चिन्तित हैं। स्वामी रामदेव पहलेसे ही विदेशी कम्पनियोंके निशानेपर हैं। उनके द्वारा एलोपैथीपर उठाये गये प्रश्नोंका समय एवं शब्दोंका चयन अनुचित हो सकता है, परन्तु यह प्रश्न देशकी जनताके हैं। एलोपैथीको सचका सामना तो करना ही पड़ेगा, यही विज्ञानकी कसौटी है। कानूनी काररवाईका डर दिखाकर समाजका मुंह नहीं बन्द किया जा सकता। आईएमएसे अपेक्षा है कि वह विवादोंसे बचकर प्राइवेट अस्पतालोंमें चिकित्सामें पारदर्शिता लाने, कंसल्टेशन शुल्क तर्कसंगत बनाने एवं मुनाफाखोरी नियंत्रित करनेपर ध्यान देकर चिकित्सा कार्यकी पवित्रता बनाये रखेंगे।