सम्पादकीय

धरती बचानेकी चिन्ता


ऋतुपर्ण दवे

विश्वभरमें पर्यावरणको लेकर जितनी चिन्ता दिखती है, उतनी धरातलपर उतरती नहीं है। सच यह है कि वैश्विक लीडरशिपकी मौजूदगीके बावजूद प्रकृतिके बिगड़ते मिजाजको काबूमें नहीं लाया जा सका है। 

धरतीकी सूखती कोख, आसमानका हांफता रूप बीती एक-दो पीढिय़ोंने ही देखा है। इससे पहले हर गांवमें कुंए, पोखरे, तालाब शान हुआ करते थे। गर्मीकी ऐसी झुलसन ज्यादा पुरानी नहीं है। कुछ वर्षों पहलेतक बिना पंखा, आंगनमें आनेवाली मीठी नींद भले ही अब यादोंमें ही है लेकिन ज्यादा पुरानी बात भी तो नहीं। बदलावकी चिन्ता सबको होनी चाहिए। सबसे मतलब पठारसे लेकर पहाड़ और बचे खुचे जंगलोंसे लेकर कांक्रीटकी बस्तियोंकी तपनतक इसपर विचार होना चाहिए। सब जगह प्राकृतिक स्वरूप तेजीसे बदल रहा है। काफी कुछ बदल गया है। हल वहीं मिलेगा जब चिन्ता उन्हीं बिन्दुओंपर हो जहां इन्हें महसूस किया जा रहा हो। लेकिन हो उल्टा रहा है। हजारों किमी दूर, सात-सात समंदरके पार सीमेण्टकी चट्टानोंकी अट्टालिकाओंके एयरकंडीशण्ड हॉलमें इन समस्याओंपर चर्चा तो होती है परन्तु जिसपर चर्चा होती है वहांके हालात सुधरनेके बजाय दिनों-दिन बिगड़ते ही जाते हैं। बढ़ती जनसंख्या, उसी अनुपातमें आवश्यक्ताएं और त्वरित निदानके तौरपर मौजूद प्राकृतिक संसाधनोंका बेतरतीब दोहन ही प्रकृतिके साथ ज्यादतीकी असल वजह है। बजाय प्राकृतिक वातावरणको सहेजनेके उसे लूटने, रौंदने और बरबाद करनेका काम ही आज तमाम योजनाओंके नामपर हो रहा है! इन्हें बजाय रोकने और समझनेकी जगह महज बैठकोंसे हासिल करना औपचारिकतासे ज्यादा कुछ नहीं है।

भारतीय पर्यावरणीय स्थितियोंको देखें तो पर्यावरण और प्रदूषणपर चिन्ता दिल्ली या राज्योंकी राजधानीके बजाय हर गांव एवं मोहल्लेमें होने चाहिए। इसके लिए सख्त कानूनोंके साथ वैसी समझाइश दी जाय जो लोगोंको आसानीसे समझ आये। लोग जानें कि प्रकृति और हमारा संबंध पहले कैसा था और अब कैसा है। यह भले ही बहुत मामूली-सी लगनेवाली बात हो लेकिन कितनी महत्वपूर्ण है, समझना और समझाना होगा। बूंद-बूंदसे सागर भरता है। बस इसके भावार्थको आज साकार करना होगा। आज गांव-गांवमें कंक्रीटके निर्माण तापमान बढ़ा रहे हैं। सालभर पानीकी जरूरतोंको पूरा करनेवाले कुंए बारिश बीतते ही पांच-छह महीनोंमें सूखने लग जाते हैं। तालाब, पोखरोंका भी यही हाल है। पानी वापस धरतीमें पहुंच ही नहीं रहा है। नदियोंसे पानीकी बारहों महीने बहनेवाली अविरल धारा सूख चुकी है। उल्टा रेतके फेरमें बड़ी-बड़ी नदियांतक अपना अस्तित्व खोती जा रही हैं। सवाल वही कि बिगड़ते पर्यावरण और प्रकृतिके मिजाजको कैसे दुरुस्त रखा जाय। इसके लिए शुरुआत गांव, मोहल्ले और एक-एक घरसे करनी होगी। जल, जंगल और जमीनके महत्वको सबको समझना और समझाना होगा। इस हाथ ले, उस हाथ दे के फॉर्मूलेपर हर किसीको सख्तीसे अमल करना होगा। धरतीका पानी लेते हैं तो वापस उसे लौटानेकी अनिवार्यता सबपर हो। जितना जंगल काटते हैं उतना ही वापस तैयार कर लौटायें। गांव, नगर एवं शहरोंके विकासके नामपर सीमेण्टके जंगल तो खड़े हो जाते हैं लेकिन उस अनुपातमें बढ़ते तापमानको काबू रखनेके लिए हरियालीपर सोचा नहीं जाता है। आबादीसे कुछ गज दूर ही जंगल या गैर-रिहायशी खाली क्षत्रोंके कम तापमानका फर्क तो सबने महसूस किया है। सभी पल दो पल ऐसी सुकूनकी जगह घूमने-फिरने आते भी हैं। लेकिन कभी कोशिश नहीं की कि काश घरपर ही ऐसा सुकून मिल पाता। सोचिये, कुछ साल पहले ऐसा था तो अब क्यों नहीं हो सकता। बस यहींसे शुरुआतकी जरूरत है। इसी तरह स्थानीय निकायोंके द्वारा भी जहां-तहां बननेवाली सीमेण्टकी सड़कोंमें ही ऐसी सुराख तकनीक हो जिससे सड़ककी मजबूती भी हो और बारिशके पानीकी एक-एक बूंद बजाय फालतू बह जानेके वापस धरतीमें जा समाये। हर नगर निकाय बेहद जरूरी होनेपर ही फर्शीकरण कराये न कि फण्डका बेजा इस्तेमाल करनेके लिए चाहे जहां फर्शीकरण कर धरतीमें जानेवाले जलको रोक दिया जाय। खाली जगहोंपर हरे घासके मैदान विकसित करें जिससे बढ़ता तापमान नियंत्रित होता रहे। ऐसा ही इलाकेकी नदीके लिए हो। उसको बचाने एवं सम्हालनेके लिए फण्ड हो, निरंतर विचार हो, नदीकी धारा निरन्तर बनाये रखनेके लिए प्राकृतिक उपाय किये जायं। कटाव रोकनेके लिए पहले जैसे पेड़-पौधें लगें। रेत माफियाओंकी बेजा नजरसे बचायें। इसके अलावा पर्यावरणपर बोझ बनता गाडिय़ोंका धुंआ घटे। बैटरीके वाहनोंको बढ़ावा मिले। सार्वजनिक वाहन प्रणालीके ज्यादा उपयोगपर ध्यान हो। थोड़ी दूरीके सफरके लिए साइकिलका चलन बढ़े और साइकिल चलाना गरिमाका विषय बने। इससे हमारा और प्रकृति दोनोंका ही स्वास्थ्य सुधरेगा।

धरतीके प्राकृतिक बदलावोंके लिए थोड़ी सख्ती और नेकनीयतीकी जरूरत है। पंचायतसे लेकर नगर निगमतकमें बैठा अमला भवनों और रिहायशी क्षेत्रोंके निर्माणकी इजाजतके समय ही हरियालीके प्रबंधनपर सख्त रहे। हर भू-खण्डपर निर्माणकी इजाजतसे पहले नक्शेमें बारिशके पानीको वापस भू-गर्भतक पहुंचाने, हर घरमें जगहके हिसाबसे कुछ जरूरी और पर्यावरणीय अनुकूल वृक्षोंको लगाने। लोगोंको घरोंकी छतों, आंगनमें गमलोंमें बागवानी और ऑर्गेनिक सब्जियोंको पैदा करनेकी अनिवार्यताका जरूरी प्रबंध हो ताकि बचतके साथ स्वास्थ्य लाभ भी हो। पुराने निर्माणों, पुरानी कॉलोनियोंमें वर्षा जल संचय प्रबंधन न केवल जरूरी हों, बल्कि जहां जिस तरह संभव हो तत्काल व्यवस्था करनेके निर्देश और पालन कराया जाय। सब कुछ अनिवार्य रूपसे निरंतर चलती रहनेवाली प्रक्रियाके तहत हो जिसमें निकाय अंतर्गत हर एक आवासमें प्रबंधनकी जानकारी संबंधी निर्देशोंका उजागर अभिलेख हो।

यह पोर्टल सबको दिखे ताकि सार्वजनिक क्रॉस चेककी स्थिति बनी रहे। पालन न करनेवालोंकी जानकारी लेनेकी गोपनीय व्यवस्था और दण्डका प्रावधान हो, ताकि यह मजबूरी बन सबकी आदतोंमें शामिल हो जाय। घर-घर हरियालीकी ऐसी पहलसे ही तापमानमें प्रभावी कमीं साफ झलकेगी जो घरसे होती दुनियाके लिए तो फायदेमंद होगी ही उस प्रकृति और पर्यावरणके लिए वरदान होगी जिसकी कृपापर ही हमारा अस्तित्व है। जल, जंगल और जमीनके वास्तविक स्वरूपको लौटा पाना तो असंभव है लेकिन वैसा अनुकूल वातावरण बना पाना कतई असंभव नहीं है। यह काम संस्था, सरकार और देशके बजाय हर एक नागरिकके जरिये ही हो पायगा। दूसरोंमें शब्दोंमें जन-जनकी आहुतीसे जल, जंगल और जमीनकी पीड़ाको हरा जा सकता है। हर एक घरसे ही स्वस्थ धरती, स्वस्थ पाताल और स्वस्थ आसमानकी पहल साकार हो पायगी इसीसे प्रकृति, पर्यावरण और आम जन-जीवनकी रक्षा, सुरक्षा हो पायगी अन्यथा दिखावाकी कोशिशें सिर्फ कागजों और नारोंमें सिमट कर रह जायंगी।