सम्पादकीय

महामारीसे जंगमें चुनौतियां


डा. प्रदीप कुमार सिंह     

देशमें चिकित्सा व्यवस्था या सरकार, किसीको महामारीके  भयावह रूपका पूर्वानुमान नहीं था। हर स्तरपर लापरवाही, अनुशासनहीनता, अवसरवादिता एवं स्वार्थपरक सियासतके कारण महामारी अनियंत्रित हो गयी एवं गांवोंतक फैल गयी। जांचके अभावमें ग्रामीण आकड़े प्राय: बहुत कम ही प्राप्त होते हैं। इसलिए महामारीसे संक्रमण एवं मृत्युके आकड़े, दैनिक जारी किये गये आकड़ोंसे बहुत अधिक हो सकते हैं। महामारीपर नियंत्रणके लिए प्रधान मंत्री द्वारा सुझाया गया थ्री-टी फार्मूला टेस्टिंग-ट्रेसिंग-ट्रीटमेंट शहरोंके साथ गांवोंमें भी लागू करना होगा। परन्तु विशाल जनसंख्याको देखते हुए न स्वास्थ्य सुविधाएं पर्याप्त हैं और न स्वास्थ्यकर्मियोंकी संख्या। इसलिए स्वास्थ्य विभागपर कार्यभार बढ़ गया है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों एवं गांवोंमें लगनेवाले जांच शिविरोंमें प्राय: स्वास्थ्यकर्मी भी कोरोना प्रोटोकॉलका पालन करनेमें लापरवाही कर बैठते हैं, जिससे संक्रमण और भी फैल सकता है। भारतमें बढ़ते कोरोना महामारीके मामलोंपर चिंता व्यक्त करते हुए, विश्वके जाने-माने संक्रामक रोग विशेषज्ञ, अमेरिकाके शीर्ष सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ  डां एंथनी फौसीने देशव्यापी लॉकडाउन, बड़ी संख्यामें अस्थायी अस्पतालोंके निर्माण और बड़े पैमानेपर टीकाकरण अभियानकी सिफारिश की। भारतमें स्वास्थ्य मंत्रालय एवं चिकित्सा विशेषज्ञ भी इस विषयमें जागरूक दिखायी देते हैं और सभी अपनी भूमिका निभा रहे हैं।

भारतमें महामारी नियंत्रणकी प्रक्रिया अन्य देशोंसे जटिल दिखायी देती हैं। भारत सदियोंसे सियासत प्रधान देश रहा है। यहांके राजपरिवारोंने कभी मिलकर आपदाका सामना नहीं किया, बल्कि कुछ तो खुद ही दूसरोंके लिए आपदा बढ़ाते देखे गये हैं। आज भी कुछ राजनेता महामारीमें सियासतका अवसर ढूंढ़ लेते हैं। पिछले वर्ष देशव्यापी लाकडाउन लगाया गया। परन्तु विपक्षी नेताओंको यह पसन्द नहीं आया। प्रवासी मजदूरोंके पीड़ादायक पलायनकी घटनाएं एवं इनपर देशव्यापी सियासतको भुलाया नहीं जा सकता। प्रवासी मजदूरोंको रेलगाडिय़ों द्वारा घर भेजनेके लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकारको आदेश देना पड़ा। राज्य सरकारोंकी मांगपर उन्हें महामारी प्रभावित क्षेत्रोंकी पहचान कर आवश्यकतानुसार लाकडाउन लगानेका अधिकार दिया गया। महामारीकी इस सुनामीमें प्रभावित राज्योंकी सरकारें विवेकानुसार निर्णय ले रही हैं, भले ही ऐसा करनेमें देर लग गयी। आश्चर्य है, इस बार कुछ विपक्षी दल देशव्यापी लाकडाउन न लगानेपर सरकारकी आलोचना कर रहे हैं। राज्य सरकारों द्वारा क्षेत्रीय लाकडाउन लगाये जानेसे कुछ प्रवासी मजदूरोंकी समस्या फिर आ गयी है, जिसे हल करनेके लिए सर्वोच्च न्यायालयने एक बार फिर आदेश दिया है। परन्तु इस बार स्थिति चिन्ताजनक है क्योंकि महामारी गांवोंमें भी फैल चुकी है। नि:सन्देह महामारीके नियंत्रण हेतु लाकडाउन आवश्यक है, परन्तु विशाल जनसंख्याके कारण यह कई अन्य समस्याओंको जन्म देता है। संक्रमितजनोंके इलाजमें अस्थायी अस्पतालोंका निर्माण महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। किसी न किसी रूपमें इसपर काम हुआ भी है। मरीजोंके लिए बिस्तरोंकी संख्या बढ़ाना एवं आईसीयू-बिस्तरोंकी संख्या बढ़ाना, संक्रमितोंके एकान्तवास एवं इलाजके लिए स्कूल-परिसरोंका उपयोग करना, अस्थायी अस्पतालोंका निर्माण एवं रोडवेज बसोंको अस्थायी अस्पतालोंमें परिवर्तित करना आदि ऐसी ही व्यवस्थाएं हैं। महामारीकी पहली लहरके दौरान चिकित्साके लिए संसाधन जुटाये भी गये थे। परन्तु इस बार विषाणुके घातक वैरिएंटसे भारी संख्यामें संक्रमणके कारण आक्सीजन एवं दवाइयोंकी उपलब्धता प्रभावित हुई। सरकारोंके प्रयास एवं विदेशी सहायतासे सुधार हुआ है। परन्तु समस्या स्वास्थ्यकर्मियोंकी है। देशमें चिकित्सकों एवं पैरामेडिकल स्टाफकी संख्या पहले ही बहुत कम थी, महामारीसे संक्रमित होने एवं मृत्यु हो जानेसे और कमी हो गयी है।

कुछ गांवोंमें प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र तो हैं, परन्तु स्वास्थ्यकर्मियोंकी कमीके कारण प्राय: बन्द रहते हैं एवं ग्रामीण इन सुविधाओंका लाभ नहीं ले पाते। कई शहरोंमें तो सामान्य दिनोंमें प्रतिष्ठित अस्पतालोंमें भी स्वास्थ्यकर्मियोंकी कमी देखी जा सकती है। परिस्थितिवश सरकारको पोस्टग्रेजुएशन प्रवेश परीक्षाकी तैयारी कर रहे डाक्टरों, एमबीबीएस अंतिम वर्षके छात्रों, मेडिकल इंटर्न और बीएससी उपाधिधारी नर्सोंको भी ड्यूटीपर लगाना पड़ा। संक्रमणसे बचनेके लिए बड़े पैमानेपर टीकाकरण आवश्यक है। देशमें टीकाकरण १६ जनवरीको प्रारम्भ हुआ था। टीकाकरणमें चीन एवं अमेरिकाके बाद भारत तीसरे स्थानपर है। भारतकी १३९ करोड़ जनसंख्यामेंसे लगभग सौ करोड़ १८ वर्षसे अधिक उम्रके लोग हैं। इतनी बड़ी जनसंख्याका टीकाकरण मात्र कुछ महीनोंमें संभव नहीं है। भारतमें आपदा प्रबंधनकी कोई भी पहल सियासतसे अछूती नहीं है। कुछ राजनीतिक दलों द्वारा जनवरी-फरवरीमें स्वदेशी वैक्सीनोंकी उपयोगितापर अविश्वास प्रकट करना, अप्रैलमें १८-४४ वर्ष उम्र वर्गके लिए भी टीकीकरणका दबाव बनाना एवं केन्द्र सरकार द्वारा इस उम्र वर्गके लिए राज्य सरकारोंको जिम्मेदारी दिये जानेपर व्यापक आलोचना करना, केन्द्र सरकार द्वारा मुफ्त टीकीकरण कराने एवं राज्य सरकारों द्वारा मुफ्त टीकीकरणकी घोषणा करनेके बाद भी मुफ्त टीकीकरणकी मांग करना, साथ ही कृषि कानूनोंको रद करनेकी मांग करना, कुछ ऐसे ही सियासी मामले हैं। यद्यपि १ मईसे १८-४४ वर्ष उम्र वर्गके लिए भी टीकाकरण अभियान शुरू हो गया, परन्तु वैक्सीनकी कमी होनेके कारण व्यवस्था बिगड़ गयी।

सरकार द्वारा दिसम्बरतक वैक्सीनकी २१६ करोड़ खुराकें उपलब्ध करानेके आश्वासनसे महामारीपर नियंत्रणकी आशा जगी है। वैक्सीनकी उपलब्धता नि:संदेह देशकी १८ वर्षसे अधिककी जनसंख्याके लिए पर्याप्त होगी। उत्पादन बढ़ानेके लिए भारत-बायोटेक द्वारा वैक्सीनके फार्मूलेको अन्य फार्मा कम्पनियोंसे साझा करनेका फैसला भी सराहनीय है। भारतीय कम्पनियों द्वारा बच्चोंके लिए वैक्सीन विकसित करनेका प्रयास भी प्रशंसनीय है। परन्तु आशंका है कि जबतक भारतमें बच्चोंके लिए वैक्सीन उपलब्ध नहीं हो जाती, इसपर सियासत जारी रहेगी एवं सरकारपर बच्चोंके लिए विदेशी वैक्सीन खरीदनेका दबाव भी बनाया जायेगा। प्रभावी उपायों द्वारा कोरोना महामारीपर नियंत्रण अवश्य मिलेगा। परन्तु विचारणीय है कि महामारीने देशकी दो प्रमुख चुनौतियोंकी पहचान की है- निरंतर बढ़ती विशाल जनसंख्या एवं दलगत स्वार्थपरक सियासत। देशको सशक्त राष्ट्र एवं विश्वगुरूके रूपमें प्रतिष्ठित करनेके लिए इन बुनियादी चुनौतियोंपर नियंत्रण करना आवश्यक है। संवैधानिक संस्थाओंसे अपेक्षा है कि वह इस विषयमें गम्भीरतापूर्वक विचारकर हल निकालेंगे।