सम्पादकीय

वैदिक शिक्षाका आदर्श चरित्र


डा. वरिंदर भाटिया    

देशकी अनूठी विरासतके रूपमें वैदिक शिक्षाकी काफी खूबियां रही हैं। हमारा वर्तमान शिक्षाजगत इनसे ज्यादा नहीं है। इसलिए वैदिक शिक्षासे जुड़े कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओंसे अवगत होना जरूरी है। वैदिक शिक्षा सांस्कृतिक दृष्टिपर बल देती है। इसके मुताबिक शिक्षित व्यक्तिको साहित्य, कला, संगीत आदिकी समझ होनी चाहिए। उसे जीवनके उच्च आदर्शोंका ज्ञान भी होना चाहिए। पूर्वजोंकी परम्परा और संस्कृतिकी रक्षा शिक्षित व्यक्तिका कर्तव्य था। वैदिक शिक्षासे समस्त देशमें कुछ ऐसे आधारभूत मूल्योंकी स्थापना हुई जो आज भी सांस्कृतिक एकताके आधार हैं। कुछ लोगोंके अनुसार आजकी शिक्षा प्रणालीमें यह एक आउटडेटेड विचार समझा जा सकता है। वैदिक कालीन शिक्षाका अर्थ अत्यधिक व्यापक था। वह शिक्षा जीवनसे संबंधित थी और व्यक्तिको सभ्य तथा उन्नत बनानेमें सहायक मानी जाती थी। वैदिक शिक्षा प्रणालीके अनेक गुण थे। इन गुणोंका तत्व आज भी प्रासंगिक है। वैदिक कालीन शिक्षा नि:शुल्क थी। गुरुकुलमें शिष्योंसे किसी भी प्रकारका शुल्क नहीं लिया जाता था। उनके आवास, वस्त्र तथा भोजनकी व्यवस्था भी नि:शुल्क होती थी।

वैदिक कालकी शिक्षापर होनेवाले व्ययकी पूर्ति राज, धनाढ्य लोगों तथा भिक्षाटन एवं गुरु दक्षिणासे की जाती थी। वैदिक कालीन शिक्षा द्वारा मनुष्योंका शारीरिक, बौद्धिक, नैतिक, सांस्कृतिक, व्यावसायिक तथा आध्यात्मिक विकास किया जाता था। वैदिक कालमें मनुष्यके प्राकृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक तीनों पक्षके विकासपर बल दिया जाता था। इसके लिए शिक्षाकी पाठ्यचर्यामें भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों प्रकारके विषयोंको सम्मिलित किया जाता था। आजकी हमारी शिक्षामें आध्यात्मिक तत्व न होनेके कारण हमारे दिलोदिमागसे सामाजिक संवेदना विलुप्त होती जा रही है। वैदिक कालीन शिक्षामें उत्तम शिक्षण विधियोंका प्रयोग किया जाता था। अनुकरण, व्याख्यान, वाद-विवाद, प्रश्नोत्तर, तर्क, विचार-विमर्श, चिंतन-मनन, सिद्धि, प्रयोग एवं अभ्यास, नाटक एवं कहानी इत्यादि वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक विधियोंका विकास किया जा चुका था। इनको दोबारासे हमारे शिक्षणमें शामिल करनेकी जरूरत है। वैदिक कालमें गुरु तथा शिष्योंका जीवन अत्यंत संयमित और अनुशासित होता था। उनकी जीवनशैली सादा जीवन उच्च विचारपर आधारित थी। वैदिक कालीन शिक्षामें गुरु तथा शिष्योंके मध्य मधुर संबंध थे। दोनों एक-दूसरेके प्रति त्यागकी भावना रखते थे तथा शिक्षकोंके बीच मानस पिता-पुत्रके संबंध थे। वैदिक कालीन शिक्षामें गुरुकुलोंका पर्यावरण अति उत्तम था। गुरुकुल प्रकृतिके स्वच्छ वातावरणसे युक्त स्थलोंमें होते थे, जहां जन-कोलाहल नहीं था तथा जलवायु शुद्ध होती थी। आज हम छात्रोंको किन हालातमें शिक्षित कर रहे हैं। वस्तुत: मशीनोंके जरिये दी जा रही शिक्षा मनुष्यरूपी छात्रोंको असंवेदनशील रोबोटके रूपमें विकसित कर रही है। यहांपर सांस्कृतिक शिक्षाका महत्व और भी बढ़ जाता है। वैदिक कालीन जीवनपद्धति संस्कार प्रधान थी। वैदिक शिक्षा प्रणाली पूर्णतया दोषरहित थी, ऐसा कहना कठिन है।

वैदिक कालीन शिक्षामें राज्यका नियंत्रण या उत्तरदायित्व नहीं था। तत्कालीन शिक्षा-व्यवस्था पूर्णत: व्यक्तिगत नियंत्रणमें थी, जो पूर्णत: गुरुकुलोंतक सीमित थी। अत: इससे जन-शिक्षाकी अवहेलना होती थी। वैदिक कालीन शिक्षामें आयकी सुनिश्चित एवं विधिवत व्यवस्था नहीं थी। यद्यपि वैदिक कालीन शिक्षाका व्यय राजा, धनी लोग, भीक्षाटन तथा गुरु दक्षिणासे पूरा किया जाता था, किंतु इन सबका कोई निश्चित समय न होनेसे असमंजसकी स्थिति रहती थी। वैदिक जमानेकी तरह आज भी अमेरिका और अनेक देशोंमें उच्च शिक्षा संस्थाओंकी रिसर्च फंडिंग अमीर लोग करते हैं। लेकिन हमारे यहांकी स्थिति दयनीय है। वैदिक कालीन शिक्षामें रटनेपर विशेष बल दिया जाता था। यद्यपि उस समय उत्तम शिक्षा विधियोंका विकास हो चुका था, किंतु लिखनेकी समुचित व्यवस्थाका अभाव होनेके कारण याद रखनेपर विशेष बल दिया जाता था। वैदिक कालीन शिक्षाकी अनुशासन व्यवस्था अत्यंत कठोर थी। वैदिक शिक्षाके व्यावहारिक उद्देश्य रहे हैं जिनकी आज बहुत जरूरत है। इनमें चरित्र निर्माण, व्यक्तित्वका विकास, कार्य-क्षमता और नागरिक जिम्मेदारीका विकास और विरासत एवं संस्कृतिका संरक्षण शामिल हैं। नयी शिक्षा नीति २०२० में इन बिंदुओंपर व्यापक ध्यान दिया गया है। हमारे छात्रोंको शानदार शिक्षा परम्पराओंको आत्मसात करनेमें और सक्षम बनानेके लिए वैदिक और सांस्कृतिक शिक्षाके महत्वको नकारा नहीं जा सकता है। वैदिक शिक्षा सुशासनके सिद्धांतोंका स्टोर हाउस है। महाकवि कालिदासने कहा है कि जो विद्याका उपयोग केवल कमाईके लिए करते हैं, वह विद्याके व्यापारी हैं जिनकी विद्या बिकाऊ मालभर है। पंडित जवाहरलाल नेहरूने अपनी आत्मकथामें तथ्यका उल्लेख किया है कि भारतीय संस्कृतिका उद्देश्य ज्ञानकी खोज है। इसी दृष्टिसे प्राचीन भारतीयोंने शिक्षा प्रणालीका विकास किया था। भारतीयोंके लिए ज्ञान शब्दका कोई सीमित अर्थ नहीं था। शिक्षाके द्वारा वह केवल सांसारिक ज्ञानकी ही नहीं, अपितु परलोक संबंधी ज्ञानको भी प्राप्त करनेका प्रयत्न करते थे। भारतीय संस्कृतिमें प्रत्येक व्यक्तिके जीवनमें चार लक्ष्य माने गये हैं, जिन्हें पुरुषार्थकी संज्ञा दी जाती है- धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष। इन चारोंमेंसे मोक्ष सबसे अधिक पवित्र एवं महत्वपूर्ण माना जाता है।

प्रत्येक व्यक्तिके जीवनका चरम उद्देश्य मोक्षकी प्राप्ति होती है। अत: शिक्षा ही मोक्षकी प्राप्तिका एकमात्र साधन माना गया है। शिक्षाविद्ï मानते हैं कि एक शिक्षार्थीके अंदरकी शक्तियोंको उजागर करना, उसको बाहर निकालना शिक्षाका लक्ष्य है और शिक्षार्थी सर्वांगीण अर्थात्ï मानसिक, शारीरिक, भौतिक आदि सभी प्रकारसे शिक्षार्थीको संपन्न सशक्त बनाना ही शिक्षाका उद्देश्य है। एक शिक्षित मनुष्य हमेशा अपने समाजकी कुशलताके विषयमें सोचेगा जबकि शिक्षाविहीन मनुष्य अपने स्वार्थकी पूर्तिमें व्यस्त रहता है। वैदिक शिक्षाका एक अन्य उद्देश्य आदर्श चरित्रका निर्माण था। शिक्षा तभी सार्थक मानी जाती थी जब उसके द्वारा विद्यार्थियोंकी विवेक-बुद्धि विकसित हो और जीवनके प्रत्येक कार्य क्षेत्रमें उन्हें सफलता मिले। देशके दूसरे राज्योंमें भी वैदिक और सांस्कृतिक शिक्षाको मजबूत करनेके निरन्तर प्रयास करने चाहिए। इसके लिए सरकारोंको फंड्सकी व्यवस्थामें वृद्धि करनी होगी। सवाल पूछे जाने चाहिए कि प्रदेशोंमें भारतीय संस्कृतिकी शिक्षाको मजबूत करनेके लिए क्या किया जा रहा है। कोरोना कालमें सांस्कृतिक शिक्षाका महत्व और सार्थकता बढ़ी है जिसमें योग शिक्षा भी शामिल है। वैदिक शिक्षा और सांस्कृतिक शिक्षाको किसी धर्म विशेषसे न जोड़कर भारतीय शिक्षा पाठ्यक्रमका हिस्सा बनाना औचित्यपूर्ण लग रहा है।