सम्पादकीय

सकारात्मक दृष्टिकोणकी आवश्यकता


प्रो. मनोज डोगरा

कोरोना महामारी एक ऐसा काल बनकर पूरे विश्व एवं हमारे देश, प्रदेश, घर-गांवपर ऐसा मंडराया है मानो अपनी जान बचाना ही इस समय जन्म लेनेकी यथार्थता हो गयी हो। इस महामारीने न जाने कितनोंको अपनोंसे जुदा कर दिया और न जाने अभी यह कोरोना महामारी कितनोंको अपने आगोशमें ले जानेके लिए विषैली घात लगाये हुए है। कोरोनाने न जाने कितनोंको बेरोजगार कर घरोंमें बैठा दिया और न जाने कितनोंको दो वक्तकी रोटीके लिए सड़कोंपर उतार दिया है। इसने देशका कोई क्षेत्र एवं कोना ऐसा नहीं छोड़ा है जिसको अपनी विषैली घातसे प्रभावित न किया हो। चाहे वह परिवहन हो, पर्यटन हो, अर्थव्यवस्था हो, कृषि हो या फिर सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा एवं स्वास्थ्य ही क्यों न हो। इन सबपर कोरोनाने अपने जहरीले फनसे आक्रमण किया है, जिससे संभलनेमें अभी कई साल इनको लग सकते हैं। कोरोनाको विश्वमें आये हुए लगभग डेढ़ वर्ष हो चुका है। इससे संक्रमण फैलनेपर जिस क्षेत्रको सबसे पहले बंद किया गया था, वह शिक्षा क्षेत्र था।

आज लगभग डेढ़ वर्षके बाद भी शिक्षा एवं विद्यार्थियोंके बीच पनपी दूरी कम नहीं हो पायी है, बल्कि धीरे-धीरे और बढ़ती ही जा रही है। कहनेको तो डिजिटल माध्यमसे शिक्षाको विकल्प बताया जा रहा है, लेकिन शिक्षाके लिए एक माहौल, परिवेश एवं गुरुकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है जिससे समस्त विद्यार्थी समाज कोरोनाके कारण वंचित हो गया है। विद्यार्थी असमंजसमें हैं कि कोरोनासे सुरक्षा हो, शिक्षा हो या इन दोनोंके बाद बात परीक्षातक पहुंचेगी भी या नहीं। कई विद्यार्थियोंको सीधे अगली कक्षाओंमें पदोन्नत कर दिया गया, लेकिन योग्यताका पैमाना इस पदोन्नति प्रक्रियासे दूर रहा। पदोन्नति तो मजबूरी थी। आखिर सरकारें एवं शिक्षा विभाग करते भी तो क्या या तो जीरो वर्ष घोषित करते या एक वर्षके नुकसानकी भरपाई पदोन्नतिसे करते और हुआ भी ऐसा ही। लेकिन अब इतने लंबे समयसे घरोंमें कैद विद्यार्थी, चाहे वह स्कूलके विद्यार्थी हों या महाविद्यालयोंके हों, सभी स्वयंपर एक मानसिक दबाव महसूस कर रहे हैं। उन्हें अपने भविष्यकी चिंता सता रही है कि क्या उनकी परीक्षाएं होंगी या उन्हें किस प्रकार उनका परिणाम दिया जायगा।

इस प्रकारके अनेकों सवाल हैं जो इनके मनको घरोंके अंदर कैद होनेके साथ और अधिक घुटन महसूस करवाते हैं। विद्यार्थी समाज शिक्षा तो चाहता है, परन्तु परिस्थितियोंके आगे नतमस्तक है क्योंकि कोरोना अपनी चरम सीमा एवं गतिसे लोगोंको मौतका ग्रास बना रहा है। इस महामारीके दौरान विद्यार्थियोंका जीवन अस्त-व्यस्त या मानो त्रस्त-सा होता जा रहा है। जहां विद्यार्थी मार्च माहमें परीक्षाओंमें जुटे होते थे, वहीं आज स्थिति ऐसी असमंजसकी बन गयी है कि परीक्षाएं होंगी या नहीं, इस स्थितिको लेकर ही विद्यार्थियोंका जीवन तनावमें घुट रहा है। घरमें बैठे विद्यार्थी यह नहीं समझ पा रहे हैं कि यह महामारी कब खत्म होगी और कब उनका जीवन आगेकी परीक्षाओंके लिए सुखदायक होगा। जिन छात्रोंने प्रतियोगी परीक्षाओंकी तैयारी की है या करनी थी, वह भी दो वर्ष पीछे चले गये हैं। इसलिए जहां अभिभावक परेशान हैं, वहीं छात्र भी इस स्थितिसे कुछ भी समझ नहीं पा रहे हैं। यही नहीं, उन बच्चोंका जीना भी दूभर हो चुका है जो गत दो वर्षोंसे स्कूलका प्रांगण भी नहीं देख पाये हैं और घरके आंगन और छतके नीचे मजबूर होकर हर रोज बयां करते हैं कि हम कब स्कूल पहुंचेंगे। उन नन्हे-मुन्ने बच्चोंका तो बुरा ही हाल है जिन्होंने पहली कक्षामें दाखिला लेना था। वह घरमें कैद हो चुके हैं। यदि यही हाल रहा तो बच्चोंकी जिंदगी इन प्रतिकूल परिस्थितियोंमें ऐसी बन जायगी कि वह घरसे निकलना पसंद नहीं करेंगे। इसलिए सरकारको चाहिए कि हम कोई ऐसी योजना बनायें कि जो छोटे बच्चे हैं, उनके लिए घर-द्वारपर जहां पढ़ाई हो, वहीं मनोरंजनके साधन भी उपलब्ध हों।

सरकारोंने अनेक ऐसे प्रयास पिछले एक वर्षसे किये हैं जिनसे शिक्षा एवं विद्यार्थीके बीच पनपी दूरीको कम किया जा सकता हो। चाहे वह हर घर पाठशाला जैसे कार्यक्रम हों या गूगल मीट, जूम मीट प्लेटफार्मके माध्यमसे कक्षाएं लगानी हों। अनेक प्रयास सरकारोंने किये हैं, लेकिन यह सब कोरोनाके इस भयंकर आगोशमें फीका-सा लगता है। आज घरोंमें कैद विद्यार्थी सिरपर हाथ लिये बैठने और अपने भविष्यकी चिंता करनेके अलावा किसी अन्य स्थितिमें नजर नहीं आ रहा है। मानो मानसिक दबाव, तनाव, चिंता और कोरोनाकी भयंकर लहर सब कुछ नष्ट करनेको आतुर हो, ऐसा प्रतीत होता है। लेकिन इन युवा विद्यार्थियोंको चिंता करनेकी आवश्यकता नहीं है, बल्कि एक सकारात्मक दृष्टिकोणके साथ मजबूत दृढ़ इच्छा बनाये रखते हुए इस बुरे वक्तसे पार पाना है। आज न सही कल, वह सवेरा आयगा जब कोरोनाका नामोनिशान देशसे समाप्त होगा। यह वक्त गुजर ही जायगा, लेकिन अपने पीछे कुछ काले अध्याय जरूर छोड़ जायगा जिनसे पूरे समाजने मिलकर लडऩा है। भविष्यके लिए सीख लेते हुए राष्ट्र एवं समाजके उत्थानके लिए कार्य करते हुए अपना श्रेष्ठ योगदान देते हुए राष्ट्रनिर्माणकी एक ऐसी अलख जगानी है जिसके प्रकाशसे एक ऐसा वैश्विक मार्ग प्रशस्त हो जिससे भारत एक बार पुन: विश्वगुरु कहलाये।