सम्पादकीय

क्रोधके वशीभूत 


सीताराम

क्रोध जीवनमें लक्ष्यपूर्तिमें सबसे बड़ी बाधा है। क्रोधकी अवस्थामें व्यक्तिके शरीरमें स्थित अंत:स्रावी ग्रंथियोंसे ऐसे हार्मोंस उत्सर्जित होकर खूनमें मिल जाते हैं जो हमारे शरीरके लचीलेपनको समाप्त कर उसे कठोर बना डालते हैं। इससे हम अपनी मांसपेशियों और अंग-उपांगोंपर नियंत्रण खो बैठते हैं। इससे हमारी कार्य करनेकी स्वाभाविक गति एवं सहजता नष्ट हो जाती है। किसी भी कार्यकी सफलता उसके संकल्पपर निर्भर करती है। क्रोधावस्थामें व्यक्तिका संकल्प क्षीण हो जाता है। इससे सफलता संदिग्ध हो जाती है। क्रोधकी अवस्थामें व्यक्ति भूल जाता है कि उसे क्या करना है और सही न करनेपर उसकी भूलका क्या परिणाम होगा। क्रोधावस्थामें व्यक्तिके मस्तिष्ककी कोशिकाएं या न्यूरान्स जो संकल्पकी पूर्णताके लिए अपेक्षित स्थितियोंके निर्माणके लिए उत्तरदायी हैं, अपेक्षित मानसिक और भौतिक स्थितियोंका निर्माण करनेमें सक्षम नहीं रह पाते। क्रोध व्यक्तिका सर्वनाश कर देता है। अत: इससे बचना अनिवार्य है। प्रश्न उठता है कि क्रोधसे बचनेका क्या उपाय है। वे कौन-सी स्थितियां हैं जिनमें व्यक्तिको क्रोध नहीं आता। शरीर और मनके स्वस्थ होनेपर क्रोध की अधिकताका प्रश्न ही नहीं उठता। सृजनात्मक कार्यके दौरान व्यक्तिको क्रोध नहीं आता। इसलिए सृजनात्मकताका विकास क्रोधसे बचनेके लिए सहायक हो सकता है। क्रोध न आना अच्छी बात है, परन्तु क्रोध आनेपर आप उसे सही रूपमें व्यक्त नहीं करते तो यह स्थिति आपके स्वास्थ्यके लिए बेहद हानिकर हो सकती है। अत: उचित रीतिसे क्रोध कीजिए तथा क्रोध प्रकट करनेके बाद उसे मनसे निकाल भी दीजिए। विभिन्न कलाओंके अभ्यास द्वारा यह कार्य संभव है। यदि हम किसी घटनासे क्षुब्ध हैं तो क्रोध करनेकी बजाय उस घटनापर कुछ लिखना, कार्टून एवं चित्रादि बनाना अथवा अन्य रचनात्मक कार्य करना लाभदायक होगा। यदि इस प्रकारकी किसी भी रचनात्मकतामें रुचि नहीं है तो बागवानी, साफ-सफाई अथवा पठन-पाठन एवं अध्ययनमें संलग्न होकर क्रोधसे मुक्ति पायी जा सकती है। व्यस्ततामें ही नहीं, सहजतामें भी क्रोध उत्पन्न नहीं होता। सहजतासे कार्यमें उत्कृष्टता एवं सौंदर्य उत्पन्न होता है। वहींसे रचनात्मकता एवं कलाका विकास होता है। संगीत, नृत्य, अभिनय, योग, पेंटिंग, मूर्तिकला, लेखन, गायन आदि सभी कलाओं एवं रचनात्मक कार्योंमें सहिष्णुता एवं सहजताकी विशेष आवश्यकता होती है। जहां सहिष्णुता एवं सहजता नहीं, वहां सामान्य जीवनमें तो छोडिये कलामें भी सौंदर्य नहीं रहता। सहिष्णुता एवं सहजताके विकाससे क्रोधका परिष्कार रचनात्मकता द्वारा ही संभव है।