सम्पादकीय

आनन्दकी अनुभूति


श्रीराम शर्मा
भगवानके अनगिनत नाम हैं, उनमेंसे एक नाम है सच्चिदानंद। सत्ïका अर्थ है टिकाऊ अर्थात न बदलने, न समाप्त होनेवाला। इस कसौटीपर केवल परब्रह्मï ही खरा उतरता है। उसका नियम, अनुशासन, विधान एवं प्रयास सुस्थिर है। सृष्टिके मूलमें वही है। परिवर्तनोंका सूत्र संचालक भी वही है। इसलिए परब्रह्मïको सत्ï कहा गया है। चितका अर्थ है चेतना, विचारणा। जानकारी, मान्यता, भावना आदि इसीके अनेकानेक स्वरूप हैं। मानवी अंत:करणमें उसे मन, बुद्धि, चित, अहंकारके रूपमें देखा जाता है। बुद्धिमान और मूर्ख सभीमें अपने विभिन्न स्तरोंके अनुरूप वह विद्यमान है। प्राणियोंकी चेतना बृहत्तर चेतनाका एक अंग-अवयव मात्र है। इस ब्रह्मïांडमें अनंत चेतनाका भंडार भरा पड़ा है। उसीके द्वारा पदार्थोंको व्यवस्था एवं प्राणियोंको चेतनाका अनुदान मिलता है। परम चेतनाको ही परब्रह्मï कहते हैं। वह सभीको दौडऩे एवं सोचनेकी क्षमता प्रदान करती है। इसलिए उसे चित अर्थात चेतन कहते हैं। इस संसारका सबसे बड़ा आकर्षण आनन्द है। आनन्द जिसमें जिसे प्रतीत होता है वह उसी ओर दौड़ता है। शरीरगत इंद्रियां अपने-अपने लालच दिखाकर मनुष्यको सोचने और करनेकी प्रेरणा देती हैं। सुविधा-साधन शरीरको सुख प्रदान करते हैं। मानसिक ललक-लिप्सा, तृष्णा और अहंताकी पूर्तिके लिए ललचाती रहती हैं। अंत:करणकी उत्कृष्टतावाला पक्ष आत्मा कहलाता है। उसे स्वर्ग, मुक्ति, ईश्वरप्राप्ति, समाधि जैसे आनन्दोंकी अपेक्षा रहती है। वस्तुत: आनन्द प्रकारान्तरसे प्रेमका दूसरा नाम है। जिस भी वस्तु, व्यक्ति एवं प्रकृतिसे प्रेम हो जाता है, वही प्रिय लगने लगती है। प्रेम घटते ही उपेक्षा चल पड़ती है और यदि उसका प्रतिपक्ष द्वेष उभर पड़े तो फिर वस्तु या व्यक्तिके रूपवान, गुणवान होनेपर भी वे बुरे लगने लगते हैं। उनसे दूर हटने या हटा देनेकी इच्छा होती है। अंधेरेमें जितने स्थानपर टॉर्चकी रोशनी पड़ती है, उतना ही प्रकाशवान होनेसे वहांका दृश्य परिलक्षित होने लगता है। प्रेमको ऐसा ही टॉर्च प्रकाश कहना चाहिए, जिसे जहां भी फेंका जायगा, वहीं सुंदर, प्रिय एवं सुखद लगने लगेगा। वैसे इस संसारमें कोई भी पदार्थ या प्राणी अपने मूल रूपमें प्रिय या अप्रिय है नहीं। हमारा दृष्टिकोण, मूल्यांकन एवं रूझान ही आनंददायक अथवा अप्रिय, कुरूप बनाता चलता है और दृष्टिकोणके अनुसार ही अनुभूति होती चली जाती है। आनन्द ईश्वरकी विभूति है। प्रेमको परमेश्वर कहा गया है। प्रिय ही सुख है अर्थात ईश्वर ही आनन्द है। उसीके आरोपणसे हम प्रसन्न होते हैं। आत्मा परमात्माका ही एक सूक्ष्म अंश माना गया है। यह आत्मा उसी सच्चिदानंदको निरंतर खोजती रहती है, परंतु मायाके अवरोधके कारण उसको प्राप्त नहीं कर पाती है। जब मायाका आवरण हट जाता है तो सच्चिदानंदके स्वरूपका बोध हो जाता है और वह उसीमें निमग्न हो जाती है। आत्माको सच्चिदानंद स्वरूपको प्राप्त करनेकी अभिलाषा शाश्वत है। उसे प्रेम या भक्तियोगसे ही प्राप्त किया जा सकता है। यह लौकिक प्रेमकी श्रेणीका नहीं, अपितु अध्यात्म श्रेणीका है, जिसके द्वारा सच्चिदानंदकी प्राप्ति होती है।